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सुनो देव! / शर्मिष्ठा पाण्डेय

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त्रिनेत्र धारे अलभ्य ज्योतिर्लिंग से फूटने वाले प्रचंड तेज़ ने आँखें मूंदने पर विवश कर दिया... समस्त वाह्य अंगों ने परम-पौरुष प्रतीक दिव्य ज्योति के समक्ष अभ्यर्थना में करबद्ध स्तुति गाई... चमड़ी भेदती दिव्य किरणों ने चुना अपनी प्राण-प्रतिष्ठा के लिए गर्भ का गृह... और ठीक उसी क्षण अनियत गर्भ-स्त्राव कर गर्भ ने अपने गृह में बना डाला अपने आराध्य के लिए देव स्थान... और नाभि-स्थल से श्वांस लेता देव पुंज धीरे-धीरे बढ़ाता रहा रक्त में प्रवाह ....इतना की पग धरने के साथ ही रक्तिम हो गयी पृथ्वी... श्वास वायु से स्पर्श पाकर लाल हो गया सूर्य... नक्षत्र और दिशाएं...

सुनो देव!
तुम्हारी कामना में देह का देवालय हो जाना तय था... इच्छाओं की भस्म पोत करती रही हूँ तुम्हारा श्रृंगार... वर्जनाओं की हरित खोल में लिपटी कंचुकी से मुक्ति दिला अर्पित करती रही हूँ तुम्हें उन्नत श्वेत मंदार पुष्प... तुम पर दृष्टि मात्र से नैनों में हिलोरें लेते अथाह मद्द राशि से लगाती रही हूँ तुम्हें भोग...

आस्था अनंत है देव... विधान कठिन... परीक्षाओं से लघुतर होता है इनका विस्तार... प्रतीक्षारत है आस्था का कौमार्य... अत्यधिक विलम्ब धैर्य की नींव में जल बनकर टपकने लगा है... सृष्टि तुम्हारी साधक है देव!... तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता अगर एक उपासक की आस्था मृत होने लगे... लेकिन उस से तो छिन जाएगा ना उसका इकलौता भगवान्...
सुनो, देव अंश रोपित करना तो सरल है... कठिन है उसे आकार देना...
आस्था दांव पर है
श्रद्धा निर्वात में
भूमि पर मैं हूँ
और
सृष्टि में तुम
मैं अब तक कभी नहीं हारी... सुना देव !!
मैं नहीं हारूंगी इस बार भी