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सुनो मीनाक्षी! / दिनेश श्रीवास्तव

सुनो मीनाक्षी!
तुम्हारे भाइयों ने खेल-खेल में
प्यार से तुम्हारा नाम रखा था,
सूर्पनखा!
तुमने इसे उनका प्यार मान
स्वीकार कर लिया।
और चुप रहीं
यह जानते हुए भी चुप रहीं कि
चिढ़ाने के लिए दिया गया नाम,
एक दिन तुम्हें
अपमानित करने के काम आएगा!
जब तुम्हारे भाई ने
तुम्हारे पति को मरवा दिया,
तब भी तुम चुप रहीं-
शायद तुमने मान लिया -
कि उसने आत्म-रक्षा में किया है.
राम पर तो सारी सृष्टि मोहित थी.
अगर वह तुम्हें भी अच्छे लगे तो
अनुचित क्या था?
पर वे तो तुम्हारे साथ ठठ्ठा कर रहे थे.
जानते हुए कि लक्ष्मण तुम्हें स्वीकार नहीं करेंगे,
तुम्हें उनके पास भेजा था,
और तुम्हारी नासिका कटवा दी थी।
और तुम्हारा भाई!
राम से भिड़ता,
लक्ष्मण से भिड़ता,
पर उसने भी तो अपनी ताकत
दिखाई एक अकेली नारी पर।
और वह भी धोखे से!
सुनो मीनाक्षी!
क्या पुरुष-वर्ग के इसी रवैय्ये से दुखी
तुम सीता से मिलने गयी थीं?
जब उन्हें,
एक और पुरुष द्वारा कही गयी बात के बहाने
राम ने वन में भेज दिया था?
सुनो मीनाक्षी,
क्या कसूर था तुम्हारा
कि राम को पाने के लिए
तुम्हें कुब्जा बन कर आना पड़ा,
कुरूपता का बोझ लिए?
और सुनो मीनाक्षी!
राम ने भी तो तुम्हें चाहा था-
तभी तो वे कृष्ण बन कर आये और
तुम्हें खोज निकाला,
और कुरूपता के बावजूद
तुम्हें स्वीकार किया।
या फिर यह सब केवल इसलिए कि
विधाता भी तो पुरुष ही है?
बोलो मीनाक्षी!