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सुन रहा हूँ / नागार्जुन

सुन रहा हूँ
पहर-भर से
अनुरणन —
मालवाही खच्चरों की घण्टियों के
निरन्तर यह
टिलिङ्-टिङ् टिङ्
टिङ्-टिङा-टङ्-टाङ् !
सुन रहा हूँ अनुरणन !
और सब सोए हुए हैं
उमा, सोमू, बसन्ती, शेखर, कमल...

सभी तो सोए पड़े हैं !
अकेले में जग गया हूँ

सुन रहा हूँ
मालवाही खच्चरों की
घण्टियों के अनुरणन
दूरगामी खच्चरों की
घण्टियों के अनुरणन
श्रुति-मधुर है यह क्वणन
मुख्य पथ से दूर
वे पगडण्डियाँ हैं
भारवाही खच्चरों के
खुरों से रौंदी हुई हैं

पहाड़ी ग्रामाँचलों तक
ट्रक तो जाते नहीं हैं !
कौन उन तक माल पहुँचाए
तेल, चीनी, नमक, आटा —
गुड़ ‘य’ माचिस — मोमबत्ती
दवा-दारू या कि चावल-दाल
ईधन, लोह-लक्कड़
साहबों की कुर्सियाँ तक
खच्चरों की पीठ पर ही लदी होतीं !

निकर या बुशशर्ट..
रेडीमेड सारे
शिशु-जनोचित
सभी कुछ तो
खच्चरों की पीठ पर ही लदा रहता
पहुँचता है दूर-दूर...
पहाड़ी ग्रामाँचलों तक...
क्या पिठौरागढ़-भुवाली...
रानीखेत — अल्मोड़ा ... कहीं भी
पहुँचने की
निजी ही पगडण्डियाँ हैं
खच्चरों के खुरों से रौंदी हुई
वे युगों तक
इतर साधारण जनों की
पथ-प्रदर्शक...

सुन रहा हूँ
खच्चरों की
घण्टियों की अनुरणन ...
नित्य ही सुनता रहूँगा ...
रात्रि के अन्तिम प्रहर में ....
भारवाही खच्चरों की
घण्टियों के अनुरणन —
तालमय, क्रमबद्ध ...

(10.मई.85)