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सुबकते हैं अक्षर / प्रांजल धर

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तुम्हारे दुःस्वप्न के आवर्तन से
राह बदल जाती मेरी ।
औ’ बढ़ जाता भटकाव मेरा ।
कुछ सीखा भी नहीं मेरे मन ने
खुद को मसोसने के सिवा ।
अनगिनत, पर महदूद कामनाओं के ज्वार में
प्रतिस्नेह की रोशनाई ही आसरा रही
उम्र भर के लिए ।
कितना कुछ लिख-लिखकर मिटाया उन्होंने
और ख़त्म कर दी
जतन से बटोरी अपनापे की सारी गाढ़ी रोशनाई ।
अब हिचकियाँ लेते सुबकते हैं अक्षर ।