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सुबह से ही धौंस देती गर्मियों की ये दुपहरी / गौतम राजरिशी

सुब्‍ह से ही धौंस देती गर्मियों की ये दुपहरी
ढ़ीठ है कमबख़्त कितनी गर्मियों की ये दुपहरी

धप से आ टपकी मसहरी पर फुदकती खिड़कियों से
बिस्तरे तकिये जलाती गर्मियों की ये दुपहरी

बादलों का ताकते हैं रास्ते ख़ामोश सूरज
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी

ताश के पत्ते खुले दालान पर, अब 'छुट्टियों' संग
खेलती है तीन पत्ती गर्मियों की ये दुपहरी

लीचियों के रस में डूबी, आम के छिलके बिखेरे
बेल के शरबत सी महकी गर्मियों की ये दुपहरी

शाम आँगन में खड़ी कब से, मगर छत पर अभी तक
पालथी मारे है बैठी गर्मियों की ये दुपहरी

चाँद के माथे से टपकेगा पसीना रात भर आज
दे गई है ऐसी धमकी गर्मियों की ये दुपहरी







(त्रैमासिक अनन्तिम जनवरी-मार्च 2013, त्रैमासिक अभिनव प्रयास जुलाई-सितम्बर 2013)