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सुब्ह का अफ़साना कहकर शाम से / शकील बँदायूनी

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सुब्ह का अफ़साना कहकर शाम से
खेलता हूं गर्दिशे-आय्याम<ref>कालचक्र</ref>से

उनकी याद उनकी तमन्ना, उनका ग़म
कट रही है ज़िन्दगी आराम से

इश्क़ में आएंगी वो भी साअ़तें<ref>क्षण</ref>
काम निकलेगा दिले-नाकाम से

लाख मैं दीवाना-ओ-रूसवा सही
फिर भी इक निस्बत<ref>संबंध</ref> है तेरे नाम से

सुबहे-गुलशन<ref>उपवन की सुबह</ref> देखिए क्या गुल खिलाए
कुछ हवा बदली हुई है शाम से

हाय मेरा मातमे-तश्नालबी<ref>पिपासा का शोक</ref>
शीशा<ref>बोतल</ref> मिलकर रो रहा है जाम से

हर नफ़स<ref>श्वास</ref> महसूस होता है ‘शकील’
आ रहे हैं नामा-ओ-पैग़ाम<ref>पत्र और संदेश</ref> से

शब्दार्थ
<references/>