भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुरतिया सबके अइसन लाश त ना रहे / कुमार मुकुल

Kavita Kosh से
Kumar mukul (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:23, 20 जनवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार मुकुल |संग्रह= }} {{KKCatK​​ avita}} <poem>...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

{{KKCatK​​ avita}}

 
कबहूं कबहूं बदरिया छात रहे दुख के
सगरे फैलल अइसन विनाश त ना रहे।
ललाई लउकत रहे पहिलहूं फजिरे
अइसन खूनाइल अकाश त ना रहे।
हमनी टूटत रहीं, जुडि़यो जात रहीं जा
जवनवा सब अइसन हताश त ना रहे।
चलत रहीं जा मथवा बंधले कफनियां
सुरतिया सबके अइसन लाश त ना रहे।
कबहूं कबहूं चढत रहे थोड़न के सर प
भुलाइल सभ के होश-हवाश त ना रहे।

फैज के लिए