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सुरसरि सतत बहे / हरि नारायण सिंह 'हरि'

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कल-कल, छल-छल, पल-पल निर्मल, सुरसरि सतत बहे।
ठिठुरन, तपन, पवन के झोंके क्षण-क्षण कठिन सहे!
सुरसरि सतत बहे!

हिम-निस्सृत, शंकर-जट-पोषित, जन-जन प्यास हरे,
जल से सिंचित धरा तृप्त हो, अमृत-रस उमरे,
हरित खेत, वन, प्रकृति मनोहर, हर-हर जगत कहे!
सुरसरि सतत बहे!

 
प्राण संत के, गुण अनंत-से, महिमा बहुत बड़ी,
मानव की सभ्यता-सखि यह, जन की राह धरी।
पाप-नाशिनी, पुण्य दायिनी, महिमा अकथ कहे!
सुरसरि सतत बहे!

अविरल, फेनिल, धार तरंगित, गुंजित गंगा-रव,
दूषण-रहित, पुन: गंगाजल, हो प्रयत्न अभिनव!
पुन: भगीरथ-यत्न यहाँ हो, गंगा सतत बहे!
भारत की यह प्राणदायिनी, जग आनंदित हे!
सुरसरि सतत बहे!