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'''सुविधा'''
 
तन शहरी
मन हुये जंगली
आंखों पर चश्में रंगीन
हवन जिन्हें करना था वो भी
बजा हें रहे सुविधा की बीन
दोष नहीं था आंखों का पर
पतझड़ हुये बसंती सपने,
चमकदार कहने भर को थे,
देख न पाये शकल स्वयं की
हाथ थमे दर्पण यू ंतो तो थे,
आग लगा बैठे घर अपने
मति ले गया विधाता छीन
थे वेा नियति तो वे नीयति के खेाटे खोटे
पर था राजयोग हाथों में,
कहने भर को थे दधीचि पर
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