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सुहाग / नवीन ठाकुर 'संधि'

हे गुलाब,
बाँटोॅ अनुराग
संसारोॅ केॅ सुन्दर करोॅ
बाँटी के पराग।

जौं-जौं पंखुड़ी हँसै छै,
दिल तोरेह में बसै छै।
जब तक जीभौं,
रस तोरेह पीभौं।
नै करोॅ हमरोॅ त्याग।
हे गुलाब,

तोरेह सें सजै प्रकृति,
तोरेह सें शोभै अदिति।
हरियाली होय छै धरती,
हम्मी पड़लोॅ छी परती।
अनंग खोजै‘‘संधि’’सुहाग
हे गुलाब,
आबेॅ लीपी-पोती देलकै ‘‘संधि’’ नाता
लागै छै, प्रकृति बदली लेलकै रास्ता।