भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सूखती जड़ें / दिनेश श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:36, 13 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश श्रीवास्तव |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कब सोचा था कि
घर से हजारों कोस दूर
जिंदगी का इतना लम्बा
पड़ाव होगा.

और पड़ाव भी कैसा-
जहाँ न तो कोयल की
तान मन हुलसाये है,
न कौए की चीख
खिझलाहट.

अब तो बसों के धुंए से
दम नहीं घुटता.
कचरे के ट्रकों से
बदबू नहीं आती.
और भीख मंगाते बच्चों को
देख,
आँखें नहीं पसीजती.

अब तो इतना मजबूर
हो गया हूँ-
अब तो घर से इतनी दूर
हो गया हूँ, कि
घर और गांव
बस सपने में नज़र आते हैं.

डर है कि कहीं ये
सपने भी धुँधले न हो जायें.
डर है कि
कहीं मेरी जड़ें ही न
सूख जायें.