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सूखी हरियाली / विनीता परमार

गहरी नींद से उठकर
गहरा हरा रंग डाला
तो ये ज़ख्म भी हरे हो गये|
अब कुछ हरा- भरा नही रहा
बुलबुले सी जिन्द्गी से
जाने कब हरियाली निकल गई
इसका पता ही ना चला
हरी काइ के उपर आत्मा फिसलती रही
हरे दूब का मरहम भी
ना ये घाव भर पाया
अब ना कोई मानस दिखता है जो
गहरे रंग को और चटक बना दे
इस सूखी हरियाली में स्फुरन ला दे