भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सूखी हरियाली / विनीता परमार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:31, 7 सितम्बर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विनीता परमार |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गहरी नींद से उठकर
गहरा हरा रंग डाला
तो ये ज़ख्म भी हरे हो गये|
अब कुछ हरा- भरा नही रहा
बुलबुले सी जिन्द्गी से
जाने कब हरियाली निकल गई
इसका पता ही ना चला
हरी काइ के उपर आत्मा फिसलती रही
हरे दूब का मरहम भी
ना ये घाव भर पाया
अब ना कोई मानस दिखता है जो
गहरे रंग को और चटक बना दे
इस सूखी हरियाली में स्फुरन ला दे