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सूरत-ए-शम'अ जले हैं लेकिन नाम मिला परवानों का / ज़ाहिद अबरोल

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</poem> सूरत-ए-शम’अ<ref>शम‘अ की तरह </ref> जले हैं लेकिन नाम मिला परवानों का सब की ज़बाँ पर आज है यारो! चर्चा हम दीवानों का

एक क़दम भी साथ हमारे चल न सके वो लोग जिन्हें ज़िन्दादिली पर नाज़ था लेकिन फ़िक्र था अपनी जानों का

तुम सब लोग घरों में छुप कर बातें ही कर सकते हो तुम क्या जानो किसने कितना ज़ुल्म सहा तूफ़ानों का

इक-इक करके सब दरवाज़े जिस दिन हम पर बन्द हुए उस दिन सीना तान के रस्ता पूछा था मैख़ानों<ref>मदिरालय</ref> का

अपने क़लम को अपने ही हाथों से हमने तोड़ दिया जिस दिन भूले से भी इसने रूप धरा मेहमानों का

शाम ढली तो दिल भर आया, रात हुई तो रो भी दिए किसको सुनायें कौन सुनेगा क़िस्सा हम वीरानों का

‘ज़ाहिद’ तारीकी<ref>अँधेरा</ref> का वो आलम<ref>दशा, हालत</ref> मौत जिसे सब कहते हैं अस्ल<ref>वास्तव</ref> में इक पैमान-ए-वफ़ा<ref>वफ़ा का वादा/प्रतिज्ञा</ref> है हम जैसे दीवानों का

शब्दार्थ
<references/>

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