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सूरत-ए-हाल हुई जाती है पेचीदा सी / राशिद हामिदी

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सूरत-ए-हाल हुई जाती है पेचीदा सी
उस की आँखें भी नज़र आती हैं ख़्वाबीदा सी

जब भी आता है मुझे उस से बिछड़ने का ख़याल
मुझ में डर आती है इक शाम ख़िज़ाँ-दीदा सी

सिर्फ़ तक़रीरों से हालात नहीं बदलेंगे
आओ मिल कर करें कोशिश कोई संजीदा सी

ग़म का इज़हार सलीक़े से क्या जाता है
अपनी सूरत ही बना ले ज़रा रंजीदा सी

किस का पैग़ाम मेरे नाम सबा लाई है
मौज-ए-हर-ख़ूँ दिल-ए-नादाँ की है शोरीदा सी

जब भी बढ़ते हैं क़दम मेरे गुनाहों की तरफ़
रोकती है कोई क़ुव्वत मुझे ना- दीदा सी

रात की सारी सियाही मले रूख़्सारों पर
क्यूँ मेरे दर पे सहर आती है नम-दीदा सी

ये मेरा सर है के दुश्मन की हज़ीमत ‘राशिद’
मेरे शानों पे जो इक शय है तराशीदा सी