Last modified on 23 अप्रैल 2017, at 19:39

सूर्यास्त / देवेन्द्र कुमार

दिन डूबा-डूबा
डूब गए
गाँव, घर, नगर
सूबा-सूबा।

बूँद-बूँद रिस रही हवाएँ
बाहर-भीतर घिरी घटाएँ
सब कुछ लगता
ऊबा-ऊबा।

रात हुई पेड़ टँगे छाते
हरसिंगार अब पढ़े न जाते
अँधियारा अपना
मंसूबा।