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सूर्यास्त / देवेन्द्र कुमार

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दिन डूबा-डूबा
डूब गए
गाँव, घर, नगर
सूबा-सूबा।

बूँद-बूँद रिस रही हवाएँ
बाहर-भीतर घिरी घटाएँ
सब कुछ लगता
ऊबा-ऊबा।

रात हुई पेड़ टँगे छाते
हरसिंगार अब पढ़े न जाते
अँधियारा अपना
मंसूबा।