भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सूर आयौ माथे पर, छाया आई पाँइन तर / नंददास

Kavita Kosh से
Himanshu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:40, 28 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नंददास }}{{KKAnthologyGarmi}} Category:पद <poeM> सूर आयौ माथे पर, छाया …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूर आयौ माथे पर, छाया आई पाइँन तर,
उतर ढरे पथिक डगर देखि छाँह गहरी ।
सोए सुकुमार लोग जोरि कै किंवार द्वार,
पवन सीतल घोख मोख भवन भरत गहरी ॥
धंधी जन धंध छाँड़ि, जब तपत धूप डरन,
पसु-पंछी जीव-जंतु छिपत तरुन सहरी ।
नंददास प्रभु ऐसे में गवन न कीजै कहुँ,
माह की आधी रात जैसी ये जेठ की दुपहरी ॥