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सृजन के क्षण / कुंवर नारायण

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रात मीठी चांदनी है, मौन की चादर तनी है,

एक चेहरा ? या कटोरा सोम मेरे हाथ में दो नयन ? या नखतवाले व्‍योम मेरे हाथ में?

प्रकृति कोई कामिनी है? या चमकती नागिनी है?

रूप- सागर कब किसी की चाह में मैले हुए? ये सुवासित केश मेरी बांह पर फैले हुए:

ज्‍योति में छाया बनी है, देह से छाया घनी है,

वासना के ज्‍वार उठ-उठ चंद्रमा तक खिंच रहे, ओंठ पाकर ओंठ मदिरा सागरों में सिंच रहे;

सृष्टि तुमसे मांगनी है क्‍योंकि यह जीवन ऋणी है,

वह मचलती-सी नजर उन्‍माद से नहला रही, वह लिपटती बांह नस-नस आग से सहला रही,

प्‍यार से छाया सनी है, गर्भ से छाया धनी है,

दामिनी की कसमसाहट से जलद जैसे चिटकता... रौंदता हर अंग प्रतिपल फूटकर आवेग बहता ।

एक मुझमें रागिनी है जो कि तुमसे जागनी है।