भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सृष्टि के खेल / रामकिशोर प्रसाद श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दहला देता दिल
ओम्नी ओसेन्टेसीस के स्क्रीन से
आइल कराहत आह के आवाज-
हाय, केतना निरदयी हो गइल मनुष्य
आ ओकर समाज,
जवन कर रहल बा
निधड़क निःसंकोच हमार भ्रूण हत्या।
ओह !
हमार माइयो बिया षड्यन्त्र में शामिल,
माई !
तोर करेज एतना कठोर हो गइल,
जवन तोहरा से करा रहल बा
अपने जाति के समूल नाश
आपन अपने उपहास।
माई,
अब त आँखि खोल
हमहीं नू हईं अदिति,
देवकी, मरियम आ जीजा
हमहीं ना धररब देह
त कइसे
जनम लिहें केशव, ईसा आ गाँधी।
माई !
का सम्भव नइखे कि लिखल होखे
हमरो कोखी कवनो अमर इतिहास
जनम ले लेस कवनो शिवा, राणा अस वीर
अथवा बुद्ध अउर महावीर।

माई !
का तें इहो भुला गइले
सोइरी के नून चटावल,
सती-प्रथा वाला जौहर
अथवा दहेज के नाम पर जरावल,
बाकिर
अब त हद हो गइल माई
हमार अजन्मा के नंगा कइल जाता
लिंग के पहचान कर
सलाख से बेधाता ;
माई, जब तेहूँ इहे चाहत बाड़े
तब ई दरद आउर अधिक बुझात।

माई,
तें अबहूँ से चेत
मत होखे दे अइसन परिस्थिति पैदा,
जवना से कइल जाए अजन्मा नारी के हत्या
ना त मरत-मरत हमार मन
दिही अइसन शाप,
जवना से चुप्पी साध ली धरती के स्पन्दन
कट जाई मनु बंश के बेल
मेट जाई सृष्टि के खेल !