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सृष्टि मिटने पर गर्वीली / महादेवी वर्मा

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रश्मि
चुभते ही तेरा अरुण बान !
बहते कन-कन से फूट-फूट,
मधु के निर्झर से सजग गान !

इन कनक-रश्मियों में अथाह;
लेता हिलोर तम-सिंधु जाग;
बुदबुद् से बह चलते अपार,
उसमें विहगों के मधुर राग;
बनती प्रवाल का मृदुल कूल,
जो क्षितिज-रेख थी कुहर-म्लान !

नव कुन्द-कुसुम से मेघ-पुंज,
बन गए इन्द्रधनुषी वितान;
दे मृदु कलियों की चटख, ताल,
हिम-बिन्दु नचाती तरल प्राण;
धो स्वर्ण-प्रात में तिमिर-गात,
दुहराते अलि निशि-मूक तान !
सौरभ का फैला केश-जाल ,
करतीं समीर-परियाँ विहार;
गीली केसर-मद झूम झूम,
पीते तितिली के नव कुमार;
मर्मर का मधु संगीत छेड़-
देते हैं हिल पल्लव अजान !

फैला अपने मृदु स्वप्न-पंख,
उड़ गई नींद-निशि-क्षितिज-पार;
अधखुले दृगों के कज-कोष-
पर छाया विस्मृति का खुमार;
रँग रहा हृदय ले अश्रु-हास,
यह चतुर चितेरा सुधि-विहान !