भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सेज बिछ गई / रामस्वरूप 'सिन्दूर'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:48, 21 अक्टूबर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामस्वरूप 'सिन्दूर' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सेज बिछ गई हरसिंगार की!

आज कौन इस पर सोयेगा,
हर सपना यों-ही रोयेगा,

चेतन है झंकार बहुत ही
आज पीर के तार-तार की!
सेज बिछ गई हरसिंगार की!

आंसू सोएँ तो सो जाएँ,
गोरी बाँहों में खो जाएँ,

इन हंसती किरणों के भय से
या-कि सुरा पी कर बयार की!
सेज बिछ गई हरसिंगार की!

इन पानी उतरे फूलों ने,
शबनम के उतरे झूलों ने,

फिर से कर दी तरल तूलिका
निशि-भर जागे चित्रकार की!
सेज बिछ गई हरसिंगार की!