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"सेवा के कुछ फूलों में हम / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर
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+ | फिर बेघर कर मज़्लूमों को | ||
+ | बीत रही बरसात | ||
+ | दबे पाँव आता है जाड़ा | ||
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+ | एक पुराना वस्त्र उन्हें दे आएँ | ||
+ | हुए अधमरे-अधनंगे जो | ||
+ | उनके प्राण बचाएँ | ||
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+ | मंदिर-मस्जिद जो भी टूटा | ||
+ | टूटीं भारत माँ ही | ||
+ | चाहे जिसका सर फूटा हो | ||
+ | रोई तो ममता ही | ||
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+ | मंदिर एक हाथ से | ||
+ | दूजे से मस्जिद बनवाएँ | ||
+ | अब तक लहू बहाया हमने | ||
+ | अब मिल स्वेद बहाएँ | ||
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10:08, 21 जनवरी 2019 के समय का अवतरण
सेवा के कुछ फूलों में हम
मन की महक मिलाएँ
भारत माँ का घर जर्जर है
सब मिल पुनः बनाएँ
फिर बेघर कर मज़्लूमों को
बीत रही बरसात
दबे पाँव आता है जाड़ा
करने उनपर घात
और न कुछ तो
एक पुराना वस्त्र उन्हें दे आएँ
हुए अधमरे-अधनंगे जो
उनके प्राण बचाएँ
मंदिर-मस्जिद जो भी टूटा
टूटीं भारत माँ ही
चाहे जिसका सर फूटा हो
रोई तो ममता ही
मंदिर एक हाथ से
दूजे से मस्जिद बनवाएँ
अब तक लहू बहाया हमने
अब मिल स्वेद बहाएँ