भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सोचते ही / सतीश कुमार सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह सोचते ही कि
वह नहीं आएगा अब
इंतजार की उत्कंठा ख़त्म हो गई।

यह सोचते ही कि
आज बादल बरसेंगे ज़रूर
भीतर हरिया गया बहुत कुछ।

यह सोचते ही
कि रोपूंगा गमले में
मधुमालती के पौधे
मेरे बगीचे में फूलों से लदी
रातरानी बिहँस उठी।

यह सोचते ही कि
सर्दी बढ़ गईं है इस बार
दांत किटकिटाने लगे
ठिठुरने लगी उंगलियाँ।

सोचते सोचते कितना कुछ
होता है महसूस
कितना कुछ घट जाता आसपास
सोचते सोचते।