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सोच कर भी क्या जाना जान कर भी क्या पाया / अब्दुल अहद 'साज़'

सोचकर भी क्या जाना जानकर भी क्या पाया
जब भी आईना देखा ख़ुद को दूसरा पाया

होंट पर दिया रखना दिल-जलों की शोख़ी है
वर्ना इस अन्धेरे में कौन मुस्कुरा पाया

बोल थे दिवानों के जिनसे होश वालों ने
सोच के धुँदलकों में अपना रास्ता पाया

एहतिमाम दस्तक का अपनी वज़्अ थी वर्ना
हमने दर रसाई का बार-हा खुला पाया

फ़लसफ़ों के धागों से खींचकर सिरा दिल का
वहम से हक़ीक़त तक हमने सिलसिला पाया

उम्र या ज़माने का खेल है बहाने का
सबने माजरा देखा किसने मुद्दआ पाया

शायरी तलब अपनी शायरी अता उस की
हौसले से कम माँगा ज़र्फ़ से सिवा पाया

'साज़' जब खुला हम पर शेर कोई 'ग़ालिब' का
हमने गोया बातिन का इक सुराग़ सा पाया