भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सोच कर भी क्या जाना जान कर भी क्या पाया / अब्दुल अहद 'साज़'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:20, 24 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अब्दुल अहद 'साज़' |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सोचकर भी क्या जाना जानकर भी क्या पाया
जब भी आईना देखा ख़ुद को दूसरा पाया

होंट पर दिया रखना दिल-जलों की शोख़ी है
वर्ना इस अन्धेरे में कौन मुस्कुरा पाया

बोल थे दिवानों के जिनसे होश वालों ने
सोच के धुँदलकों में अपना रास्ता पाया

एहतिमाम दस्तक का अपनी वज़्अ थी वर्ना
हम ने दर रसाई का बार-हा खुला पाया

फ़लसफ़ों के धागों से खींचकर सिरा दिल का
वहम से हक़ीक़त तक हमने सिलसिला पाया

उम्र या ज़माने का खेल है बहाने का
सबने माजरा देखा किसने मुद्दआ पाया

शायरी तलब अपनी शायरी अता उस की
हौसले से कम माँगा ज़र्फ़ से सिवा पाया

'साज़' जब खुला हम पर शेर कोई 'ग़ालिब' का
हमने गोया बातिन का इक सुराग़ सा पाया