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सोने का पिंजरा / अंकिता जैन

एक मैदान है
कुछ गज का
इतना कि कदम भर नाप सकें उसे
एक कमरा है
कुछ फिट का
इतना कि नज़रें भांप सकें उसे
नज़रें जिनमें होते थे प्रतिबिंबित कभी
भीड़ में चमकते सर
दौड़ते-भागते पैर
चीखता-चिल्लाता शोर
सपनों से भरी आँखें
उम्मीदों को ढोते कंधे
प्रेम में जकड़ी हथेलियाँ
ख्वाहिशों में उलझे आलिंगन
दूरियाँ मिटाते चुंबन
रंगों से भरपूर सुबहें
उजालों से तरबतर शामें
और कुछ हसरतों को हक़ीक़त में बदलते दिन
मगर
अब इन आँखों में झलकती हैं
दो जोड़ी बेरंग दीवारें
सपनों को कैद किए अलमारियाँ
उम्मीदों को डुबोती बाल्टियाँ
आवाज़ को छुपाते परदे
चीखों को दबाते बर्तन
आँसुओं को झुठलाती छोंकन,
बेतरतीब भागती "इच्छाएँ"
उसी मैदान में
जिसे नापा जा सकता है
कदम भर
जिसमें जीती हैं
महीनों सड़-सड़ कर
उँगली में बांध किसी रबड़ से
जिन्हें फेंका जाता है दूर
आज़ाद हो कहकर
मगर लौट आना ही जिसकी नियति है
उसी उँगली पर
वापस
उसी मैदान और उसी कमरे में
जिन्हें नापा जा सकता है
जो कैद हैं सीमाओं में
और जिन्हें बनाया गया है
ऐसे आज़ाद परिदों के लिए
जो खरीदे जाते रहे हैं
सदियों से
उनके लिए जो बिताने आते हैं रातें
इन कमरों और मैदानों में,
और जिनकी
नस्लों को पैदा करने और पोसने के लिए
काट दिए जाते हैं
इन परिदों के पर।