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"सोने के पिंजड़े / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर

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कहने की मुश्किल  
 
कहने की मुश्किल  
 
वाह जमाने बलि बलि जाऊं
 
वाह जमाने बलि बलि जाऊं
शीशेेघर में बन्द मछलियां  
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शीशेघर में बन्द मछलियां  
 
पंछी सोने के पिंजड़े में,  
 
पंछी सोने के पिंजड़े में,  
 
दीमक चट रही दरवाजे  
 
दीमक चट रही दरवाजे  
 
देहरी आंगन के झगडे में,  
 
देहरी आंगन के झगडे में,  
हर पत्थर खुुद को शिव बोले  
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हर पत्थर खुद को शिव बोले  
किसको अर्ध्य चढा़ऊं  
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किसको किसको अर्ध्य चढा़ऊं  
वाह जमाने बलि बलि जाऊं
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एक स्याह बादल सिर ऊपर  
 
एक स्याह बादल सिर ऊपर  
 
झूम रहा आकाश उठाये  
 
झूम रहा आकाश उठाये  
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इस पर भी जिद है लोगों की  
 
इस पर भी जिद है लोगों की  
 
मैं गा राग मल्हार सुनाऊं  
 
मैं गा राग मल्हार सुनाऊं  
वाह जमाने बलि बलि जाऊं
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कहने को मौसम खुशबू का  
 
कहने को मौसम खुशबू का  
 
पीले पड़े पेड़ के पत्ते  
 
पीले पड़े पेड़ के पत्ते  

21:55, 4 मार्च 2012 का अवतरण

सोने के पिंजड़े

सच को सच
कहने की मुश्किल
वाह जमाने बलि बलि जाऊं
शीशेघर में बन्द मछलियां
पंछी सोने के पिंजड़े में,
दीमक चट रही दरवाजे
देहरी आंगन के झगडे में,
हर पत्थर खुद को शिव बोले
किसको किसको अर्ध्य चढा़ऊं

एक स्याह बादल सिर ऊपर
झूम रहा आकाश उठाये
मर्जी जहां वही पर बरसे
प्यासा भले जान से जाये
इस पर भी जिद है लोगों की
मैं गा राग मल्हार सुनाऊं

कहने को मौसम खुशबू का
पीले पड़े पेड़ के पत्ते
अधनंगी शाखों पर लटके
यहां वहां बर्रों के छत्ते
फिर भी चाह रह पतझड़ मैं
चारण बन उसके गुण गाऊ
वाह जमाने बलि बलि जाऊं