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सोहर / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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133.

पिय मोर बसहि गउरगढ़, मैं परयाग। सहजहि लगल सनेह, उपजु अनुराग॥
असन वसन तन भूषन, भवन न भावइ। पल पल समुझि सुरति मन गहवर आवइ॥
पथिक न मिलहि सजन जन जिनहि जनावउँ। विह्वल विकल विलखि चित चहुँ दिशि घावउँ॥
होइ अस मोहि ले जाइ कि ताहि लै आवइ। ताकर होइव लउँडिया, जे वटिय बतावइ॥
तबहिँ तिया पति जाइ दोसर जब चाहइ। एक पुरुष समरथ धनि वहुत निबाहइ॥
धरनी गति नहि आन करहु जस जानहु। मिलहु प्रगट पट खोलि, भरम जनि मानहु॥1॥

134.

एक पिया मन मान्यो प्रतिव्रत ठान्यो। और जो इन्द्र समान, सो तृन करि जान्यो॥
जंह प्रभु बइसु सिंहासन आसन डासन। तँह तव वेनिया डोलैवउ बड सुख पैबउँ॥
जो प्रभु करहि लँबासन पवढ़ि उपासन। पइतिहि पग सहरैबउँ, हृदय जुड़ै बउँ॥
धरनी प्रभु चरनामृत नितहि अँचैवउँ। सनमुख रहबिउँ ठाढ़ि, अनत नहि जैबउँ॥2॥

135.

धनि धनि कर्ताराम के नाम, जेहि नामे पतित परम गति।
धनि सोपि धनि सेहु माय, जेहि तन भगत गरभ रहु॥
धनि सेहु दगरिन छिनलिहु नार, धनि जिन दूध पियाउउ।
धनि सेहु गाँव सकल परिवार, धनि जिन गोद खेलायउ॥
धरनी धनि धनि सेहु नर नारि, सतकै सोहर गायउ॥3॥