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स्खलन / सरोज कुमार

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तुमने छोड़ जरूर दिया था
संसार
पर धीरे-धीरे
तुम्हे लगने लगा था
कि संसार में रहकर
संसार छोड़ना
तुम्हारे लिए दुष्कर है!

तुम उसे इस शक्ल में छोड़ते
और वह उस शक्ल में
जुड़ जाता,
पकड़ने-पकड़ने में ही
पंछी उड़ जाता!

तुम्हारा सपना
तुम्हारे कद से बहुत बड़ा था!
बड़े सपने देखने में
बुराई नहीं,
बुराई, बड़े सपनों की
इबारत छोटी कर देने में है!
तुम उड रहे थे हवा में
ऊँचे और ऊँचे,
इस भ्रम में
कि सपनों के महल के
दरवाजे
बस आसपास ही
कहीं हैं!

होते- होते
हो यह गया
कि तुम जो थे, वो रहे नहीं
और जो होना चाहते थे,
हो नहीं पाए!
 तुम्हारी भंगिमाओं से
सजी हुई दीवारे
इर्द-गिर्द घूमती कारें
अनथक जयकारें
साष्टांग मनुहारे!
तामझाम दिव्य-दिव्य
साज़बाज़ भव्य-भव्य!
तुम्हारी प्रव्रज्या
तुम्हारे निजी आलोक में
प्रज्ज्वलित होती रही!
बावजूद इस सबके
मुझे तुम पर
गुस्सा क्यों आना चाहिए?
वह तुम्हारा
निजी निर्णय था,
और यह तुम्हारा
निजी स्खलन है!

हाड़माँस के
साधारण आदमी के साथ
ऐसा होना
आश्चर्य की बात नहीं!
पर तुम पर
आश्चर्य नहीं होने के लिए
जरूरी है
कि मैं तुम्हें
साधारण आदमी मानूँ!
बड़ा या खास या विशेष
या असामान्य नहीं!
तुम जरूर स्वंय को
ऐसा मानते रहे
इसीलिए संकट में हो!
सब चुनते हैं
अपने –अपने रास्ते,
तुमने भी चुना एक रास्ता
सही-गलत जो भी हो
निर्णय तुम्हारा था!
अब तुम अभिशप्त हो
उसी रास्ते पर
चलते दिखने के लिए!

त्याग और तपस्या की
जिस गाड़ी में
तुम लपक-लपक चढ़े थे
उसमें रिवर्स गियर की
सुविधा
कभी नहीं रही!
तुम अपने संकल्पों को
साध सको
ऐसी मनोकामनाओं के
साथ
मौजे तुम पर
दया आ रही है,
क्रोध नहीं,
न तिरस्कार!

तुम मेरी ओर से
निश्चिंत रहो!
सबके सामने
मैं तुम्हें
वैसे ही प्रणाम करूंगा
जैसे मैं
मन्दिर की मूर्तियों को
करता हूँ!
अभी मैंने
इस बात पर जरूर
विचार नहीं किया है
कि ऐसा करने से
मेरे प्रणाम
कहीं दूषित तो नहीं होंगे!