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स्त्री और चिड़िया / सरस्वती रमेश

तुम्हारे आँगन
आती है जो एक चिड़िया
हर रोज सुबह-सुबह
बिना भूले
वक्त पर
आकर बैठ जाती
किसी कोने
तुमको गौर से निहारती
चुपचाप
क्या मांगती है तुमसे
सिर्फ दाना पानी
या थोड़ा-सा स्नेह
कभी तुम भी उसकी तरफ गौर से देखो
उसके मनोभावो को पढ़ो
उसके पंखों की फड़फड़ाहट में कोई आहट सुनो
उसके फुदकते पैरों की छटपटाहट समझो
उसकी बेजुबान भाषा जानो
उसके आने से तुम्हारे आँगन की रौनक पहचानो
उसकी चहचाहट में कोई संगीत ढूँढो
और तुमने क्या किया
उसे भी समझा
तमाम परिदों जैसा एक परिंदा
और फेक दिया
मुट्ठी भर दाना उसकी तरफ
बोझ की तरह
बेमन से
गैर जरुरी वस्तु की तरह
बिना उसकी तरफ एक निगाह डाले
अहसान किया हो जैसे
चुल्लू भर पानी देकर
जैसे समुन्दर उड़ेल आये हो तुम
उसके सामने
और अब कोई और इच्छा
तुम बर्दाश्त नहीं कर सकते
फिर भी कभी
नहीं करती वह तुमसे शिकायत
बुरा नहीं मानती किसी भी बात का
और तुम्हारे आँगन में
आ जाती है हर रोज
दाना पानी के बहाने
तुम्हारे स्नेह की लालसा लिये