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स्त्री – छह / राकेश रेणु

मैं स्त्री होना चाहता हूँ ।

वह दुख समझना चाहता हूँ
जो उठाती हैं स्त्रियाँ
उनके प्रेमपगे आस्वाद को किरकिरा करने वाली
जानना चाहता हूँ ।

जनम से लेकर मृत्यु तक
हलाहल पीना चाहता हूँ
प्रताड़णा और अपमान का
जो वो पीती हैं ताउम्र ।

महसूसना चाहता हूँ
नर और मादा के बीच में भेद के
काँटे की चुभन ।

नज़रों का चाकू कैसे बेधता है
कैसे जलाती है
लपलपाती जीभ की ज्वाला
स्त्रीमन की उपेक्षा की पुरुषवादी प्रवृत्ति
मैं स्त्री होना चाहता हूँ ।

उनकी सतत मुस्कुराहट
पनीली आँखों
कोमल तन्तुओं का रचाव
और उत्स समझना चाहता हूँ ।

मैं स्त्री होना चाहता हूँ ।