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स्त्री – पाँच / राकेश रेणु

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जो रान्धी जा रही थीं
सिंक रही थीं धीमी आँच में तवे पर
जो खुद रसोई थीं रसोई पकाती हुई
स्त्रियाँ थीं ।

व्यँजन की तरह सजाए जाने से पहले
जिनने सजाया ख़ुद को
अनचिन्ही आँखों से बस जाने के लिए
वे स्त्रियाँ थीं ।

शिशु के मुँह से लिपटी
या प्रेमी के सीने से दबी
जो बदन थीं, खालिश स्तन
स्त्रियाँ थीं ।

जो तोड़ी जा रही थीं
अपनी ही शाख से
वे स्त्रियाँ ही थीं ।

वे कादो बना लेती थीं ख़ुद को
और रोपती जाती थीं बिचड़े
अपने शरीर के खेत में ।

साग टूँगते हुए वे बना लेती थीं
ख़ुद को झोली
जमा करती जाती थीं
बैंगन, झिंगनी, साग, या कुछ भी
और ऐसे चलतीं जैसे गाभिन बकरी
जैसे छौने लिए जा रही कँगारू माँ

वो एक बड़ा आगार थीं
जो कभी ख़ाली न होता था

देखना कठिन था
लेकिन उनका ख़ालीपन
सूना कोना-आन्तर !