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स्त्री - 1 / सत्या शर्मा 'कीर्ति'

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कल मेरी कविता से निकल
कहा स्त्री ने
अहा ! कितना सुखद
आओ तोड़ दें बंदिशें
हो जाएं मुक्त
गायें आजादी के मधुर गीत

और नाच उठी स्त्री
उन्मुक्त बहती नदी में
धोये अपने बाल
बादलों का लगाया काजल
टांक लिया जुड़े में
चाँद सितारों को
तेजस्वी स्त्री
दमकने लगी अपने
व्यक्तित्व और सौंदर्य की
आभा से

कुछ गीत गुनगुनाएं
मेरी कानों में
आगोश में लिया और
डबडबाई आँखों से देखा मुझे
स्नेह भरे हाँथ रखे मेरे सर पे
और पुनः समा गई
पन्नों में...

ताकि रच सके एक नया इतिहास
स्त्री की निखरते सम्बरते
व्यक्तितव का