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स्नातक / भाग - 1 / जतरा चारू धाम / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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ताप तपित तन, मनहु मलिन घन, राग-द्वेष मल-मूल
असोथकित जीवन मरु-पथ चलि, उधिआयल अध-धूल।।1।।

चित जागल कहि रहल सहज स्वर, जनु निर्झर संगीत
चलिअ सतीर्थ्य! तीर्थ जल प्रस्तुत अमृत मधुर हिम-शीत।।2।।

गिरि कैलाश शिखर गंगाधर सुरसरि शीश चढ़ाय
स्नातक स्वयं, कहथि संकेतेँ अहुँ पहुँचू गिरिराय।।3।।

हिम-शीतल हीतल करु शुचि रुचि मानस प्रथम नहाय
द्रवित शैलजा सुरसरि सद्यःस्नात, अमर करु काय।।4।।

कविगुरु जनि गिरिगुरु क अस्तिकेँ स्वस्ति देल विश्वस्त
उत्तर दिग् पति नगपतिकेँ देवात्मा कहल प्रशस्त।।5।।

तनिक अंग-संगिनी मानसी सरसी सरस सदैव
स्वर्ण सरोज सुरभि रस रंजित पयस्विनी वसुधैव।।6।।

ब्रह्मपुत्र जनि अंगज पूर्वज कय अपूर्व विस्तार
उत्तरोत्तरे त्रिवृत त्रिविष्टप प्रवहमान शुचिसार।।7।।

नाग भूमि दय, असम भूमि भय, बकिम वंगक द्वार
पùा गंगा-संगत संगहि कयलनि सिन्धु बिहार।।8।।

हुनि जल मार्जन-परिमार्जन कय पुनि पश्चिम दिस जाय
मानस - सुता सिन्धु सरिताकेर बिन्दु पुजब सरिआय।।9।।

जतहि आयेजन बसल चिरन्तन सिन्धु हिन्दु अभिधान
एखनहु धरि सगर्व अभिनन्दित सुविदित हिन्दुस्थान।।10।।

विदित पचनद सतलज झेलम राबी व्यास चनाव
डुब दय चुभकब हुलसि - फुलसि पुनि-पुन अर्जब पंजाब।।11।।

पुनि पुनि उत्तर खड हिमाश्रित घुमब - घमव अक्लांत
सत - रंगा एकहु गंगा गति - भेद बहथि कत प्रांत।।12।।

गिरि निर्झर प्रóवण óोतजत बिन्दु - बिन्दु जल संग
गोमुखी क मुख द्रवित अलकनन्दा गगाक तरंग।।13।।

हरद्वार दय खल-खल हँसइत कनखल करइत पार
ग्राम-नगर परिसर वन - पाँतर भरइत शुचि संस्कार।।14।।

दृग विवर्त ब्रह्मावर्तक दिस, हटि मेरठ कनडेरि
बिच बिच ब्रह्मर्षि क ऋषिकेशक सरस्वती श्रुति टैरि।।15।।