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स्नो-व्यू से हिमालय को देखते हुए / सिद्धेश्वर सिंह

ओ हिमगिरि
हिम में मुँह ढँक कर
थोड़ा और हँसो ।

दूर तलक
यह फैली घाटी
तरुओं से आच्छादित ।
छोटे-छोटे से मकान यह
लगते जैसे नए खिलौने
लेकर खेल रहा पर्वत-शिशु
होकर के आह्लादित ।

बादल के आँचल में अपना
मुख मत ढँके रहो ।

इतने धवल हुए तुम कैसे
मन में जग रही जिज्ञासा
रजत ज्योत्सना
श्वेत कमल
इन सबका मिश्रण कैसे पाया
कुछ तो मुझसे करो खुलासा ।

युग-युग तक तुमको चाहूँगा
मन में बसे रहो ।