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स्पर्श गीत / जगदीश गुप्त

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शब्द से मुझको छुओ फिर,
देह के ये स्पर्श दाहक हैं।
एक झूठी जिंदगी के बोल हैं,
उद्धोष हैं चल के,
ये असह,
ये बहुत ही अस्थिर,
-बहुत हलके-
महज बहुरूपिया हैं
जो रहा अवशेष-
उस विश्वास के भी क्रूर गाहक हैं।
इन्हें इनका रूप असली दो-
सत्य से मुझको छुओ फिर।
पूर दो गंगाजली की धार से,
प्राण की इस शुष्क वृंदा को-
पिपासित आलबाल :
मंजरी की गंध से नव अर्थ हों अभिषिक्त-
अर्थ से मुझको छुओ फिर।
सतह के ये स्पर्श उस तल तक नहीं जाते,
जहां मैं चाहता हूँ तुम छुओ मुझको।