भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"स्मृतियों में शरद / कुमार मुकुल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार मुकुल |संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / क...)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
{KKGlobal}}
+
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=कुमार मुकुल
 
|रचनाकार=कुमार मुकुल
 
|संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / कुमार मुकुल
 
|संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / कुमार मुकुल
}}
+
}}{{KKAnthologySardi}}
 +
{{KKCatKavita}}
  
 
शरद आ रहे हो तुम
 
शरद आ रहे हो तुम

01:17, 1 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

शरद आ रहे हो तुम

कलिय काल की

लाल जिह्वा को

शीत निष्क्रियता की

केंचुलाती बांबी में डाल

तुम्हारा यह कवि

अपनी बाँहें पसार

तुम्हारी भीगी पदचापें सुन रहा है


मौसम में थिराती खुनक का रंग

असंख्य रोम कूपों से घुल-घुलकर

मेरी आत्मा के ताप को

सहला रहा है

और मैं देख रहा हूँ कि आ रहे हो तुम


दूध धुली दन्तावलियों से

युवा निगाहों को कुतरती

किशोरियों की

खुटखुटाती अंगुलियों में

नुकीली सलाइयाँ थमा

उनकी नज़रों का कोरापन

नीले-पीले ऊनों से भरते

आ रहे हो तुम

आ रहे हो तुम

आओ देखो

अल्लसुबह

नदी के थिर जल में

डुबकी लगाकर निकला बूढ़ा

भपा रहा है कैसा

और गेरुओं के साथ भरी दुपहरी में

पानी उछालते बच्चे

कैसे जल रहे हैं तुम्हारी ठंडी आग में

कि जितना उछालते हैं पानी

उससे ज्यादा लपेटते हैं रेत

गर्म-गर्म

अपनी देह में


आ रहे हो तुम

और ला रहे हो दिन

जब सबसे ज़्यादा फूलती हैं रोटियाँ

आँच पर

जब टुह-टुह लाल

दिखती है ठोर सुए की

जब रूप पर भारी पड़ता है स्वाद

होरहे का

और मुँह पर

कालिख़ लपेटते

खाते हैं हम उसे


दिन आ रहे हैं

जब छील-छील देती है जीभ

मिठास ईख की

चीर-चीर ओठों को जब

चाटती बतास है


आ रहे हैं दिन

और उससे ज़्यादा

आ रहे हो तुम

स्मृतियों में हमारी

तुम्हारे आने की तैयारी में

ऐसी व्यग्र है कल्पना

कि तुम्हारी उपस्थिति से गुज़रती

बढ़ रही है आगे

और कह रही है

कि जा रहे हो तुम


जा रहे हो तुम

और सन्तुलन हमारा साथ जा रहा है

जा रहे हो तुम

और पगला रही है हवा

नोचे जा रही है सीरत मौसम की


पर भारी हो रहे हैं

पाँव मौसम के

और उसकी आँखों में

चंचल हो रहा है कोई रस

गुनगुना सा।