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स्वप्नकथा / अदनान कफ़ील दरवेश

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एक

घर एक सूखा पत्ता है
जो रात भर खड़खड़ाता है मेरे सिरहाने

पत्ते से निकलती है एक बिल्ली
सारे रास्ते काटती
कूद जाती है कुएँ में
पत्ते से निकलता है साँप
और निगल जाता है मेंढ़क को
पत्ते से निकलती है भीत
जिसपर चिपकी होती है उजली छिपकली
पत्ते से निकलता है एक फ़िलिप्स का पुराना रेडियो
जिसपर चलती हैं ख़बरें बर्रे-सग़ीर की और आलम की
और के० एल० सहगल का कोई गीत
या बेगम अख़्तर की पाटदार आवाज़
पत्ते से निकलता है चूहा
किताबें और रिसाले कुतरता, गिरता है पटनी से
पत्ते से निकलती है टॉर्च
और गिरती है सिरहाने से बार-बार

ठेंगुरी टेकते चलती है एक आदमक़द छाया
दिनभर का थका सूरज
चुपके से घुस जाता है जर्जर चमड़े के जूते में
जँगले पर रखी ढिबरी में
आलोकित होती हैं खनकती चूड़ियाँ
ओसारे में बजते हैं
पायल के थके घुँघरू
शरीर में अचानक कड़कती है बिजली
और हाथ से गिरता है पानी का गिलास
जो डगरता हुआ धँसता चला जाता है
कितनी-कितनी नींदों के भीतर

मेरी हथेली को भींचती हैं एक जोड़ी बूढ़ी हथेलियाँ
पूछती हैं, "आओगे नहीं इलाहाबाद या उसके पार, जहाँ हूँ ?"
मैं कातर नज़रों से देखता हूँ दाढ़ी में छुपा बाबा का चेहरा
जिसे जागकर कभी नहीं देख पाऊँगा

घड़ी की सुई की आवाज़ के साथ
काँपता हूँ उस भयानक सन्नाटे में
तब तक टनकता है अलार्म और टूटती है बरसों की नींद
और हत्यारा सूरज
गिरता है सौ मन के भारी पत्थर की तरह
मेरे सिर के भीतर...

दो

एक अड़हुल का फूल अपनी शाख़ से निकलकर
बढ़ रहा है मुलायम हथेलियों की जानिब
कनैल के फूल से भरी टोकरी
चढ़ रही है मन्दिर की पथरीली सीढ़ियाँ
मुँह-अँधेरे बरबराता-चुरमुराता हुआ
खुल रहा है
नन्हे नमाज़ी के लिए
घर का बूढ़ा फाटक

मिट्टी में खुरपी से रोपा जा रहा है लौकी का बीज
चाय की कटोरी में झाँक रही है सोंधी सुबह
पानी से भरे गिलास में घुल रहा है बताशे का सिक्का
नन्हे दामन में हुलस रही हैं नीम की पकी निंबौलियाँ
एक मेंढ़क टर्राता हुआ उछलता
चढ़ आया है गीले पाँव पर
झींगुरों का सामूहिक-गान साँझ से ही चालू है

पोखर में डूब रही है धीरे-धीरे एक थपुए की चिप्पी
बारिश में हुमक-हुमक कर तैर रही है
एक रँगीन काग़ज़ की छोटी-सी नाव
एक तितली सरसों के खेतों से बतियाती निकल रही है
झमाझम होती बारिश में रो रहा है एक बच्चा
हिल-डुल चारपाई में ठुक रहा है बाँस का पाँचर
कसी जा रही है उसकी ओड़चन
दोपहर में बाज़ार से
सफ़ेद रुमाल में बन्धे
चले आ रहे हैं ललगुदिया अमरूद
दर्ज़ी ले रहा है उरेबी गँजी की माप

रात के अन्धेरे में
बदन पर फिर रहे हैं जाने-पहचाने हाथ
काजल में रची आँखों से
गिर रही हैं आँसू की मोटी-मोटी बूँदें
रात में शामिल है एक और रात का रोमाँच
सीने में चाकू की तरह धँसी है एक जलती हुई बात
भिनास फटने से बहता जा रहा है नाक से ख़ून
झुटपुटे के वक़्त दरवाज़े पर
फन काढ़े बैठा है तमतमाया गेंहुवन साँप
धँस रहा है नींद में बिच्छुओं का तना हुआ डँक

एक बच्ची की चीख़ से झड़ रहे हैं घर के पलस्तर
और काँप रही है दीवार
सारे इलाज पड़ चुके हैं बेकार

सीढ़ियों के नीचे के अन्धेरों से
निकल रहा है एक चमकीला फूल
जो चढ़ता जा रहा है सीढ़ियाँ
छत से बून्द-बून्द टपक रहा है ख़ून

बुआ ! बुआ ! बुआ !
कौन पुकार रहा है इस बेचैन कर देने वाली मीठी आवाज़ में
कौन है जो दलदल में धँसता चला जा रहा है
एक परिन्दे की चीख़ से काँप उठा है आकाश
पानी ! पानी ! पानी !
किसकी है ये कातर आवाज़ ?
उफ़्फ़ !
आँखों में भर रही है रेत
हाथ से झर रही है रेत
कौन खड़ा है दरवाज़े के पीछे
दम घुटने पर भी निकलती क्यों नहीं चीख़ ?

यूँ स्मृतियों की स्मृतियों में
नींद के पँखों पर बीतता है
नीला पड़ चुका
सड़ा हुआ
ठण्डा समय...