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स्वर की तरंगें / सोम ठाकुर

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गुथ गई स्वर की तरंगे
धमनियों के गर्भ में
उभरी शिराओ में

झुनझुनाते स्नायु
खिन्च्कर छूट गई हैं नसें
अब न वे खामोशियाँ
बढ़कर हृदय को कसें
जो मुझे दे दी विदाओं में

हो चली गुन गुनी कुछ और
मेरी रक्त धारा
फैलकर आपाद मस्तक
घूमता हैं तप्त पारा
राग -रंगा राज हंसों की कतारें
उड़ चली उजली दिशाओ में