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स्वामिनी! सेवा को सुख पाऊँ / स्वामी सनातनदेव

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श्रीजूके प्रति
राग अडाणा, तीन ताल 3.9.1974

स्वामिनी! सेवा को सुख पाऊँ
चहों न रिधि-सिधि हूँ कछु राधे! जो तुव रति-रस माहि समाऊँ॥
सुरग और अपवरग न भावै, निसि-दिन तुव मधु-मूरति ध्याऊँ।
तुव पद-रति ही नित-निधि मेरो, ताहि पाय अब कित चित लाऊँ॥1॥
परी रहों नित कुंज-पौरि पै, जुगल-केलि-क्रीडा नित ध्याऊँ।
प्रीति-प्रसादी मिलै प्रियाजू! तो अपनो बड़भाग्य मनाऊँ॥2॥
चरन-चाकरी को उछाह उर नयन-नीर पद-जुगल-न्हवाऊँ।
अति रुचिसों रचि-रचि पद-जावक पायँ पलोटि पुलकि हरसाऊँ॥3।
मेरी जीवन-धन तुम राधे! तव रति रस में मतिहिं बसाऊँ।
पद-रति ही की जोति जगा उर, तासों हिय को तिमिर नसाऊँ॥4॥
कृपा-कोर जो होहि रावरी तो राधे! मैं कहा न पाऊँ।
सदा सदासों पोसी तुम ही, फिर क्यों अब ही खाली जाऊँ॥5॥