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स्वामी सनातनदेव / परिचय

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प्रकाशकीय

हमारे पूज्य श्री महाराज जी,

आपकी याद में कुछ लिखना शुरू करते ही मेरा दिल भर आया। मैं जब 20 साल की थी तब उनके सम्पर्क में आई, और लगभग 15 वर्ष तक उनके सम्पर्क में रही, उन्हीं की प्रेरणा से अविवाहित रही। हमारे चाचा जी श्री ऋषभ देव जी उनको गुरु मानते थे जिन का इस जीवनी में जिक्र है। पू. महाराज जी एक तत्त्वज्ञ महापुरुष थे, कब उन्हें अनुभूति हुई यह भी महाराज जी सुनाते थे। वैसी उनकी रहनी भी थी। महाराज जी कहते थे सरलता ही साधुता है। और स्वयं भी सरलता और निरभिमानता की मूर्ति थे। किसी भी सन्त महात्मा के दर्शन करने चले जाते थे बिल्कुल सरलता से। हम लोग भी उनके साथ जाते थे। हमेशा उनके हाथ में पुस्तक या माला रहती थी। उनके पास दर्शन के लिये आने वाले को दो मिनट का समय देते थे। उनकी दिनचर्या का हर काम एक नियत समय से था। नित्य रात में दो बजे उठ जाते थे। प्रणव का जप करते थे। हम अभागे लोग जब ऐसे सन्त चले जाते हैं तब याद करके रोते हैं, उनके रहते इतना लाभ नहीं ले पाते। उनके जीवन से प्रेरणा मिले इसी दृष्टि से यह ग्रन्थ लिखा जा रहा है। गीता प्रेस के सभी उपनिषदों का हिन्दी अनुवाद आपने किया अपना नाम लिखे बिना केवल अनुवादक लिखकर और भी बहुत से ग्रन्थों का काम किया है। उन्होंने अपने जीवन में हजारों पद लिखे कुछ तो प्रकाशित हो गये, कुछ अभी भी अप्रकाशित हम लोगों के पास हैं। उनको छपवाने की कोशिश करेगें। ऐसे सन्तों के बारे में ज्यादा कुछ लिखने की सामर्थ्य नहीं है।

साध्वी मधु गाोयल, भक्त जी की दुकान,

फिरोजपुर छावनी, पंजाब

अपनी बात

परम पूज्य अनन्त श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज से यह जानकारी मुझे मिली थी कि स्वामी सनातन देव जी शीतकाल के चार महीने सत्संग भवन जोधपुर में रहते हैं और सखी वेश में रहकर साधना करते हैं। मुझे महात्माओं से मिलने, उनके दर्शन करने की लालसा बचपन से ही रही है। इसीलिए जब जोधपुर गया तो सत्संग भवन का पता लगाकर वहाँ पहुँचा। परम पूज्य स्वामी श्री स्वतन्त्रानन्द जी के नाम का सहारा लेकर दर्शन की अनुमति मांगी तो आपने अन्दर बुला लिया और हाल चाल पूछते रहे। आपने जितना पूछा उसका उत्तर दे दिया। बाद में कुछ लोग और आ गये तब आपने पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी की चर्चा करके उनके भक्त के रूप में मेरा परिचय कराया।

आपने यह बात कही कि तुम्हारे स्वामी जी जैसा भावुक महात्मा मैंने नहीं देखा। इसके साथ ही उनकी ज्ञान निष्ठा भी अद्भुत है। पिछली बार स्वामी जी जब यहाँ आए थे तब इस कमरे में भी आए थे। सामने रखी भगवान की मूर्ति (मुरलीधर श्री कृष्ण) को थोड़ी देर तक देखते रहे फिर सेब उठाकर मारे और रोने लगे। मैंने उस समय स्पर्श किया तो चीख पड़े, मैं सहम गया। कुछ देर तक ऐसी ही स्थिति रही बाद में प्रकृतिस्थ हुए। भगवान का प्रसाद लिए। विद्वान भी अच्छे हैं। अपने पांचों ग्रन्थों में खूब प्रमाण दिये हैं लेकिन एक भी हिन्दी ग्रन्थ का नहीं है। उनकी शास्त्र निष्ठा भी अच्छी है।

उसी समय वहाँ ब्रह्मचारी श्री प्रेमानन्द दादा(स्वामी श्री अखण्डानन्द जी के शिष्य) आपके पास आये। आप उन दिनों पद्य की रचना कर रहे थे, ढाई सौ पदों की तीस पुस्तकें लिख चुके थे। कुछ पद्य पढ़कर सुनाए तथा माधुर्य लहरी और माधुर्य सुरसरि मुझे पढ़ने को दी। श्रीमद्भगवद्गीता की चर्चा चलने पर आपने कहा कि मेरे द्वारा अनुवादित श्री मधुसूदन सरस्वती की गूढार्थ दीपिका टीका चौखम्बा संस्कृत संस्थान से छप रही है, उसकी एक प्रति उन लोगांे से कहकर तुम्हें दिला दूँगा। दादा के पास श्री उड़िया बाबा की टीका गीता तत्वालोक जो आप द्वारा ही सम्पादित थी दो प्रति थी। मुझे आपने एक लेने को कहा और मैंने ले लिया। गोपी वेश के दर्शन करने की इच्छा प्रकट करने पर कहा - मैं श्रृंगार बहुत करता हूँ। मुझे इसमें लज्जा तो नहीं है किन्तु प्रदर्शन करने की भावना भी नहीं है। तुम्हारी इच्छा है तो कल सायं छः बजे आ जाना।

आपने स्वयं किसी को शिष्य नहीं बनाया किन्तु आपको गुरू मानने वाले बहुत हैं। मार्ग दर्शन हर जिज्ञासु केा देते रहे। सच्चारित्र्य, सदव्यवहार, परिश्रम की कमाई साधन में सहायक है यह कहते और करने की प्रेरणा देते रहे।

अगले वर्ष सन् 1983 में जोधपुर में रहते समय ही मेरे मन में आपका चरित्र लिखने की इच्छा हुई थी। मैंने अपना विचार आपके समक्ष रखा तो आपने मना कर दिया। फिर कुछ इधर-उधर से सामग्री जुटाकर एक शब्द चित्र तैयार किया और उन्हें बताया। सुनकर आप हँसे और कहे कि ऐसे थोड़े लिखा जाता है। पहले वास्तविकता जानो, घटनाओं को काल क्रम से व्यवस्थित करो और जो बात जैसी हो उसे उसी रूप में प्रस्तुत करो तब सच्चा जीवन चरित्र होगा। मैंने कहा- महाराज जी ! मैं तो अब आपके सम्पर्क में आया हूँ आप बतायेंगे तभी तो मुझे जानकारी होगी। मेरे इस भाव की पुष्टि में सत्संग भवन की व्यवस्थापिका श्री मीरा बाई तथा स्नेह बहन ने भी आपसे प्रार्थना की तब आप कुछ नरम पड़े। फिर कुछ बातें बताईं, उनके नोट मैंने ले लिए। आपके पास एक पुरानी डायरी थी उसे आपने मुझे दे दी। उससे मुझे काफी सामग्री मिली। फिर आपने कहा कि मैं यहाँ से पुष्कर जाऊँगा। यहाँ तो समय मिलता नहीं है, पुष्कर में दिन में समय मिलेगा तब मुझे जो प्रसंग याद आ जायेगा वह बता दूँगा। मैंने इसे आपका अनुग्रह माना।

आपके निर्देशानुसार मैं पुष्कर पहुँचा। उस समय मेरे मन में दो बातंे थीं, एक तो ईशावास्योपनिषद शांकर भाष्य सहित आपसे पढ़ने की और दूसरी आपके सम्बन्ध में जानने की। आपने दोनों इच्छायें पूर्ण की।

एक दिन श्री स्वामी नारायण देव जी ने आप द्वारा अनुवादित ‘त्रिपुरा रहस्य ज्ञान खण्ड’ ग्रन्थ की प्रशंसा की तब मैंने भी आपसे उस ग्रन्थ के सम्बन्ध में निवेदन किया। आपने चौखम्बा संस्थान की वह पुस्तक मेरे पते पर निःशुल्क भिजवा दी।

जिस दिन मैं पुष्कर से उदयपुर आ रहा था और आपके पास प्रणाम करने पहुँचा, उसी दिन उसी समय श्रीमति सरस्वती देवी भार्गव माण्डूक्य उपनिषद पढ़नें पहुँच गयीं। आपने कहा- तुम भी सुन लो। फिर आपने मूल माण्डूक्योपनिषद् पढ़ाकर और भगवत्प्रसाद देकर विदा किया।

इस प्रकार आपकी कृपा से प्राप्त सामग्री का पूरी इमानदारी से उपयोग करके यथामति यथा गृहीत विवरण संकलित कर प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।

भाई श्री नरेश जी शर्मा की प्रेरणा तथा प्रोत्साहन से विरचित एवं फिरोजपुर छावनी के श्री भगत जी ऋषभ देव जी गोयल के भतीजे श्री हरीश जी गोयल, एवं सुभाष गोयल तथा परम साध्वी श्री मधु गोयल के आर्थिक सहयोग से इस ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा है। एतदर्थ उन्हें शतशः धन्यवाद है।

शिवाजी शाही

दैनिक प्रार्थना

प्रातः स्मरामि हृदि संस्फुरदात्म तत्वं,

सच्चित्सुखं परमहंस गतिं तुरीयम्।

यत्स्वप्न जागर सुषुप्तिमवैति नित्यं,

तद् ब्रह्म निष्कलमहं न च भूत संघः।।1।।

यस्य बोधोदये तावत्स्वप्नवद् भवति भ्रमः।

तस्मै सुखैक रूपाय नमः शान्ताय तेजसे।।2।।

येषां गिराऽज्ञानहरा मदीये,

कर्णाैगृता पुण्य वशेन सम्यक्।

गुरून्श्चतानात्म विदां वरिष्ठान्,

नमामि नित्यं प्रतिबोध रूपान्।।3।।

यस्य पाद प्रभाध्यस्तः प्रपंचोभाति भासुरः।

तमहं सदगुरूं वन्दे पूर्णानन्दं चिदात्मकम्।।4।।

ग्ंागातीरे हिमगिरि गुहा बद्ध सिद्धासनस्य,

ब्रह्य ध्यानाम्यसन विधिना योग निद्रां गतस्य।

कि तैर्भाव्यं मम सुदिवसैर्येषुते निर्विशंकाः

कण्डूयन्ते जरठ हरिणा श्रृंगमध्ये मदीये।।5।।

सिद्धिं तथा विधि मनो विलयां समाधौ

श्रीशैल श्रृंग कुहेरषु कदोपलप्स्ये।

गात्रं यदा लता मम परिवेेष्टयन्ति

कर्णाै यदा विरचयन्ति खगाश्च नीडान्।।6।।

कदोपशान्त मननो धरणीधर कन्दरे।

समेष्यामि शिला साम्यं निर्विकल्प समाधिना।।7।।

कदा मे मानमातंगोे स्वाभिमान महामदः।

तत्वावबोध हरिणा हतो नाश मुपैष्यति।।8।।

कृष्ण त्वदीय पद पंकज-पंजरान्ते अद्यैव में विशतु मानस राजहंसः।

प्राण प्र्र्र्र्र्र्र्र्र्रयाण समये कफवात पित्तैः कण्ठावरोधन विधौ स्मरणं कुतस्ते।।9।।

हे देव हे दयित हे भुवनैक वन्धो ! हे कृष्ण हे चपल हे करूणैक सिन्धो।

हे नाथ हे रमण हे नयनाभिराम ! हा हा कदानुभवितासि पदं दृशोर्में।।10।।

हा नन्द नन्दन प्रान पिरीते,। तुम बिनु जियत सवै् दिन बीते।

अब प्रिय कृपा करहु एहिभाँती,। सब तजि भजन करौं दिन राती।।11।।

अमून्यधन्यानि दिनान्तराणि हरेः तवालोकनमन्तरेण।

अनाथबन्धो करूणैक सिन्धो, हा हन्त हा हन्त कथं नयामि।।12।।

हे नाय हे रमा नाथ ब्रजनाथार्ति नाशन।

मग्नमुद्धर गोविन्द गोकुलं वृजिनार्णवात्।ं13।।

हा नाथ रमण प्रेष्ठ क्वासि क्वासि महाभुज।

मग्नमुद्धर गोविन्द गोकुलं वृजिनार्णवात्।ं14।।

हा नाथ रमण प्रेष्ठ क्वासि क्वासि महाभुज।

दास्यास्ते कृपणाया मे सखे दर्शय सन्निधिम्।।15।।

असुन्दरः सुन्दर शेखरो वा, गुणैर्विहीनो गुणिनां वरो वा।

द्वेषीमयि स्यात् करूणाम्बुधिर्वा कृष्ण सः एवात्र गतिर्न चापरः।।16।।

आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टुमामदर्शनान् मर्महतां करोतु वा।

यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मम प्राणनाथस्तु स एव नापरः।।17।।

अयि दीनदर्याद्र नाथ हे मथुरानाथ कदावलोक्यसे।

हृदयं त्वदवलोक कातरं दयित भ्राम्यति किं करोम्यहम्।।18।।

नाथ योनि सहस्रेषु येषु येषु व्रजाम्यहम्।

तेषु तेष्वचला भक्ति रच्युतास्तु सदा त्वयि।।19।।

तवैवास्मि तवैवास्मि न जीवामि बिना त्वयि।

इति ज्ञात्वा दयासिन्धो नय मां निज सन्निधौ।।20।।

बुद्धिर्विकुण्ठिता नाथ समाप्ता मम युक्तयः।

नान्यत्किंचिद्विजानामि त्वमेव शरणं मम्।।21।।

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव।।22।।

स्वामी श्री सनातन देव (जीवन दर्शन)

प्रस्तावना

सन्त सरलचित जगतहित, जानि सुभाउ सनेहु।

वाल विनय सुनि करिकृपा, रामचरन रति देहु।।

सन्त समाज संस्कार-परिष्कार के लिए चलती फिरती प्रयोगशाला है।

मुद मंगल मय सन्त समाजू । जो जगजगम तीरथ राजू ।

राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा । सरसइ ब्रह्म विचार प्रचारा।।

विधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रवि नंदनि बरनी।

हरिहर कथा विराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी।।

यहाँ सच्चे साधक आत्म परीक्षण किया करते हैं। अर्थात् उनके उपदेशों को उनमें ही परिव्याप्त पाकर आत्म सुधार की लालसा से उनके अनुसरण में प्रवृत्त होते हैं और अपनी जिज्ञासा तथा लालसा का उनके संरक्षण मंे परिपालन करते हुए आत्म कल्याण सम्पन्न करते हैं फिर उनसे ही अद्वैत लाभ करते अर्थात् स्वयं सन्त बनकर उनकी जिम्मेवारियांे को सम्भालते हैं - विश्व कल्याण करते हैं।

ऐसे ही पुरूष को देखकर -

मोदन्ते पितरो, नृत्यन्ति देवता, सनाथा चेयं भूर्भवति। (ना.भ. सूत्र )

पितर प्रमुदित होते हैं कि - मद्वंशे वैष्णवो जातः स नस्त्राता भविष्यति। (श्रीमद0भा्0)

मेरे वंश में वैष्णव उत्पन्न हुआ है, वह हमारा कल्याण करेगा। देवता नाचने लगते हैं कि यह संसार में शांति और प्रेम स्थापित करेगा तथा पृथ्वी सनाथ हो जाती है क्यांेकि उसके माध्यम से ही उन्हें अपने पति परमात्म देव का सान्निध्य प्राप्त होगा। क्यांेकि भगवान कहते हैं-

नाहं वसामि वैकुण्ठे, योगिनां हृदये न च ।

मद्भक्ता यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद।। पाण्डव गीता

हे नारद मैं बैकुण्ठ में नहीं रहता, योगियों के हृदय में भी नहीं रहता, मैं तो मेरे भक्त जहाँ मेरा गुणगान करते हैं वही स्थित होता हूँ। भगवान के सच्चे निवास स्थान तो भक्त हैं। उनके प्रेम स्निग्ध हृदय में रहकर उन्हें जो सुख प्राप्त होता है, वह द्वारकाधीश बनकर भी नहीं मिलता। तभी तो वृन्दावन के समाचार जानकर उद्धव से कहते हैं-

यह मथुरा कंचन की नगरी मनि मुकुताहल जाहीं।

जबहि सुरति आवति वा सुख की जिय उमगत तनु नाहीं।।

(सूरदास कृत भ्रमर गीत)

भैया, इस समृद्ध स्वर्ण नगरी में रहकर भी उन गोपियों और गोप-बालकों के उन्मुक्त शुद्ध प्रेम की याद आने पर हृदय उमड़ने लगता है, शरीर की सुधि नहीं रहती। उन्होनंे अन्तिम क्षणों में उद्धव जी से कहा है-

न तथा में प्रियतम, आत्म योनिर्न शंकरः।

न च संकर्षणो न श्रीर्नैवात्मा च यथा भवान।।

भैया उद्धव, जितना प्रिय मुझे आप हैं उतना तो मेरे पुत्र ब्रह्या, आत्मा शंकर, बडे़ भाई बलराम जी, प्रिया लक्ष्मी तथा अपना आत्मा भी नहीं है। भक्त का दर्शन तो भगवदर्शन का फल है। भरद्वाज जी कहते हैं-

स्ुानहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस वन रहहीं।

सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा।।

तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित पयाग सुभाग हमारा।।

रा.च.मा. अयोध्या काण्ड-दो. 210 चौ.3-4-5

भगवान के दर्शन का फल है निज स्वरूप की प्राप्ति। भक्ति के प्रताप से भगवद्दर्शन का फल आत्मस्वरूप लाभकर भक्त अपने दर्शन स्पर्श से दूसरों को भी परमानन्द लाभ करा देता है। दूसरे भगवान का कथन है कि -

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। गीता 4/11

जो मुझे जिस प्रकार अपनाते हैं मैं भी उन्हें उसी प्रकार स्वीकार करता हंूँ। किन्तु व्यवहार दशा में भक्त की दृष्टि केवल आराध्य पर है और भगवान की सारी सृष्टि पर। अतः भक्त की पकड भगवान से अधिक दृढ़ है। इसलिए यह कहना कि -

भक्ति भक्त भगवन्त गुरू चतुर्नाम वपु एक।

तिनके पद वन्दन किये नासहिं विघ्न अनेक।। सर्वथा उचित है।

जन्म और बाल्य काल

उत्तर प्रदेश के जिला बुलन्द शहर में खुर्जा तहसील मुख्यालय है। वहाँ व्यापार का अच्छा केन्द्र होने से वह भी एक उप नगर है। वहाँ अन्न आदि का व्यापार मुख्य रूप से चलता है। वहीं वैश्य कुल में श्री देवी दास जी एक प्रतिष्ठित व्यापारी हुए थे। उनकी प्रतिष्ठा यहाँ तक बढ़ी कि जिस मुहल्ले में वे रहते थे उसे लोग उनके नाम से ही सम्बोधित करने लगे, अर्थात् वह स्थान ’छत्ता देवीदास’ कहलाने लगा।

श्री देवीदास जी के पुत्र नत्थूमल अग्रवाल हुए। उन्होंनें अपने पिता की प्रतिष्ठा को सुरक्षित रखते हुए पैतृक धन्धे का विस्तार किया। उनके पुत्र रामदयाल जी हुए। रामदयाल से किशोर चन्द की उत्पत्ति हुई। किशोर चन्द जी के चार पुत्र हुए - गिरिवर मल, हरदेव दास, कुन्दनलाल और बद्री प्रसाद। यह गिरिवर मल हमारे चरित्र नायक के पितामह थे। गिरिवर मल के पुत्र हुए लाला बाबूलाल जी। अपने पिता-पितामहों की परम्परा में वे सरल सुशील स्वभाव के थे, उनकी पत्नी का नाम भगवती देवी था। वे भी सरल स्वभाव की आस्तिक महिला थीं। इन लोगों का दाम्पत्य जीवन सुखमय था। खुर्जा में ही इनकी आढत की दुकान थी। आर्थिक स्थिति ठीक थी -

श्री भगवती देवी ने समय पर गर्भ धारण किया। उस समय उनकी आयु सत्रह वर्ष तथा बाबूलाल जी की आयु अठारह वर्ष थी। सुख पूर्वक नौ महिने व्यतीत हो गये। कार्तिक मास कृष्ण पक्ष की चतुदर्शी तथा अमावस्या का सुखद संयोग रविवार दिन के ग्यारह बजे था। संवत 1958 विक्रमी को उसी दिन सवा ग्यारह बजे अमावस्या (दीपावली) को भगवती देवी ने पुत्र प्रसव किया।

कार्तिक मास कई दृष्टियों से बहुत पवित्र है। स्नान दान तथा भजन कीर्तन घर-घर में होते रहते हैं, मंदिरों में विशेष पूजा अर्चना होती है। कृष्ण चतुदर्शी को श्री हनुमान जयन्ती तथा अमावस्या को दीपावली हर्षदायक पावन पर्व है। इस समय तक खरीफ की फसल भी कृषकों के घर आ गयी होती है। शीत उष्ण भी प्रायः सम रहता है। प्रकृति अनुकूल होती है। ऐसे सुखद समय में-

‘मध्य दिवस अतिशीत न घामा। पावन काल लोक विश्रामा।।’

पुत्रोत्पत्ति का समाचार सुख की सीमा ही होता है। परिवार में आनन्द छा गया। बधाइयाँ बजने लगी, न्यौछावर होने लगी, आगतों को दान मान से सन्तुष्ट किया जाने लगा। पावन पर्व पर समृद्ध परिवार में सुख का आगमन बहुतों को सुखी करता है। अतः यह क्षण विशेष आनन्द दायक रहा।

हमारे चरित्र नायक का जन्म लग्न ज्योतिष गणना के अनुसार इस प्रकार है-

श्री शुभ विक्रमीय सम्वत् 1958 कार्तिक कृष्ण 14 सूर्य वासरे, जन्म समये अमावस्या तिथि दण्ड्यादि ।।07।।05।। स्वाति नक्षत्र घ0।।44।।51।। तस्ययुक्तं ।।30।।25।। योग्यम्।।66।।07।। सर्वार्क्षः ।।35।।42।। एवं परिशोभित पंचागं शुद्धे तत्र दिन मानं 26।।18।। तुलार्क गत दिनानि 26।। त६िने सूर्योदयादिष्टम ।।09।।9।।

जन्म चक्र

तदा धनुर्लग्नोदये श्रीमतः जन्मः।

बचपन में यों तो परिवार के सभी लोग आप को प्यार करते थे किन्तु आपकी बुआजी का विशेष अनुराग आप पर था, वे इन्हें लेकर खेलाती रहती थीं। जब आप घुटने के बल चलने लगे तो उस समय की प्रथा के अनुसार आप के हाथ पैंरों में बजने वाले गहने पहना दिये गये। उनसे मधुर ध्वनि होती जिसे सुनकर सबको आनन्द मिलता। बुआजी जब हाथ पकड़ कर उठाती और पैरों के बल खड़ा करती तब आप बाल स्वभाववश पैरों को बारी-बारी से ऊपर नीचे करते जिससे पैरों के गहने बजते और सहज ही मधुर ध्वनि ताल-लय से निकलती उस समय वे कहतीं-

’ठुमका कौ नाच कहाँ सीखी।’

कभी किलकारी भरते, कभी मौन रहकर गुमसुम बैठ जाते और कभी धूलि धूसरित होकर माता-पिता व अन्य जनों को आनन्दित करते। इस प्रकार तरह-तरह की निश्छल बाल लीलाओं से आपने सबको आनन्दित किया।

बचपन में लोगांे ने आपका नाम प्यार से मुन्नी रख दिया था। बाद में यही कुछ सुधार कर मुन्नीलाल के रूप में प्रसिद्ध हुआ। समय पर बाबूलालजी के छः सन्तानें और हुईं, चार पुत्र और दो पुत्री। उनके नाम क्रमशः हैं-

श्यामलाल, चिम्मनलाल, काशीराम और देव कुमार। पुत्री थी- शान्ति देवी और ज्ञान देवी।

समय पर मुण्डन तथा उपनयन संस्कार सम्पन्न हुआ। अब लगभग आठ वर्ष की आयु होने पर आपको स्थानीय पाठशाला में प्रवेश दिया गया। उन दिनों प्रायः अधिक उम्र में ही लड़के पढ़ने जाते थे। धीर-धीरे पढ़ाई का कार्य नियमित होने लगा।

आप शरीर से स्वस्थ तथा बलिष्ठ थे फिर भी आप में चंचलता नहीं थी। संयमी सदाचारी जीवन था। नौ वर्ष की अल्पायु में ही आपने श्री राम चरित मानस पढ़ लिया था। उन दिनों श्रीमद् भागवत का हिन्दी रूपान्तर सुख सागर प्रचलित था, आपने उसे भी पढ़ लिया था। सम वयस्क बालकों के साथ भी आप प्रायः धार्मिक खेल खेला करते थे-

खेलहिं तहंउँ बालकन्हि मीला। करहिं सकल रघुनायक लीला।।

साथियों को दो दलों में बाँट कर परशुराम-लक्ष्मण, अंगद-रावण आदि के संवाद कराते, किसको क्या कहना है - समझाते।

इस प्रकार यद्यपि श्रीमद् भागवत, उपनिषद् और रामायण से आपका परिचय हो चुका था किन्तु उसका अध्ययन तो आपने अनुवाद करते समय ही किया।

इन्हीं दिनों जब आप आठ वर्ष के थे, आपके पितामह का देहान्त हो गया। घर में लोग रो रहे थे। उस समय आपको बुखार आ रहा था। आपने सबको चुप कराने के उद्देश्य से कहा- आप लोग रोओं मत, मुझे डर लगता है। आप के कहने से लोग चुप हो गये और वातवरण काफी शान्त हो गया। उस समय आपकी यह युक्ति काम आयी। वास्तविकता यह थी कि आपको डर नहीं लग रहा था। इस प्रकार बाल्यावस्था में ही संतों के सदगुणों का आप में सहज समावेश प्रकट होने लगा।

आपकी बुआजी जन्माष्टमी के दिन मन्दिर सजाया करती थीं। पूजा करने की प्रेरणा आपको बुआजी से ही मिली। आप भी नियम से भगवद्विग्रह का पूजन करने लगे। आपकी विग्रह की पूजा में लगन और तन्मयता देखकर आपकी दादी मां इस आशंका से कि यह भविष्य में साधु संन्यासी न हो जाय, खीझती थीं तब आप कहते- मैं पूजा करता हूँ तो तुम खीझती हो। मैं तो इसी के प्रभाव से अपने क्लास में फर्स्ट पास होता हूूं।

विद्यार्थी जीवन

पांचवी कक्षा उत्तीर्ण करके आपने एडवर्ड कारोनेशन हाई स्कूल खुर्जा में छठी कक्षा में प्रवेश लिया। वहाँ भी अपनी शालीनता तथा अध्ययन निष्ठा के कारण आप गुरूजनों के स्नेह भाजन रहे। यह सन् 1917.18 की बात है। उन दिनों देश पर अंग्रेजों का शासन था। उनके उत्पीड़न से प्रजा त्रस्त थी। आपके मन में भी क्रांतिकारी विचार आते थे, किन्तु आपने कोई दुःसाहस पूर्ण कार्य नहीं किया। अपनी साहित्यिक रूचि के अनुसार आपने एक नाटक लिखा-’भारत दशा प्रदर्शन।’ उस समय आप आठवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। आपने उसे प्रकाशन हेतु सरस्वती कार्यालय में श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी के पास प्रयाग भेज दिया किन्तु वह तत्कालीन प्रेस की नीतियांे के कारण छप नहीं सका। बाद में श्री द्विवेदी जी ने उसे सधन्यवाद लौटा दिया था।

नवीं कक्षा में आकर आप तुकबन्दी भी करने लगे थे। अपने विषय का सम्यक ज्ञान रखते हुए अन्य ग्रन्थ भी पढ़ते थे। धीरे-धीरे आपकी रचनाएं सशक्त होने लगीं और मुक्तक छंद लिखकर प्रकाशनार्थ पत्र पत्रिकाओं में भेजने लगे। चित्रमय जगत-पूना, आर्यमित्र-आगरा, स्वदेश-गोरखपुर तथा प्रताप और माधुरी में आपकी रचनाएं छपती रहती थीं।

प्रायः देखा जाता है कि इतर विषय व्यासंग बढ़ने पर मुख्य विषय गौड़ हो जाते हैं किन्तु आपने दोनों का पूर्ण निर्वाह किया। हिन्दी संस्कृत में आपकी विशेष योग्यता थी, भूगोल में भी विशष रूचि थी। स्थान प्रकृति जलवायु आदि का पूर्ण ज्ञान था।

दसवीं कक्षा का वार्षिक परीक्षा परिणाम घोषित हुआ। पांच छात्र प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे, उसमें आपका स्थान दूसरा था। उस समय सम्पूर्ण बुलन्द शहर जिलें में दो-तीन ही हाई स्कूल थे और सबसे अधिक इसी स्कूल के लड़के प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे। यह विद्यालय के लिए गौरव की बात थी।

इसलिए विद्यालय परिवार की ओर से एक सभा का आयोजन करके सर्वप्रथम उत्तीर्ण छात्र को स्वर्ण पदक तथा आपको रजत पदक प्रदान किया गया तथा विशिष्ट छात्रवृत्ति देने की घोषणा की गयी। यह वृत्ति आपको अग्रिम कक्षाओं में भी मिलती रही।

विद्यार्थी जीवन की उपरोक्त प्रवृत्तियों के बावजूद भी भगवद्विग्रह पूजन तथा पाठ में आपने कभी प्रमाद नहीं किया। आगरा कालेज में जाने के बाद आपका यह पूजा का क्रम टूट गया।

अब उस विग्रह की पूजा आपके भाई श्री चिम्मन लाल जी के सुपुत्र श्री केशव जी के घर पर होती है।

विवाह

सृष्टि चक्र प्रवर्तन का प्रमुख साधन विवाह माना जाता है। यह गृहस्थाश्रम में प्रवेश पाने का अधिकार पत्र है। संतों ने इसे स्वर्ण श्रृंखला कहा है। यह माया-मोह वर्द्धक है किन्तु समय और परिस्थिति को देखते हुए आवश्यक भी है। प्रत्येक माता-पिता की यह लालसा होती है कि मेरी परम्परा चलती रहे।

वंश वृद्धि सौभाग्य सूचक मानी जाती है।

उन दिनों बाल विवाह की प्रथा थी, इसलिए नौ वर्ष की अल्पायु में ही आपकी सगाई मेरठ जिले के एक कुलीन वैश्य परिवार में कर दी गयी। उस समय आप विवाह के दायित्व से अपरिचित थे। अतः विरोध नहीं कर सके। जब आपकी आयु पन्द्रह वर्ष की हुई तब घर वालों ने आपका विवाह करना चाहा उस समय आपने इन्कार कर दिया। इससे परिवार के लोग खिन्न हो गये। कुछ समय बाद आपके पितामह ने आपसे बिना पूछे ही शादी का मुहूर्त तय कर दिया। आपने शिष्टाचारवश विरोध नहीं किया और धूम-धाम से वैवाहिक कृत्य सम्पन्न हुआ। तीसरे दिन वापस बारात खुर्जा लौट आई। सर्वत्र चहल पहल रही।

आपकेे कुल में यह परम्परा रही है कि विवाह के पश्चात् गौना (द्विरागमन) में वर वधू को लेकर घर में प्रवेश करता है। अतः तीन वर्ष बाद साढे़ अठारह वर्ष की आयु में गौना होने पर आप पत्नी के साथ घर आए।

इस अवसर पर आपके मन में यह विचार उठा कि क्यों न कुछ दिन ब्रहमचर्य का पालन और किया जाय, इससे मेरा शारीरिक और बौद्धिक विकास समुचित हो सकेगा और अध्ययन में भी सुविधा रहेगी।

ऐसा निश्चय कर अपनी प्रिय पत्नी श्री राम दुलारी को अपना अभिप्राय बताए तथा समझा बुझा कर अनुमति ले ली। उस सरल हृदया देवी ने किसी प्रकार का कोई व्यवधान उपस्थित नहीं किया।

मनुष्य के चरित्र बल और आत्म विश्वास की परीक्षा ऐसे ही अवसरों पर होती है। युवावस्था में ऐसी दृढ़ता दुर्लभ है।

आगरा कॉलेज में

बुलन्द शहर में उस समय इण्टरमीडियट कालेज नहीं था। अतः आपको पढ़ने के लिए आगरा भेजा गया। वहाँ आगरा कालेज में आप ग्यारहवीं कक्षा में प्रविष्ट हुए। छात्रावास में निवास तथा सामूहिक भोजनालय में भोजन करना पड़ता था। आपकी प्रतिभा तथा योग्यता एवं व्यवहार कुशलता से सभी सन्तुष्ट और प्रभावित थे। समय सानन्द व्यतीत हो रहा था।

वहाँ भोजनालय में दिन में रोटी और उड़द की दाल तथा रात्रि में पूड़ी शाक बनती थी। यह भोजन आपके अनुकूल नहीं था। थोड़े दिनों में ही कब्ज की शिकायत हो गयी। छः सात माह में तो आप पेट के रोगी हो गये। आंखे भी कमजोर हो गयीं। डाक्टरों की सलाह पर चश्मा लगवाना पड़ा, फिर भी आप अध्ययन में लगे रहे। इन्हीं दिनों आपका परिचय आर्य प्रतिनिधि सभा से प्रकाशित ’आर्य मित्र’ पत्र के सम्पादक ’श्री धर्मेन्द्र नाथ जी तर्क शिरोमणि’ से हो गया। वे वृन्दावन के गुरूकुल विद्यालय मंे न्याय शास्त्र में स्नातक थे। उनको तर्क शिरोमणि की उपाधि दी गयी थी। बाद में उन्होंने शास्त्री करके एम.ए. किया, फिर पी.एच.डी. भी किया। फिर मेरठ कालेज में संस्कृत के विभागाध्यक्ष बने और बाद में कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरूक्षेत्र में संस्कृत विभागाध्यक्ष के पद पर रहकर कार्य करने लगे। आपकी कविताएं इनके आर्य मित्र में छपती थीं, इससे आपका उनसे घनिष्ट सम्पर्क हो गया था।

उन्ही दिनों कालेज के निकटस्थ डी.ए.बी. हाई स्कूल में कोई उत्सव था। उसमंे आप भी एक श्रोता के रूप में उपस्थित थे। वहाँ श्री धर्मेन्द्र नाथ जी तर्क शिरोमणि का भाषण हो रहा था। उन्होंने याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी के प्रसंग की चर्चा करते हुए मैत्रेयी के ये शब्द कहे-

’’येनाहं नामृता स्यां, किमहं तेन कुर्याम्’’ (बृहदारण्यक 21413)

जिससे मैं अमर नहीं हो सकती, उसे लेकर मैं क्या करूंगी। इस वाक्य का आपके चित्त पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। आप कहते हैं- उस समय से यह वाक्य मेरा पथ प्रदीप बन गया। वैराग्य की जागर्ति के लिए इसकी जोड़ का कोई दूसरा वाक्य मैंने सम्भवतः अपने जीवन में नहीं सुना। इससे अधिक मर्म स्पर्शी कोई दूसरी बात कही जा सकती है - ऐसी मेरी कल्पना भी नहीं है।

शरारत

आपके कालेज जीवन की ही एक घटना है। गर्मियों के दिन थे, लड़के रात्रि में अपनी अपनी खाट बाहर निकालकर सोने की तैयारी कर रहे थे। आपने भी अपने साथी किशनलाल से जो दादरी का रहने वाला था, कहा कि मेरी खाट भी एक तरफ से पकड़कर बाहर करा दो, मैं भी बाहर ही सोऊँगा। किशनलाल ने मना कर दिया तब आपने यह कहकर कि तुम्हें भी नहीं सोने दूंगा, उसकी खाट पकड़कर एक तरफ से उठा दी, वह बिस्तर सहित नीेचे गिर पड़ा और आप कमरे में आकर सो रहे। उसी समय आपने विचार किया कि मुझसे गलती हुई है। वह नहीं आ रहा था तो नहीं आता, मैंने उसकी खाट क्यांे उलट दी। मन बैचेन हो गया। आप क्षमा मांगना कमजोरी समझते थे, अतः निश्चय किया कि सुबह दण्ड मांग लेंगें। फिर विचार हुआ कि यदि उसने यमुना में कूद जाने के लिए कहा तो? दृढ़ निश्चय किया - कूद जाउँगा। सबेरे जब वह कमरे में आया तो आपने उससे कहा- किशन लाल! रात को मैंने तुम्हारी खाट उलट दिया था उसके लिए जो दंड देना चाहो दे सकते हो, मैं स्वीकार कर लंूगा।

उसने कहा - कान पकड़ कर उठो बैठो। अपनी धारणा से कम दण्ड की बात सुनकर आपको सुखद आश्चर्य हुआ और आप वहीं कान पकड़कर उठने बैठने लगे। आपको अप्रत्याशित रूप से उठते बैठते देख उसे हँसी की सूझी। उसने कहा बाहर आकर उठो बैठो तब आपने कहा- अब तुम्हारा दंड पूरा हो गया, अतः बाहर नहीं आऊँगा। इससे आपको संतोष हुआ।


पढ़ाई छूटी

विद्यालय की भोजन व्यवस्था की प्रतिकूलता के कारण आपका स्वास्थ्य निरन्तर गिरता जा रहा था फिर भी आपने ग्यारहवीं कक्षा उत्तीर्ण करके ’मेरठ कालेज’ में 12वीं कक्षा में प्रवेश लिया और पूरे मनोयोग से पढ़ाई में जुट गये। वहाँ भी स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ। कब्ज और कमजोरी के कारण नेत्र ज्योति भी मन्द पड़ गयी और असमय में ही डाक्टरों की सलाह से चश्मा लगवाना पड़ा। आप कई विषयों में एम.ए. करना चाहते थे किन्तु अस्वस्थता के कारण इण्टरमीडिएट भी नहीं कर सके और दुःखी मन से विद्यालय छोड़कर घर आ गये।

भाई की मृत्यु

सन् 1924 में खुर्जा में प्लेग फैला। उस समय आपके छोटे भाई श्री श्यामलाल भी उसके शिकार हो गये और पांच दिन बीमार रहकर चल बसे। उस समय उनकी आयु 21 वर्ष और आपकी आयु 23 वर्ष थी। आठ महीने पहले ही उनका दूसरा विवाह हुआ था। पहली पत्नी मर गयी थी।

श्यामलाल जी सुयोग्य व्यक्ति थे। दुकान का काम संभालने लगे थे। उनकी मृत्यु से सारा परिवार शोकाकुल हो गया। आपने विचार किया कि शोक करने से न तो मरने वाले का कोई लाभ है, न कुटुम्बियों का कोई लाभ है और न अपना ही लाभ है। जो विपति आती है, उसे भोगना पड़ता है चाहे रोकर भोग लो चाहे धैर्य पूर्वक सह लो। धैर्य पूर्वक भोगने से अपना चित्त भी हल्का रहता है और दूसरों को भी सान्त्वना दी जा सकती है। इस विचार से आप शान्त बने रहे।

निर्भयता

आप पेट का इलाज कराने अनूप शहर गये थे। दवा चल रही थी। नित्य की भाँति ही एक दिन प्रातः काल टहलते हुए जा रहे थे। सामने से गाय का एक बड़ा बछड़ा दौड़ता हुआ आ रहा था। ऐसा लगा कि आपको गिरा देगा किन्तु निकट आने पर आपने हाथ उठा कर कहा- रूक जाओ और वह रूक गया। फिर शान्त होकर एक तरफ चला गया। आप भी सहज भाव से टहलकर अपने स्थान पर आ गये।

श्री विश्व बन्धु ’सत्यार्थी’

आपके एक सहपाठी थे श्री झम्मनलाल जी ! ये खुर्जा से बीस मील दूर ’नीमका’ ग्राम के रहने वाले थे। आठवीं कक्षा तक खुर्जा में आपके साथ ही पढे़ थे। इनका चरित्र उज्ज्वल था। ये भी अग्रवाल परिवार के किन्तु गरीब घर के थे। बड़े ही स्वाभिमानी तथा तपोनिष्ठ थे। बचपन से ही सादगी से रहना, सत्य बोलना, सदाचार के नियमों का पालन करना नियमित उपासना करना उनका स्वभाव था। धर्म तथा ईश्वर के प्रति अटूट आस्था थी। उनके इन्हीं गुणों के कारण लोग उन्हें ऋषि जी कहते थे। बाद में उनका ’ऋषि जी’ यही नाम प्रसिद्ध हुआ।

भगवान के सिवा और किसी के आगे उन्होंने झुकना सीखा हीं नहीं था। हृदय में देश सेवा तथा भगवत्प्राप्ति दोनों की लगन थी। नवीं कक्षा से इनकी सारी पढ़ाई प्राइवेट ही मध्यमा तक हुई थी। ये सभी महात्माओं से मिलते थे, परन्तु पूज्य श्री उड़िया बाबा में इनकी विशेष श्रद्धा थी। अलीगढ़ से प्रायः सात मील दूर अलहदाद पुर में इन्होंने ऋषि आश्रम नाम से एक संस्कृत पाठशाला स्थापित किया था। इनके प्रिय अनुगामी पं॰ होतृदत्तजी उसके अध्यापक थे।

पंडित जी के लिए शुद्ध आजीविका की व्यवस्था करना ऋषि जी के जिम्मे था। बालकों को शिक्षा के साथ ही सदाचार में प्रवृत्त करना इस पाठशाला का उद्देश्य था। अब यह हाई स्कूल हो गया है।

स्वयं ऋषिजी ने खुर्जा से चार मील दूर स्थित सीकरा ग्राम में तिलक पाठशाला खोलकर अध्यापन कार्य किया फिर कुरूक्षेत्र गुरूकुल विद्यालय में शिक्षक हो गये। इसी विद्यालय में इनके एक सम्बन्धी श्री धर्म देव जी विद्यार्थी भी अध्यापक थे।

एक बार आप (श्री मुन्नीलाल जी) कुरूक्षेत्र गये और इनके यहाँ ठहरे। बातचीत के सिलसिले में श्री धर्मदेव जी ने कहा - इनका ’झम्मन लाल’ यह नाम कुछ अटपटा सा है, इनके जैसे व्यक्ति के अनुरूप नहीं है। अतः इसके बदले कोई ऐसा नाम रखा जाय, जो इनके अनुरूप हो और आधा उच्चारण करके भी बुलाया जा सके। तब आपने इनका नाम ’विश्व बन्धु’ रख दिया और कहा कि यह इनके अनुरूप रहेगा और आधा यानी - ’बन्धु जी’ कहकर भी बुला सकेंगें। तब से इनका यही नाम प्रचलित हो गया। आप तो दो चार दिन रूककर घर चले आए थे।

विश्वबन्धु जी ने कुछ दिन गुरूकुल में अध्यापन कार्य किया। फिर रोहतक के पास ’भैंसवाल’ में स्थापित गुरूकुल में अध्यापन हेतु गये। यह विद्यालय आर्य समाज की ओर से चलाया जा रहा था। इसमें आर्य समाज के सिद्धान्तों के प्रचार की भावना थी। वहाँ के अध्यापक तथा अन्तेवासी (छात्र) नियम पूर्वक आर्य समाज की सन्ध्या करते थे।

श्री विश्वबन्धु जी सनातन धर्मी थे, इनकी सन्ध्या सनातन धर्म के अनुसार होती थी। इन्होंने विचार किया -’नौकरी के लिए अपनी उपासना बदलकर आर्य समाज की सन्ध्योपासना क्यों करूँ और यदि ऐसा नहीं करता हूँ तो यहाँ रहूँ ही क्यों? यह सोचकर इन्होंने वह विद्यालय छोड़ दिया। और अपनी धर्म की सत्य निष्ठा के प्रतीक स्वरूप अपने नाम के आगे- ’सत्यार्थी’ शब्द और जोड़ दिया। तबसे ’विश्वबन्धु सत्यार्थी’ कहलाने लगे।

श्री विश्वबन्धु जी असहयोग आन्दोलन में जेल भी गये थे। जेल के एकान्त वास में ही इन्हें भजन के विशेष अनुभव हुए। साधु तो ये थे ही, आजीवन अविवाहित रहे।

आप (श्री मुन्नीलाल जी) का कहना है कि - ’’इतनी सी उम्र में ऐसा व्यक्ति मैंने नहीं देखा।’’

भक्त जी से परिचय

सम्वत् सोलह सौ असी असी गंग के तीर। श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी तजेउ शरीर।।

इस दोहे के अनुसार सवंत् 1980 में तदानुसार सन् 1923ई. श्रावण शुक्ला सप्तमी को पूरे देश में श्रीमद गोस्वामी तुलसीदास जी की त्रिशती पुण्यतिथि धूमधाम से मनाई जा रही थी। खुर्जा हाई स्कूल में भी इसका आयोजन किया गया था। उसमें वहाँ के प्रतिष्ठित नागरिक भी सम्मिलित थे। उन्हीं में से एक थे परम आस्तिक उदार चेता महामना भक्त श्री केदार नाथ जी।

भक्त जी सच्चे महापुरूष थे। विवाह के पश्चात् उनके पिताजी ने उन्हंे दो सौ रूपया देकर अलग कर दिया था। उनसे उन्होनंे पंसारी की दूकान कर ली थी। संतों की सेवा तथा सत्संग का चाव उन्हें बचपन से ही था। एक दिन उन्होनंे संतों से अपने व्यवहारिक विक्षेप की चर्चा की तो उन्होंने कहा -’तुम इस दूकान को अपनी न मानकर संतों की ही समझो।’ तबसे उन्होंने ऐसी ही धारणा बना ली। दुकान पर महीने भर के लिए मसाले की पुड़ियायंे बनकर तैयार रहती थीं। जब भी कोई विद्यार्थी या विरक्त ब्राह्मण दुकान पर आता, उसे महीने भर के लिए मसाला निःशुल्क मिल जाता।

बाद में भक्त जी ने वह दुकान मुनीम को दे दी थी, उससे केवल पचास रू. मासिक लेते थे। वर्ष में केवल एक बार दीपावली के दिन दुकान पर जाते और भगवती से प्रार्थना करते- ’’अगली साल मत बुलाना।’’

भक्त जी की इन्हीं विशेषताओं के कारण लोग उनका सम्मान करते थे। आप भी उनसे मिलने के इच्छुक थे सो संयोग बन गया। उस सभा के अध्यक्ष थे पं॰ श्री नारायण दत्त जी आयुर्वेदाचार्य। यथा योग्य क्रम से विद्यार्थियों तथा गुरूजनों के भाषण गोस्वामी जी और उनके ग्रन्थांे के सम्बन्ध में हो रहे थे। आपसे भी बोलने के लिए कहा गया। आपने अपना भाषण पहले से ही लिख रखा था, उसे ही सुनाया। संक्षिप्त और सार गर्भित होने से वह सबको पसन्द आया। भक्त जी बहुत प्रभावित हुए, बुलाकर आशीर्वाद दिए और मिलते रहने के लिए कहा। इससे आपको बहुत प्रसन्नता हुई। धीरे-धीरे मिलना जुलना और सत्संग करना नियम हो गया। प्रायः प्रतिदिन एक बार आप उनसे मिल लेते थे। जिस दिन आप किसी कारणवश उनके यहाँ नहीं जा पाते उस दिन भक्त जी चिन्तित होते और उसी दिन या दूसरे दिन आपके पास स्वयं आ जाते। उनका स्नेह देखकर आपको संकोच भी होता।

आप भगत जी को सद् ग्रन्थ सुनाया करते थे। योग वाशिष्ठ, गीता, उपनिषदादि वेदान्त ग्रन्थों का प्रायः पठन होता था। जब आप ग्रन्थ के किसी श्लोक का भावार्थ स्पष्ट नहीं कर पाते तो भगत जी कहते- ’’चार जगह भिक्षा मांगते हैं, कही मिलती है और कही नहीं भी मिलती है, उसका बुरा नहीं मानते’’ अतः जितना हुआ है उतना ही बहुत है।

विशेष उन दिनों आप तीन व्यक्तियों से मिलना चाहते थे- 1. भगत जी, 2. पं0 चण्डी प्रसाद शुक्ल (खुर्जा संस्कृत महाविद्यालय के प्रिंसिपल) ये बिना विद्यालयीय डिग्री के ही सुयोग्य पंडित थे। 3. सेठ गौरी शंकर गोयन्दका। इनमें से भक्त जीे से आपका परिचय उक्त प्रकार से हो गया।

श्री उडिया बाबा के सम्पर्क में

इस घटना का वर्णन- श्री उडिया बाबा के संस्मरण भाग-2 में आपने स्वयं किया है अतः इसे वहीं से उद्धृत किया जा रहा है।

संसर्ग का सूत्रपात (1)

सन् 1922ई. की बात है, एक दिन श्री ऋषि जी ने कहा -’’एक बहुत अच्छे महात्मा हर सहाय मल के बाग में ठहरे हुए हैं, लोग उन्हें उडिया बाबा कहते है।’’ मैं इस समय से प्रायः एक वर्ष पूर्व स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण कालेज छोड़ चुका था, और इस प्रकार विद्यार्थी जीवन से विदाई लेकर काम काज की खोज में रहता था। इस प्रकार बाह्य दृष्टि से ही नहीं आन्तरिक दृष्टि से भी यह मेेरे जीवन का परिवर्तन काल था। उससे पहले मैं अपने जीवन में एक प्रसिद्ध साहित्य सेवी और समाज सुधारक बनना चाहता था। परन्तु भगवत्कृपा से इस वर्ष मुझे- भगवान बुद्ध, श्री चैतन्य महाप्रभु, स्वामी रामतीर्थ और महात्मा गांधी इन चार महापुरूषों की जीवनियाँ और उपदेश पढ़ने का खुर्जा में ही सुअवसर प्राप्त हुआ। उसका प्रभाव मेरे चित्त पर यह पड़ा की उसकी अभिरूचि प्रधानतया अध्यात्म की ओर हो गयी और चरित्र निर्माण में भी जहाँ पहले बाह्य व्यवहार पर अधिक दृष्टि थी वहाँ आन्तरिक शोधन की प्रधानता हो गयी। इस स्वाध्याय और सुधार में सबसे अधिक प्रेरणा मुझे मिली थी श्री ऋषि जी से ही । अतः उनकी बात का स्वभाव से ही मेरे हृदय मंे बड़ा आदर था। उस समय तक यद्यपि साधु, संन्यासियों के पास जाने का मेरा स्वभाव नहीं था, तथापि ऋषि जी के कहने पर मैं उसी दिन अथवा दूसरे रोज हर सहाय मल के बाग में गया। वहाँ मैंने देखा, एक श्याम वर्ण पतले दुबले मध्यम काय महात्मा गुदड़ी बिछाएं बैठे हैं। उनके पास जो दर्शनार्थी आते हैं वे कुछ मिष्ठान या फल आदि भी लाते हैं। परंतु वे स्वयं उनमें से कुछ भी ग्रहण नहीं करते, सब आने जाने वालों को ही बरता देते हैं। शरीर दुबला पतला होने पर भी उसमें एक अपूर्व ओज और तेज है। दर्शकों का आप के प्रति अद्भुत आकर्षण है। हर समय कुछ सत्संग चर्चा भी चलती रहती है। दिनभर आने जाने वालों का तांता लगा रहता है किन्तु रात को वहाँ कोई नहीं रह सकता। ब्रह्मचारी बद्री प्रसाद, जिनके साथ आप खुर्जा पधारे थे, पास ही किसी दूसरे स्थान में रहते थे। यह ज्येष्ठ का महीना था, परन्तु रात्रि में आप कमरे के सारे दरवाजे बंद करके भीतर ही रहते थे। इन दिनों आपका ध्यानाभ्यास बहुत बढ़ा हुआ था। अतः शीतोष्ण का कोई प्रश्न ही नहीं था। अधिकांश रात्रि ध्यान समाधि में ही व्यतीत होती थी। उसको गुप्त रखने के लिए ही आपकी यह तीव्र तितिक्षा थी।

उस समय तक महात्माओं से मिलने और बातचीत करने का तो मेरा स्वभाव था नहीं। मैं केवल आपके दर्शनों के लिए आता था। आप इन दिनों मधुकरी ही करते थे। एक दिन मध्यान्होत्तर काल में कुटी पर गया हुआ था। आप तब तक भिक्षा करके लौटे नहीं थे। भिक्षा के पश्चात् बस्ती में ही किसी भक्त के यहाँ ठहर गये थे। थेाड़ी देर में आप पधारे। मैंने चरण स्पर्श किए। आप भी ठहर गये और खड़े-खड़े ही बोले- ’’तू क्या करता है।’’ मैं- अभी तो कुछ नहीं करता। प्रायः एक वर्ष हुआ कालेज छोड़ा है, किसी काम की खोज में हूॅ।

महाराज जी- क्या करने का विचार है? मैं-मैं ऐसा कोई काम नहीं करना चाहता जो धर्म या देश के विरूद्ध हो। सरकारी नौकरी करने का भी मेरा विचार नहीं है। व्यापारादि में लोग प्रायः मिथ्या भाषण का आश्रय लेते हैं। अतः मेरा विचार तो किसी राष्ट्रीय विद्यालय या गुरूकुल आदि में अध्यापन अथवा किसी समाचार पत्र में सम्पादन कार्य करने का है। महाराज जी- इसके लिए कुछ प्रयास भी किया है? मैं - हाँ, गुरूकुल वृन्दावन में कोई स्थान मिल जाने की सम्भावना है। वहाँ के प्रधानाध्यापक मेंरे मित्र है। बस यही श्री महाराज जीे से मेरी पहली बातचीत हुई थी। उस समय आपने मुझे गुरूकुल की नौकरी करने के लिए अनुत्साहित ही किया था। सम्भवतः उसी दिन सांयकाल में मैं फिर गया। अनेकों भक्त जन बैठे हुए थे। उनमें खुर्जा के सुप्रसिद्ध दानी और धर्मनिष्ठ सेठ गौरी शंकर गोइनका भी थे। उन्होंने प्रार्थना की - महाराज जी, कल भिक्षा के लिए दास के घर की ओर पधारने की कृपा करें। महाराज जी - हाँ, आऊँगा तो उधर भी हो आऊंगा। सेठ जी - किस समय पधारेंगें? मुझे मालूम हो जाय तो मैं भी वहाँ उपस्थित रहूँ। महाराज जी - मुझे तुम्हारी क्या आवश्कता है, जाऊंगा तो स्वयं ही रोटी ले आऊँगा। इस पर सेठ जी चुप हो गये। अनेक प्रकार का सत्संग हो रहा था। इस समय मुझे भी कुछ पूछने की इच्छा हुईं। परन्तु स्वयं प्रश्न करने का साहस न हुआ। पंडित रमादत्त जी वैद्य मेरे पास बैठे हुए थे। उन्हीं से मैंने प्रश्न कराया। वे बोले, महाराज जी, ये पूछते हैं- मृत्यु क्या है? इन दिनों मेरे चित में यह समस्या कभी-कभी खलबली पैदा करती रहती थी। अतः मैंने यही बात पुछवाई। इसका श्री महाराज जी ने जो उत्तर दिया वह मुझे अब स्मरण नहीं हैं। परन्तु यह आपके प्रति मेरा पहला प्रश्न था, इसलिए यहाँ इसका उल्लेख कर दिया है। रात्रि को सब लोग अपने-अपने घर चले गये, सबेरे मैं कुटी पर पहुँचा तो वह सूनी पड़ी थी और ब्रह्यचारी बद्री प्रसाद सिर लटकाए उदास बैठे थे। बाबा रात ही में उठ कर चले गये थे। उन दिनों यही आपका स्वभाव था कि बिना कोई समय निश्चय किये आना और बिना किसी को सूचना दिए चले जाना। अब मालूम हुआ कि आपने सेठ गौरी शंकर जी को ऐसा गोल मोल उत्तर क्यों दिया था।

संसर्ग का सूत्रपात (2)

यह श्री महाराज जी से मेरा प्रथम मिलन हुआ था। इससे मुझे दो लाभ हुए - 1. श्री चरणों के प्रति आकर्षण और 2. भक्तवर श्री केदार नाथ जी से परिचय। खुर्जा मे भक्त श्री केदार नाथ जी एक सुप्रसिद्ध साधु सेवी और सत्संगी थे। गृहस्थों में ऐसे सत्पुरूष विरले ही होते हैं। मैंने उस समय तक आपका नाम भी नहीं सुना था। किन्तु अब श्री महाराज जी के पास आपके दर्शन करके मेरा चित्त आपकी ओर आकर्षित हुआ और मुझे आपका सत्संग करने की रूचि पैदा हो गयी। धीरे-धीरे मैं आपके संसर्ग में आने लगा, फिर संसर्ग में परिचय हुआ और आगे चलकर उनके साथ मेरा घनिष्ट सम्बन्ध ही पैदा हो गया।

थोडे़ दिनों में मेरी कामकाज की समस्या भी हल हो गयी। मैंने अरहर की दाल का कारखाना कर लिया। इधर श्री भक्त जी के सत्संग और महापुरूषों के ग्रन्थों का स्वाध्याय करते रहने से मेरी आध्यात्मिक अभिरूचि बढ़ गयी थी। परन्तु अपने लिए कोई साधन मार्ग निश्चित नहीं हो पाया था। किन्ही महात्मा में ऐसी श्रद्धा भी नहीं थी जो आत्म समर्पण करके उनसे अपना मार्ग निश्चय कर लेता। चित्त बार-बार श्री महाराज जी की ओर ही आकर्षित होता था। परन्तु उनका कोई पता ठिकाना मालूम नहीं हुआ था। और उन दिनांे इस विषय में विशेष खोज करने का साहस भी नहीं हुआ था। इस प्रकार प्रथम दर्शन को अब प्रायः चार साल बीत चुके थे।

दैव योग से एक बार श्री भक्त जी गंगातट पर अनूप शहर ठहरे हुए थे। मैं भी आपके पास पहुँच गया था। वहाँ सुना कि इन दिनों श्री महाराज जी कर्णवास में हैं। वहाँ से आठ मील ही तो जाना था। बस एक बैलगाड़ी किराये पर की गयी और उसमें हम दोनों के अतिरिक्त भक्त जी के छोटे भाई लाला बाबूलाल जी और श्री रामलाल जी कोठी वाले, इस प्रकार कुल चार आदमी कर्णवास को चल दिये। वहाँ पहुँचे तो देखा, श्री महाराज जी पंडित किशोरी लाल जी के बगीचे की धर्मशाला के बीच वाले कमरे में एक लम्बी चौकी पर लेटे हैं और अनेकों भक्त आप के आस-पास बैठे हुए खिलवाड़ सा कर रहे हैं। हम पहुँचे तो आप उठकर बाहर बरामदे में बैठ गये और फिर परमार्थ चर्चा होनी लगी।

इस समय तक मुझे तो कोई प्रश्न आदि करना आता नहीं था, श्री भक्त जी के साथ ही महाराज जी की बात होती रही, वे ही हम सबके अगुआ थे। किन्तु मेरे चित्त में प्रश्न उठते न हों - ऐसी बात नहीं थी। कुछ दिनों से श्री रामकुमार दरोगा के उपदेश से मैं हर समय मन ही मन द्वादशाक्षर मन्त्र का जप करने लगा था। परन्तु इतने से ही चित्त सन्तुुुुुुष्ट नहीं था। उसे एक निश्चित और शीघ्रातिशीघ्र लक्ष्य की प्राप्ति कराने वाले साधन की अपेक्षा थी, परन्तु इन सब गुरूजनों के सामने श्री महाराज जी से ऐसी कोई प्रार्थना करने का साहस नहीं हुआ। तथापि इस समय आप जो बात कर रहे थे वे मुझे ऐसी लगती थी, मानो मेरे ही लिए कह रहे होें, उनमंे मुझे अपनी स्थिति का उल्लेख और कर्तव्य का निर्देश दिखाई देता था। इसके सिवा इस समय एक और बड़ा विलक्षण अनुभव हुआ। मेरा चित्त आरम्भ से ही बड़ा नीरस है, किसी भी व्यक्ति के प्रति मेरा विशेष आकर्षण नहीं होता। परन्तु इस समय श्री महाराज जी के प्रति चित्त ऐसा आकर्षित हो रहा था कि बार बार उन्हें आलिंगन करने की इच्छा होती थी। बस, इतना अनुभव लेकर ही सब के साथ मै भी वहाँ से लौट चला। रास्ते में हम लोग आपस में श्री महाराज जी के विषय में ही चर्चा करने लगे। भक्त जी तो आपकी अद्भुत निष्ठा और विरक्ति पर मुग्ध ही थे। लाला रामलाल जी कोठी वाले आर्य समाजी विचारों के थे।


1. ये बरेली के रहने वाले एक प्रेमी सज्जन थे और अपने कार्य से अवकाश ग्रहण करके जहाँ तहाँ विचरते रहते थे।

परन्तु इस समय वे भी कह रहे थे कि महाराज जी के हृदय में आनन्द का ऐसा उद्रेक जान पड़ता है कि मानो वह वहाँ न समा सकने के कारण बाहर भी छलक रहा हो। उसके प्रभाव से समीप वर्ती लोग भी आनन्द में मग्न हो जाते हैं। मैं तो उनके बच्चे की तरह था। जब मैंने उनसे अपने मन की बात कही कि मेरा चित्त तो बार बार उनका आलिंगन करने का होता था तो उन्होंने मुझे झिड़क दिया। शायद वे मोहवश मुझे एक त्यागी विरागी संत की आसक्ति मंे फंसा देखना नहीं चाहते थे। चलते समय श्री महाराज जी ने हमें शीघ्र की अनूप शहर पधारने का आश्वासन दिया था। अतः चित्त में यह सन्तोष था कि अब कुछ दिन निरन्तर सत्संग का सुअवसर प्राप्त होगा।

प्रायः एक सप्ताह में आप अनूप शहर पधारे और माता जी की गढी वाली कुटी में आसन किया। यहाँ जीवन में पहली बार मैंने भक्त प्यारेलाल जी को आपकी पूजा करते देखा। अब तो बराबर आपके पास मेरा आना जाना रहता ही था। अतः मैंने अपने लिए कोई निश्चित साधन बताने की प्रार्थना की। परन्तु आप टाल टूल ही करते रहे। मेरी मुख्य समस्या यह थी कि मैंने कुछ भक्ति ग्रन्थों को तो देखा ही था। महा प्रभु श्री गौरांग देव का जीवन चरित्र (स्वतक ळंनतंदहद्ध भी पढ़ चुका था और इन्हीं दिनों भक्तवर अश्विनी कुमार दत्त का भक्ति योग भी पढ़ा था। इन ग्रन्थों में मैंने भक्ति के अश्रु कम्प आदि अष्ट सात्विक भावों की बात पढ़ी थी। उससे कुछ काल पूर्व मैंनें पूज्य श्री हरि बाबा जी के भी दर्शन किये थे। श्री भक्त जी को मैनंे घण्टों रोते देखा था। परन्तु मुझे न तो संकीर्तन में ही कोई विलक्षण आनन्द आता था और न ही कभी कोई सात्विक भाव ही होता था। अपना चरित्र मैं बहुतों से अच्छा समझता था, और कभी कभी कोई ऐसी बात भी कह देता था जिसे सुनकर दूसरों को अश्रुपात होने लगते थे। परन्तु मेरे चित्त पर उसका कोई ऐसा प्रभाव नहीं होता था। अतः मैंने श्री महाराज जी से यही प्रश्न किया कि मुझे भावावेश क्यों नहीं होता और किस प्रकार मुझे ऐसी स्थिति प्राप्त हो सकती है। परन्तु आपने इसका कोई सन्तोष जनक उत्तर नहीं दिया। यह कह कर टालते रहे कि तुम जो कुछ करते हो वही करते रहो।

अब होली का पर्व समीप था। बांध पर पूज्य श्री हरि बाबा जी उत्सव का आयोजन कर रहे थे। वहाँ से उन्होंने चार आदमी श्री महाराज जी को लेने के लिए भेजे। महाराज जी ने अपने भक्त परिवार के सहित बांध के लिए प्रस्थान किया। मैं और भक्त जी भी आपके साथ पैदल ही चले वहाँ हमने दोनों ही महापुरूषों का बड़ा ही अद्भुत मधुर मिलन देखा। श्री हरि बाबा जी तो बहुत देर तक मानो भाव समाधि में डूबे से बैठे रहे। मैंने बांध का यह उत्सव जीवन में पहली ही बार देखा था। वहाँ तो भगवन्नाम और भगवत्प्रेम की मानों निरन्तर झड़ी लगी हुई थी। इस समय ब्रह्मचारी श्री प्रभुदत्त जी भी यही विराजमान थे। उनसे मेरा बचपन का प्रेम था। अभी संकीर्तनादि में उनकी कोई रूचि या श्रद्धा नहीं थी। वे इसे ग्रामीण और अशिक्षित लोगों का साधन समझते थे। इसी प्रश्न का लेकर कभी कभी श्री महाराज जी से उनकी बातचीत भी होती थी।

अस्तु होली के पश्चात् उत्सव की समाप्ति हुई। श्री महाराज जी ने वहाँ से हरिद्वार के कुम्भ में पहँुचने के लिए प्रस्थान किया और हम लोग अपने अपने घरों को लौट आए।

संसर्ग का सूत्रपात (3)

यह सन् 1920ई. की बात है। मैं बांध से एक नवीन प्रकार का अनुभव लेकर लौटा था। मैंने लोगों को संकीर्तनानन्द में मग्न होकर इस प्रकार नृत्य और प्रलाप करते कभी नहीं देखा था। अतः अपने में जो भावुकता का अभाव था वह और भी अधिक खटकने लगा। कभी चित्त में ऐसे प्रश्न भी उठा करते थे कि यह विश्व क्या है? मैं कौन हूँ? यह सब कहाँ से प्रकट हो गया? इस विश्व रचना का प्रयोजन क्या है? इत्यादि। कभी-कभी तो यह जिज्ञासा बहुत बैचेन कर देती थी। ऐसा लगता था कि यह समस्या हल न हुई तो जीवन व्यर्थ है। कभी तो ऐसा अनुभव होता कि भले ही त्रिलोकी का राज्य मिल जाए और बड़ी से बड़ी सिद्धि प्राप्त हो जाय तो भी यह जाने बिना कि मैं कौन हूँ मेरा चित्त शान्त नहीं हो सकता। ऐसी थी उन दिनों मेरे चित्त की अवस्था। श्री भक्त जी का सत्संग तो अब नित्य ही होता था। उन्हें मैं कोई न कोई पारमार्थिक ग्रन्थ सुनाया करता था। उनके विचार और भक्ति भाव से तो मैं प्रभावित था, परन्तु उनकी बातों से मेरी संदेह की वेदना शांत नहीं हो पाती थी। पूज्य श्री महाराज जी चैत्र के आरम्भ में हरिद्वार गये थे और लौटती बार खुरजा आने की बात कही थी। परन्तु ज्येष्ठ समाप्त हो गया तब भी वे नहीं आए। मन में उनके दर्शनों की बड़ी लालसा थी। उनका कोई निश्चित पता ठिकाना भी नहीं था, जो पत्र द्वारा कोई बात मालूम कर सकें। चित्त में तरह तरह की आशंकाए भी होने लगती थीं। परन्तु आशा यही थी कि अब की बार श्री महाराज जी मिलेंगे तो उनसे अपने मानस रोग की कोई अमोघ औषधि अवश्य मिल जाएगी। यह श्लोक बार बाद याद आता था -

एकोऽपि कृष्णस्य कृतः प्रणामो, दशाश्वमेधावभृथेन तुल्यः।

दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म, कृष्ण प्रणामी न पुनर्भवाय।।

अर्थ - श्री कृष्ण को किया हुआ एक ही प्रणाम दस अश्वमेध यज्ञ के अवमृथ स्नान के बराबर है। इनमें भी दस अश्वमेध यज्ञ करने वाले का तो पुनर्जन्म होता है किन्तु श्री कृष्ण को प्रणाम करने वाले का फिर जन्म नहीं होता।

इसे स्मरण करके सोचता था कि इस बार मैं श्री महाराज जी को वही प्रणाम करूंगा। जिससे पुनः जन्म न लेना पड़े।

उन दिनों अर्वाचीन महात्माओं में मेरी सबसे अधिक श्रद्धा थी परमहंस श्री रामकृष्ण देव पर। एक रात स्वप्न में मैंने देखा कि परमहंस देव हमारे द्वार पर आए हैं। परन्तु मैं देखता हूँ कि उनका वेष तो श्री परमहंस देव का सा है, परन्तु हैं श्री महाराज जी। दूसरे दिन दोपहर को मैं श्री भक्त जी के पास बैठा हुआ था, उसी समय किसी ने आकर कहा कि ऊधो जी की छतरी पर श्री हरि बाबा जी पधारे हैं। किन्तु मेरे मन में हुआ कि श्री हरिबाबा जी नहीं श्री उडिया बाबा जी ही पधारे होंगे। तुरंत ही हम दोनंों दर्शनों के लिए चल दिए। वहाँ पहुँचने पर मालूम हुआ कि श्री उडिया बाबा जी ही आए थे, किन्तु अब वे हर सहाय मल के बाग में चले गये हैं। हम सीधे ही वहाँ पहुँचे। वहाँ बाबा को देखते ही हमारे हृदय हरे हो गये। मैंने अपने जीवन में उन्हें पहली बार साष्टांग प्रणाम किया। उस समय उस प्रणाम में मेरा वही भाव था जो मैंने पहले से सोच रखा था।

अब तो पहले की अपेक्षा महाराज जी का सुयश कुछ अधिक फैल चुका था। इसलिए स्थानीय ही नहीं, अनूप शहर आदि के बाहर के स्थानों से भी भक्तगण आते रहते थे। सत्संग भी पहले की अपेक्षा अब अधिक खुलकर होता था। मैं दिन में कई बार दर्शनों के लिए जाता था। परन्तु श्री महाराज जी की कुछ बातों का उल्टा सुल्टा अर्थ लगाने के कारण आपके प्रति मेरी श्रद्धा कुछ शिथिल हो चुकी थी। एक दिन आपने कोई ऐसी बात कही जिससे मैंने समझा कि बाबा अपने प्रति मेरी बड़ी श्रद्धा समझते है। मुझे उन दिनों सत्य का बड़ा आग्रह था। अतः मेरे मन में यह हुआ मुझे किसी प्रकार बाबा के प्रति अपनी श्रद्धा की शिथिलता प्रकट कर देनी चाहिए। इसी उद्देश्य से मैंने आपसे पूछा - महाराज जी! क्या आपने कोई ऐसे महात्मा देखे हैं जिन्हें निर्विकल्प समाधि हो गयी हो।

टिप्पणी - (इससे मेरा तात्पर्य यह था कि मैं आपकी तो ऐसी स्थिति नहीं समझता।)

महाराज जी - हाँ देखे हैं, परंतु तुम विश्वास कैसे करोगे? देखेा भैया! जब तक तुम्हारी किसी एक महापुरूष में पूर्ण श्रद्धा नहीं होती, तब तक तुम्हारा मार्ग नहीं खुल सकता।

मैं - महाराज जी ! यह तो मैं भी समझता हूँ कि यदि किसी पामर के प्रति भी मेरा ठीक ठीक गुरूभाव हो जाय तो भी मेरा कल्याण हो सकता है। परन्तु यह बात मेरे वश की तो नहीं है।

महाराज जी - सो तो ठीक है।

एक दिन भक्त जी के साथ आपका कुछ सत्संग हो रहा था। प्रसंग वश उन्होंने कहा - महाराज जी ! ज्ञान का प्रधान साधन तो विचार है। परन्तु मुन्नीलाल का तो यह आग्रह है कि बिना निर्विकल्प समाधि हुए ज्ञान हो नहीं सकता । आप इन्हें इस विषय मंे कुछ समझाने की कृपा करें।

मैं - महाराज जी ! मैं तो यह समझता हूँ कि ज्ञान कोरी बात बनाने से नहीं हो सकता। जब तक मुरदे या सिर कटा का स्वांग न हो तब तक ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती।

महाराज जी - अरे, ज्ञान क्या किसी को होता है? आज तक सृष्टि में क्या कोई ज्ञानी हुआ है? (भक्त जी से) भक्त जी! तुम इस बात पर ध्यान देना। श्री महाराज जी की यह गूढ़ोक्ति उस समय मेरी समझ में कुछ नहीं आई। इसके पश्चात और भी कुछ बातें र्हुइं, परंतु अब वे मुझे स्मरण नहीं हैं।

इसी प्रकार प्रायः पन्द्रह दिन तक हम लोग श्री महाराज जी के सत्संग का आनन्द लेते रहे। मैंने दो एक बार अपने लिए कोई साधन पूछा, परन्तु आप टाल ही करते रहे। अब गुरू पूर्णिमा आई। खुर्जा में श्री महाराज जी की केवल यही गुरू पूर्णिमा हुई है। अभी भक्त परिकर बहुत नहीं बढ़ा था। अनूप शहर, रामघाट, हाथरस और बुखूपुरा के पच्चीस तीस भक्तगण बाहर से आये थे। आप नित्यप्रति प्रातः काल सिद्धेश्वर महादेव पर चले जाते थे। वहीं पूजनादि का निश्चय हुआ। और इसके पश्चात् वहीं सबके लिए प्रसाद की व्यवस्थ की गयी। श्री भक्त जी के यहाँ से सब लोगों के लिए पक्का भोजन बनकर आ गया और मैंने कुछ आम मंगा लिए। मैं सबेरे ही सिद्धेश्वर पहँुच गया था। इन दिनों नीम करौरी के महात्मा भी खुर्जा आए हुए थे। उनकी सिद्धियों की कुछ प्रसिद्धि थी। वे भी इस समय सिद्धेश्वर पर ही थे। श्री महाराज जी उनसे कुछ बातें करते रहे।

भक्त जी की आज विचित्र अवस्था थी। वे घर से तो सिद्धेश्वर के लिए ही चले किन्तु मार्ग में भाव मग्न हो जाने के कारण रास्ता भूल कर दूसरी ही ओर निकल गये। जब चेत हुआ तो लौट कर निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचे।

वे तालाब के किनारे एकान्त मे श्री महाराज जी को अपनी वे सब बातें सुना रहे थे। इसी समय मैं भी वहाँ पहुँच गया। बस, अपनी बात समाप्त करके उन्होने श्री महाराज जी से कहा - भगवन् ! इस मुन्नी ने मुझे बहुत ग्रन्थ सुनाए हैं। आप कृपा करके इसे भी कोई साधन बताइए। ऐसा कहकर वे उठ गये और अब वहाँ मैं और श्री महाराज जी ही रह गये।

1. मेरे घर का नाम।

2. मुर्दे का स्वांग अर्थात् निर्विकल्प समाधि और सिर कटा का स्वांग अर्थात् भगवद्विरह असाध्य होने पर सिर काटने के लिए तैयार हो जाना।

आज मेरा भाग्योदय हुआ। मैंने इतने दिनों से कई बार श्री महाराज जी से अपने लिए कोई साधन पूछा था परंतु वे बराबर टाल ही करते रहे। इसका क्या कारण था सो तो वे ही जानें। आज बोले ,‘‘मेरे विचार से तुम्हारी प्रवृत्ति साकारोपासना में नहीं हो सकती। तुम्हारी बुद्धि तर्क प्रधान है। इसके लिए तो तो शुद्ध श्रद्धा की आवश्यकता है, सो, रूप और नाम में तो तुम्हारी श्रद्धा हो सकती है किन्तु लीला और धाम मंे होनी कठिन हैं। तुम तो गीता के इस श्लोक पर विचार किया करो -

अच्छेद्यो ऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।

नित्यः सर्वंगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।। (गीता 2/24)

इसके लिए द्रष्टा और दृश्य का विवेक होना परम आवश्यक है। देखो, जिस प्रकार तुम संसार की सब चीजों को देखते हो, उसी प्रकार इस शरीर को भी देखते हो। इसी तरह मन के संकल्प विकल्प, बुद्धि के निश्चय और सुख दुखादि भी तुम्हारे दृश्य ही हैं। और यह नियम है कि दृश्य से द्रष्टा सर्वथा भिन्न होता है। अतः तुम शरीर एवं बुद्धि आदि सभी से भिन्न हो। इसलिए इनके किसी भी व्यापार से तुम्हारा लाभ नहीं हो सकता। बस तुम उठते, बैठते, चलते-फिरते हर समय अपने को इससे असंग देखा करो। तुम्हारा यह अभ्यास इतना दृढ़ हो जाना चाहिए कि जिस प्रकार तुम घडे़ को अपने से भिन्न देखते हो, उसी प्रकार तुम्हें यह शरीर भी दिखाई दे। मैं - महाराज जी, जब इस प्रकार शरीर अपने से भिन्न दिखाई देने लगेगा तब तो कोई इसे काटे कूटेगा तो उसमें भी कोई उद्वेग नहीं होगा। महाराज जी - हाँ दृढ़ अभ्यास होने पर तो ऐसा ही होगा। तुम अभी यही अभ्यास करो। जब इसमें तुम्हारी कुछ स्थिति हो जायगी तब तुम्हें और भी साधन बताया जायेगा। फिर तो तुम्हें यह सारा विश्व आकाश में बादल के समान सर्वथा असत् और अपनी ही दृष्टि का विलास जान पडे़गा।

बस, आज गुरू पूर्णिमा को यही श्री महाराज जी ने मुझे प्रथम दीक्षा दी। परन्तु यह बात तो मुझे बड़ी कठिन सी जान पड़ी। मैं तो कोई ऐसी युक्ति चाहता था जिस से भगवान में मेरा प्रेम बढ़ जाता और मुझे भी अश्रुपात अािद सात्विक भाव होने लगते। इतने ऊंचे साधन का तो मैं अपने को अधिकारी नहीं मानता था। परन्तु यह तो मेरी समझ थी। शिष्य के यथावत अधिकार को तो तत्वदर्शी गुरूदेव ही जानते हैं।

अस्तु! इसके पश्चात् सब लोगों ने श्री महाराज जी का पूजन किया, फिर पंक्ति में बैठकर एकसाथ प्रसाद पाया। और कुछ देर विश्राम करके वहाँ से हरसहाय मल के बाग को लौट आए। दोपहर पश्चात् मैं श्री भक्त जी के घर गया। उन्होंने पूछा क्यों, श्री महाराज जी ने तुम्हें कोई साधन बताया? मैंने सब बातें सुनाकर कहा - ‘‘साधन तो बताया, परंतु मुझे तो यह अपनी योग्यता से परे जान पडता है।’’ भला जब मैं अपने को शरीरादि से परे अनुभव करने लगूंगा तो और शेष ही क्या रहेगा। अभी मेरी ऐसी योग्यता कहाँ है? मैं तो चाहता था - कोई भजन की युक्ति बता देते। भक्त जी -हाँ बात तो ठीक है। अब तुम महाराज जी से फिर प्रार्थना करो कि भगवन, यह तो बहुत ऊँची बात है। मुझे तो आप कोई भजन करने की सरल सी युक्ति बताइये। मैं - अब तो उनसे पुनः कुछ कहने की मेरी इच्छा नहीं होती। इतनी बार पूछने पर तो उन्होंने यह बताया है।

इस प्रकार अब और कोई बात पूछने की ओर से मैं निराश हो गया। इसके कुछ देर पश्चात् मैं बाजार की ओर गया। जब मैं बाजार में चल रहा था उस समय अकस्मात मेरी मनो वृत्ति समाहित हो गयी और मुझे ऐसा लगने लगा मानो शरीर स्वयं ही चल रहा है और मैं उसे तटस्थ रूप से देख रहा हूँ। इस विचित्र अवस्था में मुझे बडी ही निश्चिन्तता और शान्ति का अनुभव हुआ तथा ऐसा जान पड़ा कि यदि यह दृष्टि बनी रहे तो फिर कुछ भी हुआ करे, उसकी मुझे क्या परवाह। बस इतने ही से मुझे यह निश्चय हो गया कि यह साधन मेरे लिए ठीक है, मुझे इसका अभ्यास करना चाहिये।

श्री महाराज जी दूसरे दिन प्रातः काल ही खुर्जा से जाने वाले थे। अतः रात्रि मेें मैं बहुत देर तक उन्हीं के पास रहा। जब सब लोग चले गये तो मैंने उन्हें सब बातें बताई और इस विषय में मेरे मन में जो अन्य शंकाये थी उनका भी समाधान कराया।

इस प्रकार श्री महाराज जी के साथ मेरे सम्पर्क का सूत्र पात हुआ। फिर तो मैं उनके पास बार बार जाने लगा और कुछ ही दिनों में वे ही मेरे एक मात्र पथ प्रदर्शक हो गये। मैं व्यवहारिक और पारमार्थिक सभी विषयों में उनसे सलाह लेता था और यथा सम्भव उनकी आज्ञा का अनुसरण करता था। मेरा भावी जीवन तो उन्हीं का कृपा प्र्र्र्रसाद है। इसमें जो कुछ विकास हुआ है, वह सब उन्हीं की देन है और जितनी त्रुटियाँ हैं वह मेरे प्रमाद आलस्य और अश्रद्धा के परिणाम हैं। मेरा चित्त आरम्भ से ही बड़ा नीरस है।

श्री महाराज जी कहा करते थे, ‘‘तेरा चित्त सूखी लकड़ी की तरह है, इसमें द्रवता की बहुत कमी है। साधक का चित्त तो जतु (लाख) की तरह होना चाहिए, जो साधन की आँच लगते ही पानी की तरह पिघल जाय और विषयों की ठंड के सामने काठ की तरह कड़ा हो जाय।’’ परन्तु उन्होंनें इस सूखी लकड़ी का भी सदुपयोग कर लिया। उनके सदुपदेशों के औजारों ने इसे पादुकाओं के रूप में घड़ दिया, जिससे इसे भी उनके चरणों में स्थान मिल गया। शरण में आने पर भला महापुरूष किसे आश्रय नहीं देतें।

नौकरी नहीं किए

अब आप घर पर ही काम धन्धे की फिक्र में लगे। उस समय देश में अंग्रेजों का शासन था। नेता तथा उत्साही युवक देश स्वतन्त्रता हेतु सरकारी नौकरियों का बहिष्कार कर रहे थे। आप भी इसीलिए सरकारी नौकरी करने के पक्ष में नहीं थे। साथ ही यह भी निश्चय था कि ऐसा कोई काम नहीं करना है जो असत्य युक्त अथवा धर्मविरूद्ध हो।

आपके मामा श्री ज्वाला प्रसाद जी मित्तल दिल्ली में आडिट आफिस में उच्च अधिकारी थे। उनके नीचे दो नए पद बने थे। जिनकी पूर्ति का अधिकार उनको था। उन्होंने आपको उस पर (सन् 1925 के लगभग) सत्तर रूपया मासिक पर रखना चाहा, किन्तु आपने उसे अस्वीकार कर दिया।

मित्तल जी बाद में जयपुर स्टेट में डिप्टी एकाउन्टेन्ट जनरल के पद पर कार्य किये थे। वहाँ उनका मकान अब भी मौजूद है। इस प्रकार अभाव की स्थिति में उपलब्ध सहायता को ठुकराकर आपने अपने निश्चय की दृढ़ता का परिचय दिया था।

दाल का कारखाना

समय और परिस्थिति को देखते हुए आपने अरहर की दाल का कारखाना खोला स्वयं कार्य का अनुभव न होने से एक अनुभवी व्यक्ति की आवश्यकता हुई। इसके लिए आपने खुर्जा के श्री गिरवर मल उर्फ भगत जी को चुना। उन्हें चौथाई का हिस्सेदार बनाकर अपने काम पर लगाये। गिरवर मल जी पर कुछ कर्ज था। उन्होंने सोचा कि हिस्सेदार की हैसियत से रहने पर लोग समझेंगे कि मेरे पास पैसा है, और मांगने आयेंगें तब मैं कहाँ से दूंगा। इस लिए उन्होेंने आप से कहा - मैं एक करार आपको लिखकर देता हूँ। जिससे यह सिद्ध होगा कि मैं आपके यहाँ नौकरी कर रहा हूँ। इससे मैं लोगों के तकाजों से बच जाऊँगा। कार्य के प्रारम्भ में ही उपस्थित यह असत्य व्यवहार आपको अप्रिय लगा। आपने उन्हें समझाकर कहा - जैसा आप लिखकर देना चाहते हैं, उसके अनुसार तो नौकरी ही कीजिए, असत्य का आश्रय लेना ठीक नहीं हैं। यदि भागीदार रहना चाहते हैं तो वैसे रहिये, झूठा इकरार मैं नहीं लिखवाऊँगा। फिर 25 रू. मासिक पर उन्हें नौकर रखकर काम चलाए। ऐसी थी आपकी सत्य निष्ठा।

एक महात्मा से सत्संग

पहले तो आपका श्री ठाकुर जी में प्रेम था बाद में वह प्रेम हिन्दी, हिन्दुस्तान और साहित्य के प्रति हो गया। विद्यार्थी जीवन से अलग होने पर आपमें जिज्ञासा जगी। उस समय ऐसा विचार होता कि यदि भगवान कृष्ण भी आकर गोद में बैठ जायें तो भी यदि मैंने अपने को नहीं जाना तो उससे क्या लाभ?

आप जब दाल का कारखाना चला रहे थे, उन्हीं दिनों की बात है, आप सायंकाल कारखाने से घर आ रहे थे, रास्ते में एक स्थान पर एक महात्मा का प्रवचन हो रहा था। आप भी सुनने लगे। उनमें आपको स्वामी रामतीर्थ की भावना हुई। आपने उनसे पूछा - आप हमारे कारखाने में आ सकते है? उन्होंने कहा - कल आऊंगा। दूसरे दिन महात्मा जी वहाँ गये और पूछा- बोलो क्या चाहते हो? आपने कहा - ऐसा तो मुझे मालूम होता है कि यदि त्रिलोकी का राज्य भी मिल जाय तो भी मन को शान्ति नहीं मिलेगी, लेकिन कैसे मिलेगी यह नहीं जानता हूँ।

महात्मा जी ने कहा - हो जायेगा, वह भी हो जायेगा। वहाँ कुछ देर ठहर कर महात्मा जी वापस निवास स्थान पर आ गये।

व्यापार में घाटा

सन् 1925-26 ई. में आपके यहाँ व्यापार मंे काफी घाटा लगा। हापुड़ में सट्टा चलता था, उसमें सब कुछ समाप्त हो गया। आर्थिक स्थिति एकदम गिर गयी थी। परिवार पर बीस हजार रू. कर्ज हो गये थे। सब लोग चिन्तित थे, एक ही झटके में सब कुछ बदल गया था। आपके पिता जी ने बहुत ही बुझे हुए स्वर में कहा - क्या अब फिर पहले जैसी स्थिति होगी?

आपने कहा - सड़क पर भीख मांगने वाले बैठे रहते हैं, वे भी आदमी हैं। अपनी स्थिति अभी इतनी दयनीय तो नहीं हुई है। राजा हरिश्चन्द्र जैसा वैभव तो अपने पास था भी नहीं और चाण्डाल के घर नौकरी करने जैसी स्थिति आई नहीं है। इसलिए विशेष दुखी होने की बात नहीं है।

एक सेठ जी के आप पर सात हजार रू. कर्ज थे। उन्होंने एक दिन आपको बुुलाकर कहा - मेरे रूपयों का क्या होगा, क्या विचार है? आपने कहा - देखो जी, रूपए का लेन देन तो पिताजी करते हैं, उनसे ही बात करलो। हाँ यदि जेल करानी हो तो मेरी करा देना। इस प्रकार संकट के क्षणों में धैर्य और साहस आपके साथी रहे। जो बहुत कम लोगों में पाये जाते हैं।

स्वाध्याय

समय-समय पर शास्त्रांे के मनन चिन्तन तथा सत्संग से आपके द्वारा जो उद्गार व्यक्त हुए वे इस प्रकार हैं-

1. सारे साधन दृष्ट दुख की निवृत्ति के लिए हैं। मोक्ष स्वतः सिद्ध है यह बात सदा याद रखो।

2. तुम्हें कर्तव्य पालन में ही सन्तोष होना चाहिए। फल न तुम्हारे हाथ में है और न तुम्हंे उसकी जरूरत है।

3. सभी उपाधियों में तुम्हारी समान दृष्टि होनी चाहिए। एक के प्रति राग और अन्यों के प्रति वैराग्य - यही अज्ञान का स्वरूप है।

4. जो आनन्द सभी स्थितियों से बाहर है, वही तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिए। इससे सभी स्थितियां सन्तोष प्रद हो जायेगी।

5. सभी प्रकार की चाह दीनता उत्पन्न करती है। चाह का अभाव ही सबसे बड़ा सुख है। (23-6-32)

6. कभी कभी माया बड़े मनोहर और मधुर वेष से ठगती है। अतः सदा सावधान रहो। अपने लक्ष्य और संसार की असलियत को कभी मत भूलो। सावधान रहो! कहीं लोक सेवा के रूप में आने वाली लोकैषणा के ही शिकार न हो जाओ।

7. चित्त के गुण-दोषांे पर दृष्टि दोगे तो उन से कभी छुटकारा नहीं मिलेगा। क्योंकि यह तो बना ही गुण-दोषों से है। इसकी ओर दृष्टि न देकर अपनी ही ओर देखो। अपनी ओर देखते रहने पर यह स्वयं मर जायेगा। इसका मर जाना ही इसका गुण-दोष से मुक्त होना है।

8. भाई! सोचो तो, इस भव सरिता के प्रवाह में पड़कर बहती हुई तुम्हारी देह रूपी लकड़ी का क्या मूल्य है? तुम्हारे काम भी यह कितने दिन आएगी। इसलिए व्यर्थ अपने व्यक्तित्व को बहुत मूल्य मत दो। छोटे ‘‘मैं’’ से निकलकर बडे़ ‘‘मैं’’ में डेरा लगाओ। (24-12-32)

9. साक्षात्कार के लिए तीन बातों पर ध्यान रखना चाहिये -

1. बाह्य विषय वैमुख्य पूर्वक लक्ष्योन्मुखता।

2. एकाग्रता और

3. परिचय (यही मुख्य है)

10. शारीरिक सुख-दुख बोधवान के लिए इतने बाधक नहीं है, जितना निन्दा स्तुति जन्य क्षोभ है। क्योंकि वह अविवेक जनित नहीं होता है, और इसमें अविवेक रहता है। शारीरिक सुख-दुख तो विवेक में सहायक हैं, किन्तु निन्दा-स्तुति जनित क्षोभ उसका बाधक है।

गीता प्रेस में सेवा

परिस्थिति वश आपने कहीं उपयुक्त स्थान पर सेवा कार्य करने का विचार किया। और श्री धर्मेन्द्र नाथ जी तर्क शिरोमणि को अपनी इच्छा बताई। उन्होंने कहा - आप गीता प्रेस में सेवा करें- यह आपकी रूचि और स्वभाव के अनुकूल रहेगा। आपने कहा - बिना पूर्व परिचय के वे लोग मुझे कैसे रखेंगें। शिरोमणि जी ने कहा - परिचय तो मुझसे भी नहीं है, किन्तु वे लोग मेरे पास कल्याण पत्रिका निःशुल्क भेजते हैं, इससे मालूम होता है कि वे लोग मुझे जानते हैं। मैं उन्हें इस संबंध में पत्र लिखता हूँ। शिरोमणि जी के पत्र व्यवहार का उचित परिणाम हुआ। गीता प्रेस वालों ने आपको भेजने के लिए लिख दिया और आप वहाँ पहुँच गये। वहाँ आपको अपने घर जैसा वातावरण प्राप्त हुआ। गीता प्रेस का सम्पादकीय विभाग उन दिनों गोरखनाथ मन्दिर के बगीचेे में था तथा भाई जी (श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार और श्री गौरीशंकर जी द्विवेदी दो ही सम्पादकीय विभाग में सदस्य थे)। आपके पहँुचने पर सम्पादकीय विभाग में अब तीन सदस्य हो गये।

आपने घर पर रहते हुए ही भगवान श्री शंकराचार्य की पुस्तक विवेक चूडामणि का अनुवाद प्रारम्भ किया था। कुछ अंश ही शेष था कि आप गीता प्रेस में गोरखपुर आ गये थे। यहाँ आकर आपने आचार्य की दूसरी पुस्तक ‘प्रबोध सुधाकर’ का अनुवाद किया। यह भक्ति प्रधान ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न 257 श्लोंको का अद्भुद ग्रन्थ है जिसमें जीवात्मा को उद्बोधन है।

कुछ समय पश्चात् आपने विवेक चूड़ामणि के अवशिष्ट अंश को पूरा करके और यह कहकर कि पहले किसी विद्वान से इसका संशोधन करालें, प्रेस में छपने के लिए दे दिया। पुस्तक छप गयी किन्तु प्रथम प्रयास होने के कारण कुछ अशुद्धियां रह गयी थीं जिनकी ओर विजनौर के पंडित श्री राम अवतार शर्मा ने ध्यान दिलाया था। दूसरे संस्करण में उसे सुधार दिया गया। इस घटना से आप अनुवाद के प्रति अधिक सजग हो गये। तत्पश्चात आपने आचार्य श्री की लघु कलेवर किन्तु संर्वांग पूर्ण पुस्तक ‘अपरोक्षानुभूति’ का अनुवाद किया। इस पुस्तक में कुल 144 श्लोंकों में ही विचार की प्रचुर सामग्री उपलब्ध है।

इस प्रकार एक ही वर्ष में अर्थात् विक्रम संवत् 1988 में आचार्य के तीन ग्रन्थों का सुन्दर अनुवाद गीता प्रेस से प्रकाशित हुआ। जिसे साधकों जिज्ञासुओं और विद्वानों ने सराहा। इससे आपका उत्साह वर्द्धन हुआ और संस्कृत के श्रेष्ठ ग्रन्थों का अनुवाद करने की योग्यता निरन्तर बढ़ती गयी।

अध्यात्म रामायण

ब्रह्माण्ड पुराण के अन्तर्गत ‘रामायणी कथा’ नाम से चार सहस्र श्लोकों का एक प्रकरण है जिसमें सम्पूर्ण रामकथा विशद रूप से वर्णित है। पदे पदे प्रसंग उठाकर अध्यात्म तत्व का सुन्दर विवेचन किया गया है। इसीलिए इसे ‘अध्यात्म रामायण’ कहते हैं। भगवान व्यास की इस कृति के वक्ता भगवान शिव और श्रोता भगवती पार्वती हैं। श्री रामचरित मानस का भी अधिकांशतः कथा भाग इसी से लिया गया है। इसका उपदेश भाग भी बहुत सुन्दर है।

जब आप इसका अनुवाद सं0 1988 में कर रहे थे, उन्हीं दिनों पत्र द्वारा पत्नी के बीमार होने का समाचार मिला। आपने यह कहकर कि मैं वहाँ रहते हुए भी अनुवाद कार्य कर लूंगा, जाने की अनुमति मांगी। अनुज्ञा मिलने पर आप अपने घर आए और शेष अनुवाद वहीं रह कर पूरा किया तथा प्रकाशनार्थ गीता प्रेस को भेज दिए। यह ग्रन्थ संवत् 1989 में पहली बार प्रकाशित हुआ। दो तीन महीने बीमार रहकर पत्नी ने शरीर छोड़ दिया। इनसे आपके दो पुत्रियां हुई थी किन्तु एक जन्म के दो माह पश्चात् और दूसरी साढ़े तीन माह पश्चात् स्वर्ग सिधार गयी थी। पत्नी ने भी सन् 1939 में साथ छोड़ दिया । आपने दूसरे विवाह का प्रसंग चलने पर स्पष्ट रूप से मना कर दिया। भगवान स्वयं में अनुरक्ति के लिए संसार से विरक्ति के साधन स्वयं जुटाने लगे थे।

विष्णु पुराण

श्री पराशर ऋषि द्वारा विरचित विष्णु पुराण ग्रन्थ में अन्य विषयों के साथ-साथ भूगोल ज्योतिष कर्मकाण्ड, राजवंश और श्री कृष्ण चरित आदि कई प्रसंगों का बड़ा ही अनूठा और विशद वर्णन किया गया है। भक्ति और ज्ञान की प्रशान्त धारा तो इसमें सर्वत्र ही प्रच्छन्न रूप से बह रही है। संस्कृत में इस पर विष्णुचित्ति और श्रीधरी दो ही टीकाएं हैं। किन्तु हिन्दी में कोई अविकल अनुवाद उपलब्ध न होने से आपने इसके अनुवाद के लिए कलम उठाया और कुछ महीनों में ही एक सर्वांग सुन्दर अनुवाद प्रकाशनार्थ प्रस्तुत कर दिया। देखा जाय तो यह ग्रन्थ श्रीमद् भागवत का आधार भूत है। क्योंकि इस ग्रन्थ के प्रायः अधिकांश प्रसंगों का श्रीमद् भागवत में विस्तार से व्याख्यान किया गया है। भगवान श्री शंकराचार्य ने भी अपने भाष्य ग्रन्थों में प्रमाण रूप से इसके बहुत से श्लोक उद्धृत किए हैं। इसका अनुवाद सं0 1989 से आरम्भ होकर सं0 1990 में पूर्ण हुआ और उसी वर्ष प्रकाशित भी हो गया। इसे लोगों ने बहुत पसन्द किया। कल्याण के माध्यम से महाभारतांक प्रकाशित हुआ। उसके अनुवाद में भी आपका कुछ हाथ था।

आप प्रायः ऋषिकेश, शिमला, कसौली आदि पहाड़ी स्थलों पर रहकर ही अनुवाद कार्य करते थे। जिस ग्रन्थ का पारिश्रमिक दूसरे प्रकाशक से ले लेते या जितने दिन गीता प्रेस का काम नहीं करते उतने दिन का वेतन कहकर कटवा देते। आपकी इस ईमानदारी के कारण ही आपको बाहर रहने की छूट थी।

आप द्वारा श्री वाल्मीकीय रामायण का सुन्दरकाण्ड, श्री शंकराचार्य की उपदेश साहस्री तथा गोस्वामी तुलसीदास जी की दोहावली अनुवादित होकर भार्गव प्रेस वाराणसी से प्रकाशित हुई थी।

आप के अनुवादों में मूल की रक्षा तथा भावार्थ का स्पष्टीकरण कम शब्दों में जिस प्रकार हो जाता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। इसीलिए विद्यार्थी तथा विद्वान सभी उसे विशेष आदर देते हैं।

उपदेश साहसी - भगवान शंकराचार्य ने भाष्यों के अतिरिक्त जिन प्रकरण ग्रन्थों की रचना की है उनमें उपदेश साहस्री निःसन्देह सर्वाेत्कृष्ट है। श्री आनन्द गिरिस्वामी ने जिस प्रकार सम्पूर्ण शांकरभाष्यों पर टीका लिखी है उसी प्रकार उपदेश साहसी पर भी लिखी है। इससे यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ रत्न भगवान आदि शंकराचार्य की ही कृति है। इसके गद्य और पद्य भेद से दो भाग हैं। गद्य भाग में अधिकारी शिष्य को ब्रह्म विद्या के उपदेश की विधि प्रदर्शित की गयी है। पद्य भाग में उन्नीस प्रकरण हैं। उनमें वेदान्त की प्रक्रिया का बड़ा गम्भीर विवेचन किया गया है। इस ग्रन्थ में प्रक्रिया का विशेष विस्तार नहीं है। वेदान्त वेद्य वस्तु का ही औपनिषद शैली मंे गम्भीर विवेचन है। अतः श्रवण की अपेक्षा मनन और निदिध्यासन में ही यह ग्रन्थ विशेष उपयोगी है।

स्वाध्याय

श्रावण शुक्ल 1 सं0 1992

याद रखो, ज्ञान निष्ठा चित्त की एकाग्रता में नहीं है। भारी से भारी आपत्ति आने पर यदि तुम हँस पड़ते हो तो इसी को आत्म ज्ञान नहीं कहते। तुम हँसो, रोओ, डर जाओ, मर जाओ, कोई चिन्ता नहीं। आपत्ति में हँसना विवेकाभिमान को लेकर भी हो सकता है। आत्म निष्ठा इन सब अवस्थाओं से अलग है। वह तो प्रपन्च के अत्यन्ताभाव बोध में ही है। विवेकी को आपत्ति से डरने का भय होता है, इसलिए वह हँसता है, बोधवान को उस भय का भी भय नहीं होता इसलिए वह भय से कांपते हुए भी निर्भय है। अत्यन्त विक्षिप्त रहते हुए भी सर्वथा विक्षेप शून्य है तथा अत्यन्त संशयात्मक प्रतीत होने पर भी सर्वथा असंग है। यह अवस्था स्व संवेद्य है। दूसरा इसे किसी प्रकार नहीं जान सकता। तुम्हारी दृष्टि इसी ओर होनी चाहिए।

यह तो निश्चित ही है कि इस दृश्यमान प्रपन्च का मूल कारण कोई एक वस्तु होनी चाहिए। परम कारण अनेक होना सर्वथा असंभव है। उसके विषय में दो मत हैं। ‘‘उपासक प्रपन्च को उसका परिणाम मानते हैं और वेदान्ती विवर्त।’’ इनमें परिणाम वाद किसी प्रकार संगत नहीं हो सकता। इसमें सबसे बड़ा दोष यह है कि जो वस्तु अन्य रूप में परिणत हो जाती है वह अपने पूर्व रूप में कभी नहीं आ सकती। जैसे दूध का परिणाम दही-दुग्ध रूप में कभी नहीं आ सकता। इसलिए यदि परिणाम वाद माना जायेगा तो जगत का मूल कारण अनित्य सिद्ध होगा। यदि कहो कि सुवर्ण का आभूषण रूप से और मृतिका आदि का घटादि रूप से परिणाम देखा जाता है और वे अपने पूर्व रूप में स्थित हैं ही तो ऐसा कहना उचित नहीं क्योंकि वहाँ तात्विक सुवर्ण अथवा तात्विक मृतिका का परिणाम नहीं होता केवल उनके आकार का परिणाम होता है। इसी प्रकार यदि जगत के मूल भूत ब्रह्म का भी कोई आकार माना जाय तो उसके आकार का परिणाम जगत हो सकता है। इसीलिए परिणाम वादी उपासक ब्रह्म को सगुण मानते हैं। सगुण ब्रह्म मंे ही विशिष्टाद्वैत वाद, द्वैताद्वैत वाद, शुद्धाद्वैत वाद और द्वैत वाद सम्भव हो सकते हैं। इन्हें समझने के लिए नीचे का दृष्टान्त ध्यान में रखना चाहिए।

हमारे सामने एक पीतल का लोटा है। जिनकी दृष्टि में पीतल ही लोटा के रूप में परिणत हुई है। वह शुद्धाद्वैती हैं। जो आकार को शुद्ध पीतल से अलग मानते हैं और उसे केवल आकार का ही परिणाम मानते है, वे द्वैत वादी है। और जो कार्य दृष्टि से आकार को पीतल से भिन्न किन्तु कारण दृष्टि से उससे अभिन्न मानते है वे द्वैता द्वैती हैं। यह तो परिणाम वादियों की दृष्टियाँ है। विवर्त वादियों की दृष्टि केवल तत्व पर है। वे आकार को केवल उसमें कल्पित मानते हैं। कल्पित भी इस लिए मानते हैं कि उसकी और उसके कार्यों की प्रतीति होती है। इसलिए उनकी दृष्टि तत्व प्रधान है। किन्तु इन सबसे अलग तत्व की अपनी दृष्टि है। उसमें आकार का और उसके कार्यों का अत्यन्ताभाव है। पीतल की दृष्टि से लोटे का, जल की दृष्टि से तरंग का , स्वर्ण की दृष्टि से आभूषण का, मृतिका की दृष्टि से घट का त्रिकाल मंे प्रादुर्भाव नहीं हुआ है। यह अजात वाद है। इसमें प्रतीति का भी अभाव है। इसी प्रकार ब्रह्म वेत्ता की दृष्टि में जगत का अभाव है। ब्रह्म वेत्ता की दृष्टि ब्रह्म की दृष्टि है। इसलिए ‘‘ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति’’ यह श्रुति सार्थक है। किन्तु इस विचार से इतना तो निश्चय होता है कि विभिन्न दृष्टियों से सभी वाद ठीक हैं। दृष्टिकोण के भेद के कारण एक निर्विकल्प ब्रह्म में इन सभी वादों की कल्पना हुई है।

1. साधक कभी दूसरों के व्यवहार की ओर नहीं देखता है। जो दूसरों को देखकर चलता है और स्वार्थ साधन ही जिसका लक्ष्य है, वही संसारी है। और जो अपने कर्तव्य का निष्काम भाव से पालन करता है तथा भगवान जिसका लक्ष्य हैं, वहीं साधक है। लोग उसे मूर्ख कहें या पागल, उसे इसकी कब परवाह होती है। पहले जो मूर्ख कहलाता है उसी की पीछे पूजा होती है। परन्तु साधक न मूर्ख कहलाने से संकुचित होता है और न पूजा कराने की इच्छा रखता है। संग का असर संसारी पर होता है। साधक तो एक प्रौढ शिला के समान है जो बरसाती तूफानी नदी के तल पर पड़ी होती है। उसके ऊपर निरन्तर जल की धारा प्रवाहित होती रहती है। परन्तु वह टस से मस नहीं होती। जिस की धर्म में अटूट आस्था नही है वह साधन में कब सफल हो सकता है।

श्री उडिया बाबा के सत्संग में

श्रावण कृष्ण 3 सं0 1989

जहाँ तक हो ब्रह्माकार वृत्ति को ही बढ़ाना चाहिये। वृत्ति के बढ़ने से निद्रा-तन्द्रा आदि दोष स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं। आसन भी वृत्ति की स्थिरता होने से स्वयं ही स्थिर हो जाता है।

समाधि हमारा लक्ष्य नहीं होना चाहिए। समाधि में परमार्थ बुद्धि होना भी अज्ञान का ही चिन्ह है। चिन्तन करते करते समाधि अपने आप ही होगी। नहीं भी हो तो कोई चिंता की बात नहीं है। किन्तु भगवच्चिन्तन के बजाय समाधि पर मुख्य दृष्टि होना असदाभिनिवेश है।

चिन्तन के बढ़ने के साथ ही आसनादि से बैठने की प्रवृत्ति होना स्वाभाविक है। उसका बढना अच्छा ही है। परन्तु आसन या समाधि का संकल्प नहीं होना चाहिए। संकल्प तो ब्रह्माकार वृत्ति का ही होना उचित है। चिन्तन के समय असंगता की ही भावना करनी चाहिये। जगत की असत्ता तो विचार से सिद्ध ही है। उसकी भावना करने की आवश्यकता नहीं है। प्रथम इष्ट वस्तु में आसक्ति होती है, तत्पश्चात् भाव होता है और फिर प्रेम की प्राप्ति होती है। प्रेम ही को समाधि कहते हैं। उस समाधि के अनन्तर जो चिन्तन किया जाता है उसी का नाम ‘जीवन्मुक्ति’ है।

त्रिभुवन विभव हेतवे ऽप्यकुण्ठ स्मृतिरजितात्म सुरादिभिर्विमृग्यात्।

न चलति भगवत पदारविन्दाल्लव, निमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्रयः।।

धीरो न द्वेष्टि संसारमात्मानं न दिदृक्षति।

हर्षार्म्षविनिर्मुक्तः संसारे नाव सीदति।।

स आत्मा सर्वगो राम नित्योदित महावपुः।

यन्मनाक् मननी शक्तिं धत्ते तन्मन उच्यते।।

भावार्थ - धीर पुरूष न संसार से द्वेष करते हैं और न आत्मा या शरीर को ही देखते हैं। हर्ष और अमर्ष से मुक्त रहने के कारण संसार में व्यथित नहीं होते। वसिष्ठ जी कहते हैं - हे राम ! वह आत्म तत्व नित्य, प्रकाश स्वरूप विराट है। तथा सर्वत्र गमनशील है। जो मन की मनन करने की थोडी भी शक्ति को धारण करते हैं उन्हें मनस्वी कहते हैं अथवा मनन करने की शक्ति के कारण उसे मन कहते है।

श्रावण कृष्ण 4 संवत् 1989

श्रुति कहती है कि ब्रह्मवेत्ता से सम्पूर्ण चराचर जीव प्रेम करने लगते हैं। इसका कारण यह है कि उसका किसी से भी राग या द्वेष नहीं रहता, क्योंकि उसकी दृष्टि शरीरादि अनात्म पदार्थों से उठ जाती है। और वह सम्पूर्ण जगत को अपना आप ही समझता है। उसकी दृष्टि सदा ‘‘दृष्टि सृष्टि वाद’’ पर रहती है। वह समझता है कि सारा जगत मेरी ज्ञान दृष्टि का ही चमत्कार है। इसलिए उसका किसी से भी राग या द्वेष नहीं होता। परन्तु यह दृष्टि-सृष्टि वाद अभ्यास की चीज नहीं है। पूर्ण असंगता का अभ्यास करते करते अपने को पूर्णतया असंग अनुभव करने लगने पर यह दृष्टि स्वयं सिद्ध हो जाती है। क्योंकि उस समय सूक्ष्म स्थूल शरीर रूप परिच्छिन्न उपाधियों से दृष्टि उठ जाती है। और सम्पूर्ण प्रपन्च के कारण में ही आत्मत्व का अभिमान हो जाता है ।

असंगता के अभ्यास की तीन श्रेणियां हैं। प्रथम स्थूल शरीर से अपने को भिन्न समझना। इस अभ्यास की पुष्टि से सूक्ष्म शरीर में आत्मत्व का अभिमान हो जाता है। तत्पश्चात् शब्दादि विषयों से असंगता का अनुभव करना। इससे दृष्टि सूक्ष्म शरीर से हटकर कारण शरीर में स्थिर हो जाती है। फिर सुख दुख से पृथकता का अनुभव करना। इससे दृष्टि अन्तः करण चतुष्टय से उठ कर शुद्ध आत्मा में स्थित हो जाती है।

उपासना तीन प्रकार की है -

अहंग्रह उपासना, निर्गुण उपासना और सगुण उपासना।

वेदान्ती अहंग्रह उपासना करता है, योगी निर्गुण उपासना करता है। और भक्त सगुण उपासना करता है।

प्रश्न - ज्ञानी को काम क्रोधादि विकार होते हैं या नहीं

उत्तर - जब तक शरीर है, उसके धर्म भी रहेंगेें ही।

श्रावण कृष्ण 5 संवत् 1989

प्रश्न - यदि ज्ञानी को भी काम क्रोधादि विकार रहे तो ज्ञान का फल ही क्या हुआ? ज्ञानी और अज्ञानी के चित्त में क्या अन्तर है?

उत्तर - अज्ञानी को व्यष्टि अन्तः करण में अभिमान होता है इसलिए वह उनके विकारों को अपने में मानता है और उनके कारण अपने को पापी या पुण्यात्मा समझता है, किन्तु ज्ञानी को शरीर और अन्तः करण स्वप्नवत प्रतीत होते हैं। उसको सबके अधिष्ठान रूप आत्मा में अभिमान होता है। इस लिए प्रारब्ध वश होने वाले काम क्रोधादि विकारों को भी वह स्वप्नवत ही समझता है। उसकी निश्चयात्मिका बुद्धि अपने शुद्ध स्वरूप से कभी नहीं हटती।

प्रश्न - जिस समय काम क्रोधादि की वृत्ति होगी, उस समय तो स्वरूप विस्मृति हो ही जानी चाहिए, क्योंकि विकाराकार वृत्ति के समय ब्रह्माकार वृत्ति अथवा ब्रह्माकार वृत्ति के समय विकाराकार वृत्ति होना सर्वथा असम्भव है।

उत्तर - ज्ञानी ब्रह्माकार वृत्ति नहीं करता है। ब्रह्माकार वृत्ति तो साधन रूप है। वह हो जाने पर बुद्धि निश्चयात्मिका हो जाती है। उस समय ब्रह्म में ही आत्माभिमान हो जाता है। किन्तु शरीर और मन प्रारब्ध के पुतले हैं। उनमें प्रारब्धानुसार सुख दुख भोगने के लिए सब प्रकार की वृत्तियाँ उठती रहती है, इसलिए मानसिक वृत्तियों के बदलते रहने पर भी बुद्धि की निश्चय रूप वृत्ति एक ही रहती है। वह तटस्थ भाव से सब वृत्तियों को देखती रहती है। ब्रह्माकार वृत्ति निश्चयात्मिका होने के कारण बुद्धि की है और क्रोधादि वृत्तियां विकारात्मिका होने के कारण मन की हैं। अतः उनके एक साथ रहने में कोई विरोध नहीं है।

यदि यह कहा जाय कि पाप पुण्य रूप कर्म का परिणाम तो सुख दुख हैं, राग-द्वेषादि नहीं, तो राग द्वेष के अत्यन्ता भाव में तो सुख दुःख का भोग भी नहीं हो सकता, क्योंकि -

‘सुखानुशयी रागः और ‘दुःखानुशयी द्वेषः’ में राग और द्वेष के लक्षण ही हैं।

अतः यह निश्चय हुआ कि ज्ञानी के अन्तः करण में उसके धर्म राग-द्वेष, काम-कोधादि का अत्यन्ता भाव न होने पर भी उनसे उसकी कोई हानि नहीं है क्योंकि उसमें कर्माशय नहीं रहता अर्थात् उसे यह मालुम नहीं होता कि मैं कर्ता भोक्ता हूँ।


श्रावण कृष्ण 6 सं. 1989

प्रश्न - कहते हैं कि आत्मा का चिन्तन करना ऐसा सुगम है जैसे नाम से रूप को ग्रहण करना। सो आत्म चिन्तन का वह सुगम उपाय क्या है?

उत्तर - यह बात निश्चित ही है कि सम्पूर्ण प्रपन्च आकाश के भीतर है, जो वस्तु आकाश में होती है, वह वस्तुतः होती नहीं है क्योंकि उस के निमित्त और उपादान कारण का अत्यन्ताभाव है। आत्मा में एक शक्ति वृत्ति होती है, वहीं सम्पूर्ण प्रपंच को विषय करती है। जितने भाव पदार्थ हैं वे अभाव के भीतर हैं। इसलिए वह वृत्ति पहले अभाव को ही देखती है। फिर अभावाकार होकर अन्य पदार्थों का अनुभव करती है। इस प्रकार अभाव वृत्ति भाव पदार्थों की साक्षी है और आत्म अभाव वृत्ति का साक्षी है।

इससे सिद्ध हुआ कि आत्मा सम्पूर्ण पदार्थांे से सर्वथा असंग है। अभाव वृत्ति के साथ तादात्म्य भाव को प्राप्त होने से ही उसे अन्य पदार्थों की प्रतीति होती है। विवेक की दृढता हो जाने पर जब उस सम्पूर्ण प्रपन्च से असंग अनुभव करने लगे तो समस्त प्रतीतियों की उपेक्षा करके उसे वृत्ति साक्षी रूप से अनुभव करने से उसकी स्फुट प्रतीति होने लगती है। यही आत्मा चिन्तन का सीधा सादा उपाय है।

इस प्रकार आत्म चिन्तन के इच्छुक पुरूष को यावत्प्रतीति मात्र को आकाश कुसुम के समान समझ कर उसकी उपेक्षा करते हुए निःसंकल्पता पूर्वक अपने आपको वृत्ति साक्षी रूप में अनुभव करना चाहिये। यही आत्म चिन्तन का प्रकार है।

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मया सार्धं देवैः कृतमति छलं चादिति सुतैः।

त्रयोऽपि स्युबाला विधि हरि हरा में हयतिरूषा।

इति श्रुत्वा शापं, शिव विधि हरीणां सुमनसां

बर्भूवैको मूर्ति र्दिजवर सकामा भवति सा।।

परम सती श्री अनसूया जी कहती हैं - मेरे साथ अदिति के पुत्र देवताओं ने बहुत छल किया है, इसलिए मैं क्रुद्ध हो रही हूँ - ब्रह्मा विष्णु और शिव तुम तीनों भी बालक हो जाओ। सुन्दर मन वाली देवी का इस प्रकार का शाप सुनकर शिव विधि और हरि द्विजवर दत्तात्रेय के रूप में एक ही मूर्ति में प्रकट हो गये और वह देवी पूर्णकाम हो गयी।

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सुभाषितः

बहिर्मुखानां संगेन तच्छास्त्र श्रवणेन च।

शास्त्राभ्यासेन बहुना, सजातीयाति संगतः।

अपि सत्तीर्थ शिष्याणां रूध्यते प्रेम पद्धतिः।।

भावार्थ - बहिर्मुख लोगों का संग करने से तथा उनके बनाए गये लौकिक शास्त्रों के श्रवण से, बहुत शास्त्रों के अभ्यास से, समान विचार वालों का बहुत संग करने से तथा सतीर्थ शिष्यों(गुरू भाइयों) का समागम होने से भी प्रेम पद्धति अवरूद्ध हो जाती है।

शेर- तहीदस्तों का दर्जा अहले दौलत से जियादा है।

सुराही सर झुका देती है जबकि जाम आता है।

भावार्थ - अकिंचन संतों का महत्व दौलत मंद रईसों से अधिक हैं। क्योंकि जब जाम सामने आता है तो उसमें मदिरा डालने के लिए सुराही सर झुका देती है।

भ्रमेणाहं भ्रमेणत्वं भ्रमेणोपासको जनाः। भ्रमेणेश्वर भावत्वं, भ्रम मूलमिदं जगत।।

भावार्थ - भ्रम से ही मैं, भ्रम से ही तुम तथा भ्रम से ही उपासकों का समूह और भ्रम से ही ईश्वर भाव की स्थापना है। यह संसार ही भ्रम मूल है।

अनारव्यो ऽप्रतिघः स्वात्मा निराकारो य ईश्वरः।

स करोति जगदिति हासायैव वचोऽधियाम।।

भावार्थ - अवर्णनीय, अप्रतिहत स्वात्मा जो निराकार ईश्वर है वही इस संसार की रचना करता है यह अज्ञानियों की वाणी हास्यास्पद है।

यदा भावेन भवति सर्व भावेषु निः स्पृहः।

तदा सुख मवाप्नोति प्रेत्य चेह च शाश्वतः।।

भावार्थ - जब समस्त भावों से निःस्पृह होकर आत्म भाव से युक्त होता है तब यहाँ और परलोक में भी शाश्वत सुख का अनुभव करता है।

दोहा - रंक छत्र पति दोउन की धरि न हिए परवाह।

परमानन्द मगन रहे लिये कर करवाह।।

राजा और रंक दोनो की हृदय मंे चिन्ता न रखकर तथा हाथ में करवा-कमडलु रखकर परमानन्द में मगन रहे-यही संतोचित कर्तव्य है।


राजेश्वरं वाप्यसहायमेकंमुपेक्ष्य संवीक्षित स्वात्म तत्वः।

स्वानन्द पीयूष रसेन तृप्तः चरेदिहामुत्र करोति धन्यः।।

भावार्थ - आत्म तत्व का दर्शन करके राजेश्वर हो अथवा असहाय, उनकी उपेक्षा करके स्वात्मानन्दा मृत रस से तृप्त रहकर विचरण करे। ऐसा पुरूष लोक परलोक दोनों को धन्य कर देता है।

चितेश्चित्वं जगद्विद्धि ना जगच्चित्वमस्तिही।

अजगत्वा दचिच्चित्स्याद भाना भ्देदो जगत्कुतः।।

भावार्थ - चित्त में चिति का विलास ही जगत जानो। जगत चित्सत्ता के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जगत नहीं होने पर चित्त भी अचित हो जाता है। प्रतीति से भेद है, अन्यथा जगत कहाँ है।

षडविध समाधि

उपेक्ष्य नाम रूपे द्वे सच्चिदानन्द तत्परः।

समाधिः सर्वदा कुर्यात् हृदये वाऽथवा बहिः।।1।।

भावार्थ - सच्चिदानन्द में तत्पर पुरूष नाम, रूप दोनों की उपेक्षा करके सदा हृदय में अथवा बाहर (दृश्य जगत) में समाधि का अभ्यास करे।

सविकल्पो निर्विकल्पः समाधिर्द्विविधो हृदि।

दृश्य शब्दानु भेदेेन सविकल्पा पुनर्द्विधा।।2।।

भावार्थ - समाधि दो प्रकार की है - सविकल्प और निर्विकल्प। हृदय में दृश्य और शब्द के भेद से पुनः सविकल्प समाधि भी दो प्रकार की है।

कामाद्या श्चित्तगा दृश्यास्तत्साक्षित्वेन चेतनम्।

ध्यायेद्दृश्यानुविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः।।3।।

भावार्थ - चित्त मंे कामादि-विकार जो दृश्य हैं उनके साक्षी रूप से चेतन हैं। उस दृश्य में अनुविद्ध चेतन का ध्यान करे। यह सविकल्प समाधि है।

असंगः सच्चिदा नन्दः स्वप्रभो द्वैत वर्जितः।

अस्मीति शब्द विद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः।।4।।

भावार्थ - द्वैत रहित अपना स्वामी आत्मा असंग और सच्चिदानन्द है। अस्मि (हूँ) इस शब्द से व्यक्त होता है। यह सविकल्प समाधि है।

स्वानुभूति रसावेशाद् दृश्यशब्दान पेक्षितुः।

निर्विकल्पः समाधि स्यान्निवातस्थित दीपवत्।।5।।

भावार्थ - स्वानुभूति जन्य रस के आवेश में दृश्य तथा शब्द की अपेक्षा न रखते हुए वायु रहित स्थान में निष्कम्प दीपक की तरह स्थिति होना यह निर्विकल्प समाधि है।

हृदीव वायु देशेऽपि यस्मिन् कस्मिंश्च वस्तुनि।

समाधि राद्यः सन्मात्रान्नाम रूप पृथक् कृतिः।।6।।

भावार्थ - वायु देश (शून्य स्थान) में भी जिस किसी वस्तु में रूप और नाम को अलग-अलग करके सन्मात्र का हृदय में ध्यान करना यह आरम्भिक समाधि है।

अरवंडैक रसं वस्तुं सच्चिदानन्द लक्षणम्।

इत्यविच्छिन्न चित्तेऽयं, समाधिर्मध्यमो भवेत।।7।।

भावार्थ - सच्चिदानन्द लक्षण वाली एक अखंड रस स्वरूप वस्तु (आत्मा) है। चित्त में इस प्रकार का निरन्तर चिन्तन यह मध्यम समाधि है।

स्तब्धीभावो रसास्वादात् तृतीयः पूर्ववन्मतः।

एतैः समाधिभिः षडभिर्नयेत्कालं निरन्तरम्।।8।।

भावार्थ - पूर्व वर्णित विचार के अनुसार रसास्वाद से स्तब्धी भाव (जड़ता) को प्राप्त होना - यह छः प्रकार की समाधि है। इसके अनुसार निरन्तर काल यापन करना चाहिए। (वाक्य सुधा)

ज्यों जग बैरी मीन को आप सहित बिनुवारि।

त्यों तुलसी रघुवीर बिनु गति आपनी विचारि।।9।।

भावार्थ - बिना जल के जिस प्रकार अपने सहित सारा संसार मछली के लिए शत्रु के समान है गोस्वामी तुलसी दास जी कहते हैं कि हे जीवात्मा उसी प्रकार श्री राम के बिना तुम अपनी गति का चिन्तन करो।।57।।

राम दूरि माया बढति, घटति जानि मन माहिं।

भूरि होति रवि दूरि लखि, सिर पर पगतर छॉंहि।।69।।

श्रीराम को दूर देखकर माया का प्रभाव बढता है तथा उनसे निकटता देखकर माया का प्रभाव कम होने लगता है। जैसे सूर्यबिम्ब को दूर देखकर छाया लम्बी हो जाती है और दोपहर में जब वह सिर पर होते हैं तो छाया भी पैरों के नीचे तक ही सिमट जाती है।।67।।

निज दूषन गुन राम के समुझे तुलसीदास।

होय भलो कालिकाल हूँ उभय लोक अनयास।।77।।

तुलसी दास जी कहते है कि भक्त को चाहिये कि वह अपने दोषों तथा श्री राम के गुणों को समझे-विचार करे। इससे इस कलि काल में भी लोक-परलोक दोनों में अनायास ही उसका कल्याण हो जायेगा।।77।। दोहावली


सन्त समागम

शून्य माकीर्णतां याति मृतिरप्युत्सवायते।

विपत्सम्पदिवा भाति विद्वज्जन समागमे।।

भावार्थ - निर्जन स्थान भी आनन्द दायक हो जाता है। मृत्यु उत्सव रूप हो जाती है। तथा विपत्ति भी सम्पत्ति की तरह लगती है जब विद्वानों का संग प्राप्त होता है।

विकल्प तदभावाभ्याम संस्पृष्टात्म वस्तुनि।

विकल्पितत्व लक्ष्यत्वं सम्बन्धाद्यास्तु कल्पिता।।

भावार्थ - विकल्प तथा उसका अभाव दोनों ही आत्म वस्तु में असंस्पृष्ट हैं। विकल्प का निर्देश सम्बन्धियों आदि में कल्पित है।

असम्मानात्तपो वृद्धिः सम्मानात्तपक्षयः।

अर्चितः पूजितोविप्रो दुग्धा गौरिव रिष्यति।।

भावार्थ -असम्मान से तप की वृद्धि होती है तथा सम्मान से तप का क्षय होता है। अर्चन तथा पूजन किये जाने पर ब्राह्यण का तप, दूध देने वाली गाय के दूध की तरह बिखर जाता है ।

यदा यत्कर्तुमायाति तदा तत्कुरूते ऋजुः।

शुभं वाप्यशुभं वापि तस्य चेष्टा हि बालवत।।

सरल-साधु पुरूष जब जैसा करना पडे तब वैसा कर लेेता है। वह शुभ हो अथवा अशुभ ही क्यों न हो, क्यांेकि उसकी चेष्टा बालक की तरह अंहकार शून्य सहज होती है।

प्रश्न - कोई महात्मा कहते हैं कि परोक्ष ज्ञान रहने तक तो ईश्वर का भय रहता है। परन्तु अपरोक्ष ज्ञान हो जाने पर ईश्वर का भय भी नहीं रहता। इसमें आपकी क्या सम्मति है।

उत्तर - ऐसा कहना सर्वथा भूल है। देखो जब तक बालक अबोध रहता है तब तक अपने माता-पिता की यथोचित सेवा नहीं कर सकता। परन्तु स्याना होने पर वह विशेष विनम्र और शिष्ट होकर उनकी और भी अधिक सेवा करने लगता है। इसी प्रकार भगवान का अपरोक्ष साक्षात्कार होने पर तो निरभिमानता, विनयशीलता और नियम निष्ठा आदि गुण और भी बढ़ जाते है, तब तो भगवान की सेवा और भी अधिक कायदे से की जा सकती है।

दृश्य में प्रीति न रहना, यही असली वैराग्य है।

प्रश्न - निन्दा स्तुति को सहन करने का सबसे प्रधान साधन क्या है?

उत्तर - जब किसी एक वस्तु में अनन्य प्रेम हो जाता है तब सारे दोष स्वयं ही दूर हो जाते हैं। उस समय निन्दा स्तुति की भी कोई परवाह नहीं रहती।

श्री विष्णु सहस नाम शांकर भाष्य

महाभारत के अनुशासन पर्व के 149वें अध्याय में भगवान के अनन्य भक्त पितामह श्री भीष्म द्वारा भगवान के जिन परम पवित्र सहस्र नामों का उपदेश किया गया, उसी को श्री विष्णु सहस्रनाम कहते हेैं। यह इतनी सुगठित शैली में ललित और प्रवाह पूर्ण शक्तिशाली रचना है कि इतना व्यवस्थित अन्य कोई सहस्र नाम अथवा स्तोत्र देखने में नहीं आता। इस स्तोत्र रत्न का महाराष्ट्र के वारकरी सम्प्रदाय के सन्तों द्वारा बार बार गुणगान किया गया है। श्री तुकाराम जी कहते हैं - भगवान के ये हजार नाम हमारे हजार हथियार हैं। प्रेमपूर्वक पाठ करने पर अगला चरण स्वतः स्फूर्त होने लगता है तथा भक्तों को आह्लादित करते हुए मनोवांछित फल प्रदान करता है।

कहते हैं कि श्री गौडपाद के शिष्य श्री गोविन्द भगवत्पाद अधिकतर समाधिस्थ रहते थे। भगवान श्री शंकराचार्य जब उनके दर्शनार्थ पहँुचे तो श्री विष्णु सहस्र नाम का भाष्य रचकर साथ ले गये थे और विनय पूर्वक प्रणाम करते हुए किवाड़ के नीचे से वह पोथी सेवा में सरका दी। पूज्यपाद ने पुस्तक देखकर पूछा - कौन? आचार्य ने कहा- शंकर। पूज्यपाद - क्या शंकर का अवतार हो गया? आचार्य चुप रहे तब पूज्यपाद ने किवाड खोलकर आचार्य को दर्शन तथा आशीर्वाद दिया , तत्पश्चात् आचार्य पाद ग्रन्थ रचना तथा धर्म संरक्षण हेतु विजय यात्रा के लिए प्रवृत्त हुए। इस प्रकार यह ग्रन्थ उनका प्रथम भाष्य है।

इस भाष्य मंे आचार्य की भक्ति और ज्ञान का अपूर्व समन्वय है। इस भाष्य का अनुवाद पूज्यपाद स्वामी श्री भोले बाबा जी ने जो योग वसिष्ठ महारामायण के विशद व्याख्याकार तथा कवि हृदय संत थे, करके प्रकाशनार्थ गीता प्रेस को दिया था। बाद मैं देखने पर उसमें कुछ संशोधन की आवश्यकता प्रतीत हुई तब पं0 श्री चण्डी प्रसाद जी शुक्ल प्रिंसिपल गोयन्दका संस्कृत विद्यालय काशी के आनुगत्य में आपने उसका विशेष रूप से संशोधन संपादन कर प्रकाशन योग्य बनाया था।

यह ग्रन्थ प्रत्येक जिज्ञासु भक्त तथा त्रयताप पीड़ित व्यक्ति के लिए सच्चा सहारा है। क्योंकि जो कुछ भी जहाँं कहीं से प्राप्त होता है वह भगवत्प्रदत्त ही होता है। इससे सीधे उनसे इस स्त्रोत रत्न के माध्यम से संबंध जोडकर प्रार्थना करना अधिक फल प्रद और सुविधा जनक है। यह ग्रन्थ गीता प्रेस से संवत् 1990 में प्रकाशित हुआ।


गीतावली

अनुवादक का वक्तव्य

कविचक्र चूडामणि गोसाईं श्री तुलसीदास जी के ग्रन्थों में कलेवर की दृष्टि से राम चरित मानस के पश्चात् दूसरा नम्बर गीतावली का ही है। इसमें सम्पूर्ण रामचरित पदों में वर्णन किया गया है। परन्तु रामायण की अपेक्षा इसकी वर्णन शैली कुछ दूसरे ढंग की है। रामायण महाकाव्य है, उसमें सभी रसों का सांगोपांग दिग्दर्शन कराया गया है। वहाँ कवि हृदय के सभी भावों का गम्भीर विश्लेषण देखने में आता है। परन्तु गीतावली में आरम्भ से लेकर अन्त पर्यन्त कवि का एक ही भाव दिखाई देता है, वह कथानक के क्रम की अपेक्षा न करके अपने इष्ट देव की मधुर झांकी करने में ही संलग्न है। गीतावली में उसका ललित भाव ही व्यक्त हुआ है।

इस प्रकार यह ग्रन्थ रत्न भक्ति रसज्ञ और साहित्य मर्मज्ञ दोनों का धन है। इन पंक्तियों के लेखक में तो इनमें से किसी भी सम्पत्ति का लेशमात्र भी नहीं है। श्रद्धेय प्रियवर श्री लाल जी याज्ञिक के मुख से भरत मिलाप और जटायु उद्धार संबंधी कुछ पद सुनकर इसके हृदय में इस ग्रन्थ के अनुवाद का मूक संकल्प हो गया और यह उसका सुयोग देखने लगा। भगवान की असीम कृपा से आज वह संकल्प पूरा हो गया। यह उन लीलामय की ही लीला है कि मुझ जैसे विद्या भक्ति विवेकहीन व्यक्ति केा इच्छा न रहते हुए भी, इस धन्धे में जोड़ रखा है। जो हो - राजी हैं हम उसी में, जिसमें तेरी रजा है।

इस अनुवाद के प्रारम्भ में आपने गोस्वामी जी की प्रशस्ति में एक पद लिखा है-

श्री रघुनाथ कथामृत पोषित काव्य कला रति सी छवि छाई।

ताहि अनेकन भूषण भूषि वरी तुलसी अति ही हरषाई।।

जोवत सो जुग जोरी खरी, हुलसी हुलसी अति मोद उछाई।

सो हुलसी के हिए को हुलास हरे, हमरे जिय की जड़ताई।।

इस प्रकार यह ग्रन्थ रत्न प्रथम बार संवत् 1991 में गीता प्रेस से प्रकाशित हुआ जिसे भक्त हृदय मर्मज्ञ विद्वानों ने पर्याप्त आदर दिया।


कवितावली

गोस्वामी जी की कृति कवितावली का अनुवाद श्री इन्द्रदेव नारायण जी ने किया था। उसका संशोधन भी आप द्वारा किया गया। तत्पश्चात् प्रकाशन उस काल में ही किया गया।

श्लोक

स एष नेति नेतीति, व्याख्यानं निह्नुते यतः।

सर्वमग्राह्य भावेन, हेतुनाजं प्रकाशते।।

उत्थितानुत्थिनेतानिन्द्रियादीन्पुनः पुनः।

हन्याद्विवेक दण्डेन, बज्रेणेव हरिर्गिरीन्।।

भावार्थ - वह यह आत्मा स्थूल सूक्ष्म कारण - तीनों देह, भूत भविष्य वर्तमान तीनों काल, सत्व, रज, तम- तीनों गुण और जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति तीनों अवस्था के निषेध पूर्वक व्याख्या करके बताई जाती है। अतः समस्त अग्राह्य भाव से ही इस अजन्माका प्रकाशन होता है।

उत्थित अथवा सुप्त (शिथिल) इन्द्रियों को बार बार विवेक रूपी दण्ड द्वारा प्रहार करके शान्त रखना चाहिए जैसे इन्द्र बज्र प्रहार से पर्वतों को स्थिर किये थे।

यदि नामास्य कायस्य, यदन्तस्तद बहिर्भवेत्।

दण्डमादाय लोकोऽयं, पुनः काकांश्च वारयेत्।।

न लोक चित्ते ग्रहणे रतस्य, न भोजनाच्छादन तत्परस्य।

न शब्दशास्त्राभिरतस्य भिक्षोर्न चाति रम्यावसथ प्रियस्य।।

यावद् यावदयं दृष्टिः शीघ्रं शीघ्रं विलोक्यते।

तावत्तावदिदं दृष्टिः शीघ्रं शीघ्रं विलीयते।।

स्वानन्दमन्तर निज मालोकयन्तम्, आशा पिशाचीमवलोकयन्तम्।

आलोकयन्तं ज्यादिन्द्र जालमापत्कथं मां प्रविशेदसग्ंाम्।।

शून्यता स्त्रिजगद्रूपा स्तथा चिदव्योमनि स्थिता।

अनन्या पवने सौम्य, स्पन्द सत्ता यथा निजाः।।

सौषिर्य व्योम्नि नैविड्यं यथा नीलमिति स्थितम्।

चिति चेतन नैविड्यं तथा सर्ग इति स्थितम्।।

हमें विचार दृष्टि में सबसे बड़ा बनना चाहिए और व्यवहार में सबसे छोटा। विचार में सबसे बड़ा और व्यवहार में सबसे छोटा बने बिना शान्ति नहीं मिल सकती।

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प्रश्न - ब्रह्म और आत्मा की एकता का निःसन्देह ज्ञान हो जाने पर यदि ब्रह्माकार वृत्ति का ही पुनः पुनः आवर्तन किया जाय तो उसी निष्ठा की उत्तरोत्तर वृद्धि होने की संभावना है। उसमें पतन का कोई खास भय नहीं है, किन्तु यदि समाधि को लक्ष्य बना लिया जाता है तो चित्त धन लोलुपों के समान सदा उसकी आशा में भटकता रहता है और उसमें सफलता न पाने पर उदास भी होता है। इस प्रकार समाधि की आसक्ति से स्वरूप निष्ठा में त्रुटि की सम्भावना है। अतएव समाधि का लोभ छोडकर ब्रह्माकार वृत्तिका ही आवर्तन क्यों न किया जाय?

उत्तर - एक बार ब्रह्माकार वृत्ति हो जाने पर बोध तो हो जाता है किन्तु चित्त की शान्ति और विषयों की अनासक्ति नहीं होती। इससे विद्वान के कल्याण में तो कोई सन्देह नहीं रहता किन्तु उसका दृष्ट दुख निवृत्त नहीं हो सकता। दृष्ट दुख की निवृति के लिए शान्त रस की वृद्धि की आवश्यकता है और शान्त रस की पूर्णता समाधि में ही होती है। बिना शान्तरस की पूर्णता हुए साधक का विषयों की ओर आकर्षित हो जाना बहुत सम्भव है। और विषयों मंे आसक्ति हो जाने से अधःपतन अवश्यम्भावी है। इसलिए विषयासक्ति से सुरक्षित रहने के लिए समाधि अवश्य कर्तव्य है। परन्तु समाधि हमारा लक्ष्य नहीं होना चाहिए। लक्ष्य की प्राप्ति तो निःसन्दिग्ध बोध होने पर ही होगी। यह तो केवल जीवन्मुक्ति के आनन्द के लिए है। इसमें यदि सफलता नहीं भी मिली तो घाटा आनन्द का ही है। इसलिए सफलता न होने पर भी घबराना नहीं चाहिए। यह बात सर्वदा याद रखनी चाहिये कि हमारा सिद्धान्त एक जीववाद है। हमें केवल एक शरीर का ही अभाव नहीं करना है। हम तो सारे जगत के दृष्टा हैं। अभ्यास करते समय भी हमें सम्पूर्ण प्रपन्च से अंसग होकर उसका त्याग करना चाहिए। इस बात की परवाह नहीं करनी चाहिए कि सफलता मिलती है या नहीं । हमारा काम प्रयत्न करना है। फल की हमें परवाह नहीं करनी चाहिए।

प्रश्न - निष्काम और सकाम, दोनों प्रकार के कार्य कामना पूर्वक ही होते हैं। फिर इनमें भेद क्या है?

उत्तर - जो कर्म ईश्वर प्राप्ति की कामना से किया जाता है उसे निष्काम कहते हैं और जो ऐहिक या पारलौकिक कामना से होता है उसे सकाम कहा जाता है। पूर्व वायु और पश्चिम वायु दोनों ही वायु हैं। परन्तु उनमें एक बादल पैदा करने वाला है और दूसरा काटने वाला है।

इसी प्रकार यद्यपि निष्काम और सकाम दोनों ही कर्म हैं तो भी इनमें एक तो कर्म को काटने वाला है और दूसरा कर्म को बढाने वाला है।

भगवान को चाहना परमार्थ है तथा भगवान से कुछ चाहना स्वार्थ है। यहाँ तक की मोक्ष की इच्छा भी स्वार्थ ही है।

प्रश्न - जीवन्मुक्ति और विदेह मुक्ति - इन दोनों में कौन उत्कृष्ट है?

उत्तर - जीवन्मुक्ति और विदेह मुक्ति इन दोनंों का चिन्तन करना ही अमंगल है। जो किसी पदार्थ की इच्छा नहीं करता, किसी प्रकार की सामर्थ्य नहीं चाहता, वहीं ज्ञानी हैै। ज्ञानी में इन तीनों प्रकार की इच्छाओं का अभाव होता है, किन्तु यह है स्व संवेद्य। इसे कोई दूसरा नहीं जान सकता।

प्रश्न - आपने कहा था कि एक ज्ञान तो वह है जो सुन-सुनाकर होता है और दूसरा अनुभव गम्य है। इनमें पहला ज्ञान बोध नहीं कहा जा सकता, सो कृपया यह बतलाइए कि अनुभव गम्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर - इसके लिए शास्त्रों में अनेक साधन बतलाए हैं। उनमें जैसा मेरा विचार है वह कह देता हूँ। प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखाई देने के लिए यह आवश्यक है कि अपनी आंखें साफ हांे और दर्पण भी स्वच्छ हो। आत्मानुभव में विवेक की स्फुटता ही आँखों का साफ होना है और चित्त का राग-द्वेष रहित होना दर्पण की सफाई है।

प्रश्न - विवेक की स्फुटता और चित्त शुद्धि, ये दोनों तो चित्त के ही धर्म हैं। इनमें आँख और दर्पण के समान भेद किस प्रकार किया जा सकता है?

उत्तर - विवेक दो प्रकार का होता है-

1. नित्यानित्य वस्तु विवेक ।

2. तत्व विवेक।

नित्यानित्य वस्तु विवेक अज्ञानी को होता है। उसमें वस्तुतः अनित्य वस्तु में ही नित्य और अनित्य दो विभाग कर लिए जाते हैं। चित्त की दो अवस्थाएं हैं -

1. कार्यावस्था और 2. कारणावस्था।

उनमें से कार्यावस्था को अनित्य और कारणावस्था को नित्य मान लिया जाता है। परन्तु वस्तुतः वे दोनों ही अनित्य हैं। किन्तु तत्व विवेक में साक्षी सम्पूर्ण प्रपन्च से अलग रहता है। और सारा प्रपन्च एक ओर होता है। इसलिए इस अवस्था में चित्त अलग रहता है और अपना शुद्ध स्वरूप अलग। अतः यह अपनी आँखो की सफाई के समान है और इसमें चित्त दर्पण तुल्य है।

प्रश्न - ठीक है। इससे आगे कहिये।

उत्तर - यह तत्व विवेक भी पूर्ण बोध नहीं कहा जा सकता। इसमें भी अपने से भिन्न दृश्य वस्तु की सत्ता बनी रहती है। यह अद्वैत बोध के बिना निवृत्त नहीं हो सकती।

प्रश्न - इसके लिए साधक को क्या करना चाहिए?

उत्तर - जब साक्षी और साक्ष्य का विवेक हो जाय तो यह विचारना चाहिये कि यह जितना प्रतीयमान दृश्य है, वह अलग-अलग है या एक। जिस समय वह एक निश्चय हो जायेगा, उसी समय उसके अत्यन्ताभाव का बोध हो जायगा, और अद्वैत में स्थिति हो जायेगी।

प्रश्न - समस्त दृश्य की एकता का अनुभव हो जाने से ही उसके अभाव का बोध कैसे माना जा सकता है। जिस प्रकार भेद दृष्टि रहने पर वह अपने को परिच्छिन्न उपाधि का साक्षी और उससे असंग समझता था उसी प्रकार इस समय वह अपने को सम्पूर्ण प्रपन्च का साक्षी और उससे असंग अनुभव करते हुए भी दृश्य को सत्य ही क्यों न समझेगा?

उत्तर - जब सारा प्रपन्च स्वसत्ता में आ जाएगा तब उसका कोई कारण न मिलने के कारण वह सत्य नहीं हो सकेगा। सांख्य ने जो प्रकृति और पुरूष दो स्वतन्त्र तत्वों को सत्य माना है, वह बुद्धि और अनुभव से सर्वथा विरूद्ध है। जब दो स्वतन्त्र तत्व सत्य हैं तो कोई उनका आधार अवश्य होना चाहिए, क्योंकि बिना आधार के कोई भी आधेय पदार्थ रह नहीं सकता और जब वे दो हैं तो आधेय अवश्य है। इसलिए ऐसी अवस्था में दृश्य की सत्ता कभी संभव नहीं हैं। इस प्रकार जब दृश्य का अन्यथा भाव बोध हो जाता है तो उसे समस्त रहस्य अपने में ही अनुभव होने लगता है। इस अवस्था में उसका किसी भी वस्तु अथवा क्रिया से राग या द्वेष नहीं रहता। विवेकी को तो सत्य में राग और असत् में द्वेष रहता है, परन्तु उसकी सभी मे सम दृष्टि रहती है। जैसा कि श्री गोसाई जी ने कहा है-

सब के प्रिय सब के हितकारी। सुख दुख सरिस प्रशंसा गारी।।

शास्त्रों में ऐसे बोधवान व्यक्ति तीन प्रकार की क्रियायंे करते देखे जाते हैं। एक कर्मकाण्डी जैसे वसिष्ठादि, दूसरे उपासक जैसे नारदादि और तीसरे विरक्त जैसे शुकदेव वामदेव आदि। इस प्रकार उन के व्यापार यद्यपि अलग-अलग रहते हैं तो भी बोध में कोई अन्तर नहीं होता। उसकी वे चेष्टायें बालवत लीलामात्र होती हैं।

प्रश्न - आपने जिस प्रकार से अलग-अलग व्यापार बतलाए है उसी प्रकार एक ही बोधवान समय-समय पर सभी व्यापारों को भी तो कर सकता है न ?

उत्तर - हाँ, क्यों नहीं कर सकता। देखते नहीं, नाटक में ंएक ही व्यक्ति कितने पार्ट करता है। इसी प्रकार वह भी समय समय पर भिन्न भिन्न व्यापार करके भी उनसे अलिप्त रहता है। परन्तु इस प्रकार सब कुछ करते हुए भी वस्तुतः वह कुछ नहीं करता, कयोंकि उसकी दृष्टि सर्वदा प्रपन्च के अत्यन्ताभाव में स्थित रहती है।

प्रश्न - जिस प्रकार आपने ज्ञानी के लक्षण के तीन भेद बतलाए है उसी प्रकार वह नीति निष्ठ भी तो हो सकता है न, और यदि नीति निष्ठ होगा तो नीति के प्रति राग और अनीति के प्रति द्वेष प्रदर्शन भी आवश्यक होगा।

उत्तर - हाँं, नीति निष्ठ भी अवश्य हो सकता है। परन्तु उस अवस्था में अथवा पहली तीन अवस्थाओं में भी उसका जो राग द्वेष का प्रदर्शन होगा, वह केवल लीलामात्र होगा। वास्तविक नहीं होगा। यदि उसमें वास्तविकता आ जाती है तब तो बोधवान तो क्या उसे विवेकी भी नहीं कह सकते, क्योेंकि राग द्वेष की दृढ़ता दृश्य की सत्यता माने बिना नहीं हो सकती और दृश्य की सत्यता तो तत्व विवेक होने पर ही निवृत्त हो जाती है।

प्रश्न - परन्तु यदि भय या क्रोध आदि की वृत्ति होगी तो वह तो बिना अविवेक के हो ही नहीं सकती। ऐसा होने से क्या उसे अज्ञानी माना जायेगा?

उत्तर - यदि वह केवल एक क्षण के लिए ही होती है तब तो विशेष हानिकारक नहीं है। परन्तु यदि क्रोध या भय आदि उत्तेजनाओं की निवृत्ति हो जाने पर भी वह बनी रहती है तो उसे अवश्य ही अविवेकी ही कहा जायेगा। बोधवान की कोई भी उत्तेजना स्थाई नहीं हो सकती।

प्रश्न - ऐसी स्थिति प्राप्त करने के लिए तो विचार ही मुख्य जान पडता है। उसके लिए ध्यानादि की क्या आवश्यकता है?

उत्तर - जब तक प्रपन्च का अत्यन्ताभाव बोध नहीं होता तब तक तो विचार मुख्य है, परन्तु जब यह निश्चय हो गया तो उस पर अधिक जोर देने की आवश्यकता नहीं है। वह गौण हो जाना चाहिए। विचार से भी वृत्ति, प्रपन्च के अत्यन्ताभाव को ग्रहण तो करती है, परन्तु उस पर स्थिर नहीं रहती, ध्यान से उसमें स्थिरता आती है। यदि ध्यानादि में न लगकर विवेक में ही लगा रहेगा तो उसे उसी का व्यसन हो जायेगा और वह जीवमुक्ति के आनन्द से वंचित रह जायेगा। इसी को शास्त्र वासना भी कहते हैं।

प्रश्न - यह तो सिद्ध पुरूषों की स्थिति का वर्णन हुआ। अब यह बतलाइये कि साधक को यदि व्यापार में विक्षेप होता हो तो उसे व्यापार का त्याग करना चाहिए या विक्षेप की निवृत्ति का प्रयत्न करना चाहिए?

उत्तर - साधक को व्यापार का संकोच करना ही आवश्यक है। उसे विक्षेप के कारण को रखते हुए केवल विक्षेप की निवृत्ति का प्रयत्न करना ठीक नहीं। व्यापार का संकोच होने से और विचार पर जोर रहने से स्वतः ही विक्षेप भी निवृत्त हो जायेगा।

प्रश्न - यदि रोग आदि हो जाय तो उसकी चिकित्सा करनी चाहिए या उसे सहन करते रहना चाहिए?

उत्तर - रोग हमें दबाना चाहता है, उससे हमारा विचार मन्द भी पड़ जाता है। इसलिए उसकी निवृत्ति अवश्य करनी चाहिए। परन्तु विचार वान पुरूष उसी के पीछे नहीं पड़ जाता। वह तो यही देखता है कि भयंकर दुख के समय भी उसका विचार तो नहीं छूटता। वह कभी हाय हाय करके प्राण नहीं देता क्योंकि वह जानता है कि रोग मेरा दास है। वह कैसा ही भय दिखलावे मेरे ऊपर प्रभाव नहीं डाल सकता। भला जो व्यक्ति यह बात अच्छी तरह जानता है कि मैं एक ऐसी ठोस वस्तु हूँ कि कोई भी शस्त्र मेरा भेदन नहीं कर सकता, वह किसी को हाथ में तलवार लेकर अपने ऊपर आता देखकर भी कैसे कम्पायमान हो सकता है।

प्रश्न - जिसे बोध हो गया है, क्या उसे भी सत्संग आदि करने की इच्छा होती है?

उत्तर - लोक में यह बात देखी जाती है कि सच्चा पहलवान भले ही मरणासन्न हो जाय, वह जिस समय कही दंगल का समाचार पाता है, फौरन पहुँच जाता है। उसे वहाँ जाकर कुछ सीखना भी नहीं होता, तो भी उससे वहाँ जाये बिना रहा नहीं जाता, वह उसका स्वभाव ही है। इसी प्रकार जहाँ कहीं विचार की बात होती होगी वहाँ जाने के लिए उसकी प्रवृत्ति होनी स्वाभाविक ही है। उसे उसकी आवश्यकता नहीं होती, तो भी वह वहाँ जाए बिना नहीं रह सकता। जो विचार वान ऐसी जगह जाने में संकोच करता है वह वस्तुतः विचारवान ही नहीं है।

प्रश्न - यह कब जानना चाहिए कि बोध की प्राप्ति हो गयी?

उत्तर - जिसमें जीव ब्रह्म आदि किसी प्रकार का अहं भाव नहीं है जो व्यवहार में सब कार्य ठीक करता है किन्तु परमार्थतः सबका अत्यन्ता भाव देखता है तथा जिसकी दृश्य में मिथ्यात्व बुद्धि भी निवृत्त हो गयी है, उसे बोधवान समझना चाहिए। जिसके ‘‘कुछ हुआ है’’ और ‘‘कुछ नहीं है’’ ये दोनांे भाव निवृत्त हो गये हैं, वह बोधवान है। ‘कुछ हुआ है’ इससे व्यवहार सत्ता में राग रहता है। और ‘कुछ नहीं है’ इससे उसमें द्वेष रहता है। बोधवान मंेे ये दोनों ही नहीं होते। ‘कुछ नहीं हुआ’ यह बात वह केवल जिज्ञासु के लिए कहता है क्योंकि हुआ है अथवा नहीं हुआ ये दोनो ही भाव अहं बुद्धि को लेकर रहते हैं। ‘‘प्रपन्च हुआ है’’ यह भाव अनात्म बुद्धि से होता है। ये दोनो ही वृत्ति के कार्य हैं। परन्तु आत्मस्वरूप वृत्ति से परे है। इसलिए बोधवान में ये दोनों ही भाव नहीं रहते।

प्रश्न - इस प्रकार की पूर्ण स्थिति हो जाने पर भी व्यवहार में वृत्ति आदि से तादात्म्य क्यों हो जाता है?

उत्तर - बोधवान का वृत्ति आदि से कभी तादात्म्य नहीं होता। उसकी जो कुछ चेष्ठा होती है, वह नाटकवत होती है। जिस प्रकार नाटक का निपुण पात्र सब प्रकार का अभिनय करते हुए भी अपने को राजा मंत्री अथवा और कुछ भी कभी नहीं समझता, उसी प्रकार बोधवान भी बुद्धि आदि का अत्यन्ता भाव देखता हुआ सर्वदा अपने को उनसे असंग अनुभव करता है।

प्रश्न - परन्तु विद्यारण्य स्वामी ने तो कहा है कि यदि कभी भोजनादि में अपने शुद्ध स्वरूप की विस्मृति भी हो जाय तो उससे कोई हानि नहीं है।

उत्तर - विस्मृति उसे कहते हैं जब हम किसी बात को प्रयत्न करने पर भी स्मरण न कर सकंे। स्वरूप की विस्मृति इस प्रकार की नहीं होती, वह तो ऐसी है जैसे किसी विद्वान को यदि कोई श्लोक कण्ठस्थ हो तो वह अन्य व्यापारों में संलग्न रहते समय भी उसकी आवृत्ति नहीं करता रहता। उस समय उसकी वृत्ति दूसरी ओर लगी रहती है। इसलिए श्लोक की ओर उसकी प्रवृत्ति नहीं होती। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उसे श्लोक विस्मृत हो गया है। वह उसकी ओर चित्त ले जाते ही उसे स्मरण कर सकता है इसी प्रकार अन्य व्यापारों में संलग्न रहने के कारण यदि आत्माकार वृत्ति न भी रहे तो भी बोधवान की कोई हानि नहीं है, क्योंकि वह जब चाहे तभी, अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव कर सकता है। परन्तु ऐसी स्थिति प्राप्त करने के लिए अत्यन्त तीव्र अभ्यास की आवश्यकता है।

प्रश्न - वह अभ्यास किस प्रकार का होना चाहिए?

उत्तर - अभ्यास दो प्रकार का है -

1. विवेक कालीन

2. बोध होने के पश्चात् किया जाने वाला।

विवेक कालीन अभ्यास का नाम ही निदिध्यासन है। निदिध्यासन का अर्थ यह है कि सजातीय प्रत्यय का प्रवाह और विजातीय का तिरस्कार किया जाय। इससे त्वं पद का शोधन होता है। फिर जब प्रपन्च का अत्यन्ताभाव अनुभव हो जाता है तब तत् और त्वं पद की एकता होने पर बोध होता है। निदिध्यासन में अपने को पंचभूत के साक्षी से अभिन्न अनुभव करने पर अखण्डाकार वृत्ति होती है तब तत् और त्वं पद की एकता होने पर बोध होता है। निदिध्यासन में पंच कोश और पंच भूत के द्रष्टाओं में भेद रहता है। इनका अभेद अनुभव हो जाने पर जो स्थिति होेती है उसे निदिध्यासन नहीं कह सकते, वह तो ब्रह्मी स्थिति है। उस समय उसे सारा प्रपन्च मनोराज्य प्रतीत होता है। वह मनोराज्य शास्त्रीय और अशास्त्रीय दो प्रकार का होता है। जो अपठित होते हैं उन्हें अशास्त्रीय मनोराज्य होता है। और जो पठित होते हैं उन्हें शास्त्रीय मनोराज्य होता है। इस मनोराज्य की निवृत्ति के लिए तथा ज्ञान, रक्षा, तप, विसंवादाभाव, दुःखनाश और सुख की प्राप्ति इन पांच प्रयोजनों की सिद्धि के लिए उसे हर समय नाम रूप का बाध करते रहना चाहिए। ऐसा करते करते वृत्ति स्थिर हो जायेगी। यही ब्राह्मी स्थिति है।

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प्रश्न - बोध होने से क्या लाभ है?

उत्तर - 1. बोधवान को स्वर्ग नरक की चिन्ता स्वप्न में भी नहीं रहती।

2. संसार पैदा हुआ है अथवा ईश्वर ने संसार की रचना की है, यह भावना नहीं रहती।

3 अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड की भोग्य वस्तुओं में प्रीति नहीं रहती।

4 दुख उपस्थित होने पर इस बात की चिन्ता नहीं होती कि यह कब और कैसे निवृत्त होगा और न वर-शाप की ही चिन्ता रहती है।

5 यदि किसी भी दैवी या आसुरी वस्तु केा देखकर उसमें सत्यत्व भावना हो जाती है तो समझना चाहिए उसे बोध नहीं हुआ।

6 पुण्य-पाप रूप सम्पूर्ण क्रियाएं करते हुए भी उसे उनका फल नहीं होगा, क्योंकि वह कर्ता भोक्ता को अपने से भिन्न देखता है।

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जिसे सारे जीवों की चेष्टायें पर-प्रेरित जान पड़ती हैं वह बोधवान है। जब तक ऐसा अनुभव न हो तब तक प्रयत्न करते रहना चाहिए।

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मुमुक्षु सार सर्वस्व

भगवान शंकराचार्य की इस रचना का आपने सुन्दर अनुवाद वेदान्त के जिज्ञासुओं के लिए किया। यह अपने आप में मुमुक्षु के लिए सर्वांग पूर्ण ग्रन्थ है तथा साधकों की साधन संबंधी समस्याओं का समुचित समाधान करते हुए मार्ग दर्शन करने वाला है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन श्री मुक्तिनाथ जी ने कराया था।

शतश्लोकी

भगवान शंकराचार्य की ही यह रचना जिसमें उपनिषद् सिद्धान्त के अनुसार सौ श्लोक हैं तथा जो वेदान्त का व्यवस्थित विवेचन करते हुए योग्य विद्वानों को संतुष्ट करने वाला है, उसका अनुवाद आप द्वारा किये जाने पर गीता प्रेस ने उसका प्रकाशन किया था।

स्तोत्र रत्नावली

साधकों तथा भक्तों के नित्य पाठ के लिए उत्तमोत्तम स्तोत्रों का एक संग्रह गीता प्रेस से प्रकाशित हो यह जनता की भावना देखकर उसके संकलन तथा अनुवाद का दायित्व आपको दिया गया। आपने चुने हुए स्तोत्रों का संस्कृत के उत्तमोत्तम ग्रन्थों से संग्रह करके उसका सुन्दर अनुवाद कर दिया जिसे गीता प्रेस ने प्रथम वार विक्रम संवत् 1992 में प्रकाशित किया। इस ग्रंथ का बहुत प्रचार हुआ तथा यह गीता-रामायण की तरह ही भक्तों के लिए अपने इष्ट देव की उपासना का सुन्दर साधन हो गया। इस ग्रंथ के अब तक पचासों संस्करण निकल चुके हैं।

सूक्ति सुधाकर

संसार के सर्वोंत्तम, सुमधुर, संस्कृत साहित्य से संगृहीत इस सूक्ति सुधाकर में श्रवण सुखद, सुन्दर शब्द विन्यास और प्रसाद माधुर्य आदि गुणों से संमन्वित सार भूत श्लोकों का संचय किया गया है।

विद्यार्थी लेखक और व्याख्यान दाता आदि को जिन सुन्दर श्लोकों को कंठस्थ करने या उद्धृत करने की सर्वदा आवश्यकता होती है, प्रायः वैसी ही सामग्री का इसमें संग्रह करने की चेष्ठा की गयी है।

इन सूक्तियों के संकलन तथा सुन्दर अनुवाद का कार्य भी आप द्वारा ही किया गया। उक्त दोनों ग्रन्थों में भी अनुवादक की जगह आपका नाम नहीं दिया गया है।

वृत्ति विचार

जहाँ राग-द्वेष और निन्दा-स्तुति है वहाँ ज्ञान निष्ठा नहीं अर्थात् जीवन्मुक्ति का आनन्द नहीं। जहाँ शास्त्र मिथ्या है वहाँ जीवन्मुक्ति और विदेह मुक्ति भी मिथ्या है। जहाँ भेद है, वहाँ साधन है, जहाँ अभेद है वहाँ सिद्धावस्था है। मिट्टी खोदने, रामलीला देखने और किलों में रहने से भी यदि राग द्वेष दूर होता है तो वहीं रहे, कोई हानि नहीं। यदि एकान्त में रहने से राग-द्वेष होता है तो उसे त्याग देना चाहिए। समष्टि वृत्ति क्रिया जन्य नहीं, व्यष्टि वृत्ति क्रिया जन्य है, जहाँ भेद है वहाँ पुरूषार्थ है। अभेद में पुरूषार्थ नहीं। जहाँ तक गुरू और शास्त्र हैं वहाँ तक राग द्वेष भी रहता है। सिद्ध पुरूष में राग-द्वेष बिल्कुल नहीं रहते। ‘‘क्षणिक राग-द्वेष रहते हैं’’ यह बात विवेकी की साधनावस्था के विषय में है। सिद्ध पुरूष में राग-द्वेष का अत्यन्ताभाव है। राग-द्वेष की सत्ता अदृढ़ बोध में रहती है, दृढ़ में नहीं

प्रश्न - राग-द्वेष के अत्यन्ताभाव का क्या उपाय है?

उत्तर - उपाय यही है कि सारे प्रपन्च को मनोराज्य देखे। निन्दा-स्तुति और राग-द्वेष से प्रपन्च मंे सत्यत्व दृढ़ होता है।

प्रश्न - अदृढ़ बोध में भी राग-द्वेष क्यों रह जाता है?

उत्तर - अनेकानेक जन्मों का अभ्यास होने के कारण।

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प्रश्न - ब्रह्माकार वृत्ति का स्वरूप क्या है?

उत्तर - वृत्ति दो प्रकार की होती है - सामान्य और विशेष। जीव वृत्ति विशेष वृत्ति है, वह कर्ता के अधीन है तथा परिणामिनी है। निखिल प्रपंच का बाध हो जाने पर जो प्रपंच शून्य निर्विशेष वृत्ति होती है, उसे ब्रह्माकार वृत्ति कहते हैं। वह वृत्ति कर्ता का बाध करके होती है। इसलिए वह कर्ता के अधीन नहीं है। वह ब्रह्म की वृत्ति है और स्वतः सिद्ध एवं उपरिगामिनी है।

स्वप्न का ज्ञान जाग्रत पुरूष को होता है, स्वप्न में रहते हुए ‘यह स्वप्न है’ ऐसा ज्ञान नहीं हो सकता। इसी प्रकार ब्रह्माकार वृत्ति बोधवान को होती है। निषेध वृत्ति कर्ता के अधीन है। निषेध की समाप्ति में जो आत्मानुभव होता है वह स्वतः सिद्ध है। वृत्ति का काम केवल आवरण भंग है। ब्रह्माकार वृत्ति में प्रपन्च केवल प्रतीति मात्र रहता है। यह प्रतीति विदेह मुक्ति पर्यन्त रहती है जिस प्रकार मरूभूमि में जल के अभाव का निश्चय हो जाने पर भी जब तक नेत्र है तब तक उसकी चकमक तो रहती ही है। ब्रह्माकार वृत्ति की घनता होने पर र्निविकल्प समाधि होती है। उस समय प्रपन्च की प्रतीति भी नहीं होती। यही ब्रह्माकार वृत्ति और निर्विकल्प समाधि का अन्तर है।

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‘अभावाकार वृत्ति जीव की होती है और बाध वृत्ति ब्रह्म की होती है।’

प्रश्न - बोधवान का मुख्य कर्तव्य क्या है?

उत्तर - ‘कुछ कर्तव्य नहीं है’ यह व्यतिरेक बोध है। इस समय इसका विचार नहीं है। सम्पूर्ण सृष्टि बोधवान का ही संकल्प है। सारी सृष्टि जल तरंगवत् उससे भिन्न नहीं है। उसकी देहात्म बुद्धि कभी नहीं होती। जो कुछ है सब वही है। उसकी दृष्टि ही सृष्टि है। उसका जो चिन्तन है वही सृष्टि है और उसका निःसंकल्प होना ही प्रलय है। निःसंकल्पता ही शांति है और संकल्प ही विक्षेप है। अतः उसे निःसंकल्पता ही कर्तव्य है।

प्रश्न - उसकी निःसंकल्पता स्वभाव सिद्ध है या उसके अधीन?

उत्तर - यह कुछ नहीं कहा जा सकता। इसे वह स्वयं ही जाने। परन्तु यह तो उसे अनुभव होता है कि मेरा संकल्प ही सृष्टि है और निःसंकल्पता ही प्रलय है। तथा निःसंकल्पता ही शान्ति है। अब संकल्प करने न करने की बात वह स्वयं जाने। अन्वय से वही सर्व है और व्यतिरेक से वही सर्वातीत है। अग्नि से दाहिका शक्ति, जल से तरंग, बीज से रस भिन्न नहीं है उसी प्रकार आत्मा से जगत भिन्न नहीं है। इसलिए उसके लिए किसी कर्तव्य का विधान नहीं किया जा सकता। अतः वस्तुतः उसका कोई कर्तव्य नहीं है।

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प्रश्न - संसार में उत्कृष्ट वस्तु क्या है और निकृष्ट क्या है?

उत्तर - संसार ही निकृष्ट है और भगवान ही उत्कृष्ट हैं।

प्रश्न - इस निकृष्ट संसार से कैसे छुटकारा हो?

उत्तर - भगवान को याद करने से ही संसार से छुटकारा हो सकता है। भगवान को याद करने से संसार की याद छूट जायेगी। संसार की याद छूटना ही संसार का छूटना है।

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घृणा लज्जा भयं शंका जुगुप्सा चेति पंचमी।

कुलं शीलं तथा जातिरष्टौ पाशा प्रकीर्तिता।।

पाशबद्धो भवेज्जीवः पाश मुक्तः सदा शिवः।।

अर्थ - घृणा, लज्जा, भय, शंका और पांचवीं उपरति तथा कुल शील और जाति ये आठ प्रकार के पाश (बंधन) कहे गये हैं। इन पाशों से बद्ध जीव ह,ै तथा इनसे मुक्त पुरूष सदा शिव स्वरूप है।

इहासने शुष्यतु में शरीरं त्वगस्थि मांस विलयं प्रयान्तु।

अप्राप्य बोधिं बहुकल्प दुर्लभां, नह्यासनात् गात्रमिदं चलिष्यति।।

भगवान बुद्ध कहते हैं - इस आसन पर मेरा शरीर भले सूख जाय, त्वचा, हड्डी और मांस लय को प्राप्त हो जायँ किन्तु बहुत कल्पों से दुर्लभ आत्मबोध को प्राप्त किए बिना इस आसन से मेरा शरीर विचलित नहीं होगा।

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सन्त वचनामृत

श्री रामदास जी के भेजे हुए उपदेश

1. यद्यपि विचार दृष्टि में दृश्य का अस्तित्व है नहीं ,तथापि दृश्य में राग न होना, इसी का उपाय निरन्तर करता रहे।

2. परमात्मा में चित्त आसक्त हुए बिना कोई साधक सिद्धावस्था को प्राप्त न होगा।

3. ईश्वर कृपा से परमात्मा में चित्त लग जाने पर उसकी मस्ती में आकर इन्द्रियों की बाह्य विषयांे में प्रवृत्ति न होने दे और उसी मस्ती में आकर शौच एवं आचार न त्याग दे अर्थात् भक्ष्यामक्ष्य खाने में न तत्पर हो जाय।

अभ्यास का क्रम

4. प्रथम भूत भविष्य का चिन्तन त्याग कर वृत्ति को एक लक्ष्य पर ठहराओ। कुछ काल ठहरने के पश्चात् रस का अविर्भाव होगा। तब निर्विकल्प अवस्था की प्राप्ति के लिए रसास्वाद का त्याग करना चाहिए। रस के आविर्भाव से पहले रसास्वाद त्याग की भावना न करनी चाहिए।

श्री सिद्धेश्वराश्रम जी द्वारा भेजे हुए उपदेश

माघ कृष्ण 12 संवत् 1991

उदासीनता और वैराग्य का बोध से कोई संबंध नहीं है। जिस किसी मे ंउदासीनता, वैराग्य और मस्ती पाई जाती है वह चित्त धर्म को लेकर है। बोधवान अपने को स्वयं ही जानता है। बोधवान को मस्ती इसलिए नहीं कि उसे कुछ प्राप्त नहीं हुआ। बोधवान को वैराग्य इसलिए नहीं कि उसे किसी में राग नहीं और उदासीनता इस लिए नहीं कि उनमें प्रवृत्ति नहीं। मस्ती आना शुद्ध बोध नहीं। मस्ती चिदाभास को होती है। इसको साभास बोध कहते हैं। मस्ती प्रसन्नता से आती है और प्रसन्नता गुणों (सत्व गुण) में होती है, और वह प्रसन्न स्वरूप है। उसमें इच्छा नहीं, इसलिए निरिच्छा भी नहीं। वह निरिच्छा स्वरूप है- निरिच्छा गुणवाला नहीं। उसमें ग्रहण नहीं इसलिए त्याग भी नहीं, उसमें राग नहीं इसलिए वैराग्य भी नहीं उसमें अज्ञान नहीं इसलिए ज्ञान भी नहीं, उसमें क्रिया नहीं इसलिए वह निष्क्रिय भी नहीं, वह सगुण नहीं इसलिए निर्गुण भी नहीं, उसमें दुख नहीं इसलिए आनन्द भी नहीं, उसमें द्वन्द्व नहीं इसलिए वह निर्द्वन्द्व भी नहीं। अतः चित्त धर्म के साथ बोध का कोई संबंध नहीं, वह केवल सत्ता स्वरूप है। जिसे मस्ती है उसे निषेध वृति करके सत्ता में आनन्द आता है, वह जिज्ञासु का आनन्द है बोधवान का नहीं। क्योंकि जिज्ञासु ने अपनी अस्मिता को पूर्णतया मिटाया नहीं है, इसलिए उसे आनन्द है।

प्रश्न - यह तो तत्व दृष्टि से शुद्ध स्वरूप का वर्णन है किन्तु हमें करना क्या चाहिए?

उत्तर - सारे संसार को एक सत्ता में लाकर अपने से भिन्न देखने का अभ्यास करना चाहिए, परन्तु दृश्य को अलग देखते हुए भी उसको सत्ता शून्य देखना चाहिए, अर्थात् केवल प्रतीति मात्र अनुभव करना चाहिए।

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पूज्य पाद श्री स्वामी हरि हरानन्द जी का प्रसाद -

प्रश्न - प्रमाण का लक्षण है - अवाधितार्थ बोधन परत्वम् प्रमाणम्।

यदि अद्वैत वाद वेदों का प्रामाण्य स्वीकार करता है तो वेदों के कार्मकाण्ड प्रतिपाद्य विषय को बाधित मानता है या अबाधित। यदि बाधित मानता है तब तो उसका अप्रामाण्य स्वीकार करना हुआ और यदि अबाधित मानता है तो द्वैतापत्ति होगी।

उत्तर - वेदों का प्रामाण्य फलवान निश्चित अर्थ के बोधन में है, परमार्थ अबाधितार्थ के बोधन में नहीं है। इसलिए कर्मकाण्ड-प्रतिपाद्य विषय बाधित होने पर भी वेद का अप्रामाण्य नहीं हो सकता।

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अज्ञान ज्ञात वस्तु में ही होता है, क्योंकि वह साक्षी भास्य है। अज्ञान भाव रूप है, अभाव रूप नहीं। ‘भूतले घटो नास्ति’ यह प्रतीति तो अभाव विषयक है, किन्तु ‘घटमहं न जानामि’ यह अज्ञान भाव विषयक है।

शारीरिक सुख दुख बोधवान के लिए इतने बाधक नहीं है जितना निन्दा-स्तुति जन्य क्षोभ है, क्यांेकि वह अविवेक जनित नहीं होता और इसमें अविवेक रहता है। शारीरिक सुख दुख तो विवेक में सहायक हैं किन्तु निन्दा-स्तुति जनित क्षोभ उसका बाधक है।

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श्लोक -परापवादपैशुन्यमनृतं च न भाषते। अन्योद्वेग करं चापि, तुष्यते तेन केशवः।।1।।

अपि राज्यादपि स्वर्गा दपीन्दोरपि माधवात्। अपि कान्ता समा संगा न्नैराश्यं परमं सुखम्।।2।।

उत्साहात्साहसाद्धैर्यात् तत्वज्ञानाच्च निश्चयात्। जनसंग परित्यागात् षडभिर्योगः प्रशस्यते।।3।।

भावार्थ - जो पराई चर्चा, चुगली, मिथ्या भाषण और दूसरे को उद्विग्न करने वाली वाणी नहीं बोलता उससे केशव सन्तुष्ट होते हैं।।1।।

राज्य से, स्वर्ग से, चन्द से, बसन्त ऋतु अथवा श्री कृष्ण से और कमनीय रमणी के आलिंगन जनित सुख से नैराश्य का सुख श्रेष्ठ है।।2।।

उत्साह से, साहस से, धैर्य से और तत्व ज्ञान के निश्चय से तथा जन सामान्य के संग परित्याग से - इन छः कारणों से योग प्रशस्त होता है।।3।।

भक्त जी की सेवा

घटना सन् 1936ई. की है। भक्त श्री केदार नाथ जी बहुत वृद्ध हो गये थे। उनका शरीर भी रोग ग्रस्त रहने लगा था। तथापि गुरू पूर्णिमा पर वे श्री महाराज जी के दर्शनार्थ रामघाट गये किन्तु प्रभु की इच्छा, श्री महाराज जी वहाँ नहीं पहुँचे। भक्त गण निराश होकर अपने अपने घर लौट आये। रामदास और मुन्नीलाल जी भक्त जी के साथ खुर्जा आ गये। महाराज जी ने दूसरे दिन ध्यानावस्था से उठकर कहा- मैंने भक्त केदार नाथ को आज स्वप्नावस्था में बीमार देखा है, मैं उनसे मिलने के लिए खुर्जा जाऊँगा।

बस, वहाँ से कुछ भक्तों के साथ आप खुर्जा पधारे। भक्त जी की शारीरिक अवस्था अच्छी नहीं थी। आदमियों के उठाने पर ही वे खाट से उठ सकते थे। परन्तु श्री महाराज जी के पहुँचने पर वे स्वयं खाट से उतर कर नाचने लगे। उन्होंने आपका चरण स्पर्श किया और विधिवत पूजा की। श्री महाराज जी ने उस समय उनको वेदान्त चर्चा ही सुनाई। तीन चार दिन ठहरकर आप रामघाट की ओर चल दिये। चलते समय रामदास जी से कहा - भक्त जी का शरीर केवल सोलह दिन और रहेगा। तुम यहीं ठहरकर इनकी सेवा करो। मुनिलाल भी उनकी सेवा में रहे। ठीक सोलहवें दिन दोपहर के दो बजे वे ब्रह्मलीन हो गये।

रूग्णावस्था में भक्त जी विधिवत महा प्रस्थान की तैयारी करते रहे। ब्राह्मणांे से जपानुष्ठान कराकर उन्हें यथेच्छ दक्षिणा दी और वेदान्त चर्चा ही करते रहे। मुनिलाल जी से तेजोबिन्दु उपनिषद सुना। उन्होंने पूछा कि भक्त जी! इस समय तो रोग के कारण वृत्ति गुम सी रहती होगी? वे बोले-नहीं जी, यह तो रोग समाधि है। चित्त हर समय अपने लक्ष्य पर रहता है, केवल प्यास के कारण उत्थान होता है। ऐसी थी उनकी आत्मनिष्ठा।

रूग्णावस्था में भी सत्संग चलता। एक दिन भक्त जी ने कहा-

‘फूटा घट नभ में मिला पूली पूरन एक’

क्यों जी, घट का फूटना क्या? वह तो पहले से ही एक है। ऐसी थी उनकी दृष्टि।

आप (मुनिलाल जी) ने कहा- भक्त जी, मरना जीना तो स्वप्न है, अभेद तो नित्य है। यह बात उन्हें पसन्द आई । प्यार से आपको थपथपा कर कहा - मैं जानता हूँ।

अप्रकाशित रचना

योगेन चित्तस्य, पदेन वाचा, मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।

योऽपा करोत्तं प्रवंर मुनीनां पंतजलिं प्रान्जलिरानतोऽस्मि।।

भावार्थ - योग के द्वारा चित्त का, पद (व्याकरण महाभाष्य) के द्वारा वाणी का, वैद्यक शास्त्र (चरक संहिता) द्वारा शरीर के मल दोष का जिन्होंने शोधन किया उन मुनिश्रेष्ठ पतंजलि को सिर झुकाकर प्रणाम करते हैं।

भारतीय षड् दर्शनों में योग दर्शन का स्थान अति महत्वपूर्ण है। यह मात्र 195 सूत्रों में अपने पूर्ववर्ती सांख्य दर्शन के चौबीस तत्वों की अपूर्णता को अनुभव करके उसके विचारों से सर्वथा सहमत होते हुए भी

‘पुरूष विशेष ईश्वरः’

प्रकृति - पुरूष से विशिष्ट ईश्वर की स्थापना करता है तथा सनातन वैदिक परम्परा का अनुसरण करते हुए उसके प्रतीक स्वरूप -

‘तस्य वाचकः प्रणवः’।

प्रणव के अर्थानुसन्धान पूर्वक जप ध्यान का -

‘तज्जपस्तदर्थ भावनम्।’

उपासना के लिए निर्देश करता है। अतः यह विचारकों तथा उपासकों और योगियों के लिए समान रूप से आचरण की वस्तु हो कर आदरणीय हो गया है।

आपने महर्षि पतज्जलि के योग सूत्रों के व्यास भाष्य का अनुवाद बड़ी लगन व तत्परता से किया था। उसमें परिभाषिक, अनेकार्थक तथा सांकेतिक पदों के स्पष्टीकरण के लिए प्रचुर पाद-टिप्पणियां दी गयी थीं। कहना चाहिए कि मूल भाष्य के अनुवाद से भी टिप्पणियां अधिक थीं। यह एक प्रकार का कोश ग्रन्थ ही था। लगभग सौ पृष्ठों में विषय विवेचन नाम से सारगर्भित भूमिका थी। इस प्रकार योग मार्ग के जिज्ञासुओं के लिए प्रचुर सामग्री इस ग्रन्थ में संगृहीत थी। कुछ महीनों के अथक प्रयास से यह ग्रन्थ रत्न तैयार हो गया था। आपकी प्रतिभा और ग्रन्थाध्ययन का सम्पूर्ण परिचय देने के लिए यह एक ही ग्रन्थ प्रर्याप्त था।

इसके प्रकाशन का भार श्री मोतीलाल बनारसीदास ने लिया था। उन दिनों उनका कार्यालय लाहौर (अब पाकिस्तान) में था। कार्य की अधिकता के कारण वह पुस्तक वहाँ बहुत दिनों तक अप्रकाशित ही पड़ी रह गयी। सन् 1947 मेें पाकिस्तान विभाजन के समय भयंकर दंगे हुए। बाजार में आग लगा दी गयी थी। लोग शहर छोड़कर भागने लगे थे। तब तक पुस्तक का प्रकाशन प्रारम्भ हो चुका था। ‘विषय विवेचन’ प्रूफ देखने के लिए आपके पास आया था। इस हलचल से घबराकर प्रकाशकों ने अपना बहुत कुछ साज सामान वहीं छोड़कर दिल्ली में आश्रय लिया। अतः अन्य सामग्री के साथ वह पाण्डुलिपि भी वहीं रह गयी। इस प्रकार इस ग्रन्थ को उस विभाजन की बलिवेदी पर चढ़ना पडा।

‘विषय विवेचन’ ही जो संयोग वश आपके पास आ गया था, कालान्तर में कुछ परिवर्तन परिवर्द्धन के पश्चात् ‘‘योग रसायत’’ नाम से मुमुक्षु आश्रम शाहजहाँपुर (उ.प्र.) से प्रकाशित हंुआ जो अद्यावधि उपलब्ध है।

इस घटना का आपके चित्त पर यह प्रभाव पड़ा कि आपने अत्यन्त परिश्रम पूर्वक सामग्री संकलन करके ग्रन्थ लेखन का कार्य बन्द कर दिया। बाद में अनुवाद के साथ आवश्यक टिप्पणियां ही देते रहे।


सत्संग-सुधा

प्रश्न - यह कब समझना चाहिए कि हमें पूर्ण बोध हो गया?

उत्तर - जिस समय राग-द्वेष का सर्वथा अभाव हो जाय। बिना राग-द्वेष का अत्यन्ताभाव हुए साधन की पूर्णता नहीं होती। हमें ऐसे ज्ञान, ऐसे कर्म और ऐसी भक्ति की आवश्यकता नहीं है जिसमें हम सांसारिक विषयों मंे भी फंसे रहें और अपने को ज्ञानी या भक्त भी समझते रहें। हमें मोक्ष की परवाह नहीं करनी चाहिए। देखना यही चाहिये कि गृहस्थी या अपने शरीर की किसी सांसारिक वस्तु में हमारा राग तो नहीं है। जिस समय हमें कोई कत्ल करने को तैयार हो और हम प्रसन्नता से उसके लिए तैयार रहें, हमारे चित्त में किसी प्रकार का भय या विषाद उत्पन्न न हो, उस समय समझना चाहिए कि हमने राग-द्वेष पर विजय प्राप्त की है, अथवा जिस समय हमारी दृष्टि पड़ते ही सिंह आदि हिंसक जीवों की हिंसावृत्ति दूर हो जाय उस समय राग-द्वेष का अभाव समझना चाहिए।

प्रश्न - यदि ऐसी स्थिति प्राप्त न हो कि सिंहादि की सन्निधि में भी चित्त निर्विकार रह सके तो क्या उसे अपूर्ण बोधवान समझा जायेगा?

उत्तर - बोध में कमी न भी हो तो भी बोध निष्ठा में कमी माननी ही होगी। पूर्ण बोध निष्ठा में तो किसी प्रकार के सूक्ष्मातिसूक्ष्म राग-द्वेष के लिए भी अवकाश है नही। जब तक ऐसी स्थिति प्राप्त न हो तब तक अभ्यास तो करते ही रहना चाहिए।

प्रश्न - क्या राग-द्वेष की निवृत्ति घर छोड़ने पर ही हो सकती है?

उत्तर - यह कोई नियम नहीं है। यदि घर छोड़ने से राग-द्वेष की निवृत्ति हो तो घर छोड दे ओैर घर में रहने से हो तो घर मे रहे।

इस विषय में एक घटना सुनाता हूँ। महापुरूषों के चरित्रों का बड़ा विलक्षण प्रभाव होता है। हरिद्वार के पास नांगल में एक पंडित जी रहते थे। वे वेदान्त के बड़े उद्भट विद्वान थे। कितने ही विरक्त महात्माओं ने उनसे वेदान्त ग्रन्थों का अध्ययन किया था। किन्तु इतने बड़े विद्वान होने पर भी उनमें लोभ की मात्रा अधिक थी। वे सूद का काम करते थे। एक बार एक डिप्टी कलक्टर कुछ दिन की छुट्टी लेकर उनके पास आए और उनसे वेदान्त ग्रन्थों का अध्ययन करते रहे। अध्ययन समाप्त होने के थोडे़ दिन पश्चात् उन्होेनंे काशी में संन्यास लिया और फिर घूमते फिरते नांगल पहुंचे। वहाँ पंडित जी से मिलने पर उन्होंने उन्हें प्रणाम किया।

पण्डित जी ने कहा - आप महात्मा हैं, आप को मुझे प्रणाम नहीं करना चाहिए। महात्मा - यह सब तो आपकी ही कृपा का फल है आप मेरे गुरूदेव हैं। बिना आपकी कृपा हुए मुझे यह सौभाग्य कैसे प्राप्त हो सकता था।

पण्डित जी - यह अपने-अपने प्रारब्ध की बात है। आपने मुझसे अध्ययन करके 700-800 रू. की आमदनी छोड़ दी, किन्तु मैं अभी तक इस प्रपन्च में ही फंसा हुआ हूँ।

महात्मा जी से इस प्रकार बातचीत करने पर पंडित जी के चित्त मे भी वैराग्य उत्पन्न हुआ। उन्होंने अपनी पण्डितानी से कहा - हमारा विचार अब विरक्त जीवन व्यतीत करने का है, तुम यह घर संभालो। पण्डितानी पढ़ी लिखी और बड़ी बुद्धिमती थी। उसने कहा - यह तो बड़ी प्रसन्नता की बात है। मैं आपके वैराग्य में किसी प्रकार बाधक नहीं होना चाहती। परन्तु मेरी एक प्रार्थना है, उस पर आप विचार करने की कृपा करें। आपको बवासीर का रोग है, भिक्षा की रूखी सूखी रोटी आपके अनुकूल नहीं पड़ सकती। अतः लाचार होकर आपको किसी सेठ के आश्रित होकर रहना पड़ेगा। आप विद्वत्ता के लिए तो सुप्रसिद्ध हैं ही, इसलिए कोई न कोई सेवक भी मिल ही जायेगा। इसलिए आपको विरक्त जीवन का सुख प्राप्त हो सकेगा, इसमें संन्देह है। तब पंडित जी ने कहा - तुम्हारा कथन तो ठीक है परंतु अब मेरा चित्त गृहस्थ के धन्धों से भी उपरत है। ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए? पण्डितानी ने कहा - यदि आपको उचित मालूम हो तो जैसा मैं कहंू वैसा कीजिए। आपके पास जितने ग्रन्थ हैं, उन्हें ताले में बन्द कर दीजिए। केवल स्वाध्याय के लिए उपनिषद् मूल मात्र ले लीजिए। मुझसे अथवा किसी अन्य ग्रामवासी से बोलना छोड दीजिए, केवल महात्माओं के साथ सत्संग सम्बन्धी चर्चा कीजिए तथा घर में रहना छोडकर गंगा तट पर कुटी बनाकर रहिये।

पंडित जी को अपनी धर्मपत्नी का यह कथन बहुत पसंद आया और वे गंगा तट पर कुटी बनाकर रहते लगे। पंडिताइन नित्यप्रति उन्हें भोजन बनाकर दे आती थी। इस चर्या में ही उन्होेंने अपनी आयु के शेष 27-28 वर्ष व्यतीत किये।

अतः यह कोई नियम नहीं है कि बनवासी होने पर ही राग की निवृत्ति हो। घर में रहते हुए भी मनुष्य विरक्त हो सकता है और घर छोड़ देने पर भी रागी हो सकता है।

प्रश्न - मेरे चित्त की ऐसी दशा है कि चाहे यहाँ रहंू अथवा - ब्रह्मचारी जी के यहाँ जाऊं, मेरी चित्त वृत्ति अधिकतर श्री .....बाबा जी की ओर लगी रहती है। यह क्या मेरा राग ही है?

उत्तर - महात्माओं के प्रति जो राग होता है वह बंधन कारक नहीं होता। यह तो बड़े सौभाग्य की बात है। भगवद्भक्तों का राग तो अत्यन्त दुर्लभ है।

अक्ष्णोः फलं त्वादृकदर्शनं हि जिह्वा फलं त्वादक् कीर्तनं च।

तन्वाः फलं त्वादृक्स्पर्शनं हि सुदुर्लभा भागवता भवन्ति।।

अर्थ - नेत्रों का फल तो आप जैसे भगवत् भक्तों का दर्शन है, जिह्वा का फल आप जैसे भक्तों का गुण कीर्तन है, शरीर का फल आप जैसे लोगों का अंगस्पर्श है। इस प्रकार के भागवत पुरूष सुदुर्लभ हैं।

इस प्रकार का राग तो सांसारिक राग की निवृत्ति का प्रधान साधन है।

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भाद्र प्रथम शु. 1 संवत् 1993 वि.

प्रश्न - शास्त्र का सिद्धान्त है कि जब निष्काम कर्म और उपासना के द्वारा चित्त शुद्ध हो जाता है तभी आत्म तत्व की जिज्ञासा होती है। परन्तु आजकल देखा जाता है कि कर्म और उपासना में प्रवृत्ति हुए बिना भी बहुत से लोगों को आत्म तत्व का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा हो जाती है और उन्हें आत्म ज्ञान भी हो ही जाता है। इसका क्या कारण है?

उत्तर - आजकल तो किसी को जिज्ञासा होती ही नहीं। जिसे तुम जिज्ञासा कहते हो, वह तो सुन सुनाकर होने वाला कुतूहल मात्र है। जब से पुस्तकें सुलभ हो गयी हैं और महात्माओं में वेदान्त चर्चा की विशेष प्रवृत्ति हुई है तब से उन बातों को सुन और पढ़कर लोगों को एक प्रकार का कुतूहल सा हो जाता है। पूर्वकाल में वेदान्त विचार की प्रधानता नहीं थी। यह तो वन वासियों की विद्या है। बिना वैराग्य हुए इसकी प्राप्ति नहीं होती। पहले तो कर्म और उपासना की ही प्रधानता थी। उपासना का परिपाक होने पर जो तत्व साक्षात्कार होता था उसमें तत्काल पूर्ण निष्ठा हो जाती थी।

प्रश्न - इससे तो यह सिद्ध हुआ कि इस समय कोई ज्ञान का अधिकारी ही नहीं है। ऐसी अवस्था में किसी को उस ओर लगाना कहाँ तक उचित है?

उत्तर - वेदान्त ग्रन्थों में ऐसी बात भी आती ही है कि जिसे उपासना की पूर्णता न होने पर भी किसी प्रकार तत्व जिज्ञासा हो गयी है। उसे तत्व विवेक का ही अभ्यास करते रहने पर कालान्तर में सुदृढ़ बोध हो जाता है। इसी लिए अकृतो पास्ति ज्ञानी को मनो नाश और वासना क्षय कर्तव्य रहते हैं।

प्रश्न - वेदान्त ग्रन्थों में आता है कि उपासक प्रतिमा में विष्णु आदि का तथा नाम में ब्रह्म बुद्धि का आरोप करता है, किन्तु उपासक तो उसे आरोप नहीं समझता। फिर यह कथन किसकी दृष्टि से है।

उत्तर - उपासक और तत्ववेत्ता दोनों ही की दृष्टि से इसे आरोप नहीं कहा सकता, यह कथन केवल जिज्ञासु की दृष्टि से है जो जड़ और चेतन दोनों की सत्ता स्वीकार कर उनका विवेक करता है। भक्त की दृष्टि में भगवद् विग्रह और भगवन्नाम जड़ नहीं हैं, वे चिन्मय हैं तथा बोधवान की दृष्टि में तो जो कुछ है वह सभी सच्चिदानन्द स्वरूप है। उसके लिए तो एक अखंड चिद्घन सत्ता से अतिरिक्त और किसी भी वस्तु की सत्ता ही नहीं हैं।

प्रश्न - यदि भक्त को भगवद्विग्रह भगवान ही जान पड़ता है और तत्वतः भी वह भगवान ही है तो फिर उसे उपासना करने की क्या आवश्यकता है। उपासना का उद्देश्य तो भगवत्प्राप्ति ही है और भगवान उसे प्राप्त ही हैं।

उत्तर - भगवद्विग्रह साक्षात् सच्चिदानन्द स्वरूप ही है - इसमें सन्देह नहीं परन्तु ऐसा दृढ़ भाव सब उपासकांे का होता नहीं। अतः उन्हें निश्चल भगवत्प्रेम की प्राप्ति के लिए उपासना कर्तव्य ही है। उपासना का मुख्य उद्देश्य भी भगवत्प्राप्ति नहीं बल्कि भगवत्प्रेम की प्राप्ति है। जीव के कल्याण के लिए वस्तुतः भाव ही की प्रधानता है। उपासकांे को जाने दो, व्यवहार में भी बिना भाव के कोई आनंद नहीं है। विवेक दृष्टि से विचार किया जाय तो माता-पितादि ही क्या है? उनके शरीर केवल अस्थि मांस और चर्मादि के पिण्ड ही तो हैं। फिर भी उनके प्रति जो पूज्य बुद्धि होती है। वह सब प्रकार कल्याण कारिणी ही है। स्त्री के शरीर में क्या सुन्दरता है। उसमें ऐसी एक भी वस्तु नहीं है जिसे रमणीय या पवित्र कहा जा सके, परन्तु उसमें रमणीयता का आरोप करके मनुष्य ऐसा आसक्त हो जाता है कि उसे धर्माधर्म का भी ज्ञान नहीं रहता। अपने शरीर की ओर देखो तो वह भी कुछ कम गन्दा नहीं है, परन्तु उसके मोह में फँसकर लोग कितना अनाचार करते हैं। इस प्रकार जब कि व्यवहार में भी भाव की इतनी प्रधानता है तो प्रतिमा में जो भगवद् भाव किया जाता है वह किस प्रकार व्यर्थ हो सकता है। भगवान तो सबमें है, सबसे परे हैं, सब हैं और सर्व भाव रूप भी है। अतः अर्चा विग्रह में जो भगव˜ाव किया जाता है वह अन्य में अन्य बुद्धि नहीं है। उसे जो आरोप कहा है वह केवल जिज्ञासु की दृष्टि है।

बलि वैश्व देव के निर्मित नीचे लिखे चार मन्त्रों से चार आहुति अग्नि में समर्पण करनी चाहिए-


ऊँ भूः स्वाहाः अग्न्येदं न मम। ऊँ भुवःस्वाहा वायवेदं न मम।

ऊँ स्वःस्वाहा सूर्यायेदं न मम। ऊँ भुर्भुवः स्वःस्वाहा प्रजापतेयेदं न मम।।

दशश्लोकी

न भूमिर्न तोयं नं तेजो न वायु र्न खं नेन्द्रियं वान तेषां समूहः।

अनैकान्ति कत्वात्सुषुप्त्येक सिद्धस्त देको ऽव शिष्टः शिवः केवलोऽहम्।।1।।

न वर्णा न वर्णाश्रमाचार धर्मा न मे धारणा ध्यान योगादयोऽपि।

अनात्माश्रयाहं ममाध्यास हानात् तदेकोऽव शिष्टः शिवः केवलोऽहम्।।2।।

न माता पिता वा न देवा न लोका न वेदा न यज्ञा न तीर्थं बु्रवन्ति।

सुषुप्तौ निरस्ताति शून्यात्मकत्वात् तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम्।।3।।

न सांख्यं न शैवं न तत्पांचरात्रं न जैनं न मीमांसकादेर्मतं वा।

विशिष्टानुभूत्या विशुद्धात्मकत्वात् तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम्।।4।।

न चोर्ध्वं न चाधो न चान्तर्न बाह्यं न मध्यं न तिर्यड्. न पूर्वापरादिक्।

वियद् व्यापकत्वाद खण्डैक रूप स्तदेकोऽवशिष्टः शिव केवलो ऽहम्।।5।।

न शुक्लं न कृष्णं न रक्तं न पीतं न कुब्जं न पीनं न ह्नस्वम् न दीर्घम्।

अरूपं तथा ज्योतिराकारकत्वात् तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलो ऽहम्।।6।।

न शास्ता न शास्त्रं, न शिष्यो न शिक्षा न च त्वं न चाहं न चायं प्रपन्चः।

स्वरूपावबोधो विकल्पासहिष्णु स्तदेको ऽवशिष्टः शिवः केवलो ऽहम्।।7।।

न जाग्रन्न में स्वप्नको वा सुषुप्तिर्न विश्वोनवा तैजसः प्राज्ञको वा।

अविद्यात्मकत्वात्तयाणां तुरीयस्तेदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलो ऽहम्।।8।।

अपि व्यापकत्वाद्धित्त्वप्रयोगात् स्वतः सिद्ध भावादनन्या श्रयत्वात्।

जगत् तुच्छ मेतत् समस्तं तदन्यत् तदेको ऽवशिष्टः शिवः केवलो ऽहम्।।9।।

न चैकं तदन्यत् द्वितीयं कृतःस्यान्न वा केवलत्वं न चाकेवलत्वम्।

न शून्य न चाशून्य मद्वैत कत्वात् कथं सर्व वेदान्त सिद्धं ब्रवीमि।।10।।

इति श्रीमत्परमहंस परिव्राजकाचार्य श्री गोविन्द भगवत्पूज्यपाद शिष्य श्रीमच्छंकर भगवतः कृतौ दशश्लोकी समाप्ता।

भावार्थ - न मैं भूमि हूँ न जल हूँ, न अग्नि, वायु और आकाश हूँ ,न कोई एक इन्द्रिय हूँ और न इन्द्रियों का समुदाय हूँ, क्योंकि ये सब अस्थिर हैं। मैं तो सुषुप्ति में अद्वितीय सिद्ध एवं एकमात्र अवशिष्ट शिवस्वरूप केवल आत्मा हूँ।।1।।

वर्ण, वर्णाश्रभोचित आचार रूप, धर्म तथा धारणा, ध्यान और समाधि आदि योग के अंग न मुझमें है, न मेरे हैं। अनात्म पदार्थांे (शरीरादि) के आश्रित रहने वाले अंहता-ममता रूप अध्यास का निराकरण होने पर जो एकमात्र अवशिष्ट रह जाता है वह शिव स्वरूप केवल आत्मा मैं हूँ।।2।। माता पिता, देवता, चौदहों लोक, चारो वेद, यज्ञ और तीर्थ कोई भी मेरा वर्णन नहीं कर सकते, क्योंकि सुषुप्ति काल में इन सबका निराकरण होने से ये अत्यन्त शून्य रूप हो जाते हैं। अतः उस समय भी जो एकमात्र अवशिष्ट रह जाता है, वह शिव स्वरूप केवल आत्मा मैं हूँ।।3।। सांख्य, शैवागम, पान्चरात्र (वैष्णवागम), जैनमत अथवा मीमांसक आदि का मत भी मेरा प्रतिपादन नहीं कर सकता, विशिष्ट (अपरोक्ष) अनुभूति - के द्वारा, विशुद्ध (माया रहित) रूप जाना हुआ जो एक मात्र अवशिष्ट शिव स्वरूप केवल आत्मा है, वह मैं हूँ।।4।। मैं न ऊपर की दिशा हूँ, न नीचे की, न भीतरी भाग हूँ, न बाहरी, न मध्य हूँ, न इधर-उधर, न पूर्व दिशा हूँ, न पश्चिम दिशा। आकाश में भी व्यापक होने के कारण जो अन्य सब वस्तुओं का बाध हो जाने पर अखण्ड एक रस रूप से अवशिष्ट होता है, वह शिव स्वरूप केवल आत्मा मैं हूँ।।5।।

मैं न सफेद हूँ न काला हूँ, न लाल हूँ न पीला, न कुबड़ा हूूँ न मोटा, न छोटा हूँ न बड़ा, तथा ज्योति स्वरूप होने के कारण मेरा कोई विशेष रूप भी नहीं है। सबका निषेध कर देने पर जो एकमात्र अवशिष्ट रह जाता है, वह शिव स्वरूप केवल आत्मा मैं हूँ।।6।।

न मैं शास्त्रोपदेशक हूँ न शास्त्र, न शिष्य हूँ न शिक्षा, न तुम न मैं और न यह प्रपंच ही हूँ। स्वरूप का बोध ही मेरा रूप है। विकल्प (भेद) का सहन न कर सकने वाला एक मात्र अवशिष्ट शिव स्वरूप केवल जो आत्मा है वह मैं हूँ।।7।।

मेरे लिए न जाग्रत है न स्वप्न अथवा सुषुप्ति ही है, न उनके अधिष्ठाता विश्व, तैजस या प्राज्ञ हैं, क्योंकि ये तीनों अविद्या रूप हैं। जो इन सबसे परे तुरीय रूप से एकमात्र अवशिष्ट रह जाता है, वह शिव स्वरूप केवल आत्मा मैं हूँ।।8।।

यह सारा जगत तुच्छ है, क्योंकि मैं व्यापक हूँ। मेरे लिए तत्व शब्द का प्रयोग होता है। मेरी सत्ता स्वतः सिद्ध है और मेरा दूसरा कोई आश्रय नहीं है- मैं स्वयं ही अपना आश्रय हूँ। अतः जगत से भिन्न एकमात्र अवशिष्ट शिव स्वरूप केवल आत्मा मैं हूँ।।9।।

उस ब्रह्म से भिन्न कोई एक भी नहीं हैं, फिर दूसरा तो हो ही कैसे सकता है। उसमें न केवलता है न अकेवलता। वह न शून्य है न अशून्य, क्योंकि वह अद्वैत रूप है। फिर मै उस सर्व वेदान्त सिद्ध आत्मा का किस प्रकार वर्णन करूँ।।10।।

(अनुवाद- पाण्डेय पं0 श्री रामनारायण दत्त जी शास्त्री) संतवाणी अंक पृष्ठ 725 से साभार।

श्रीमद् भागवत का अनुवाद

सन् 1932-33ई. की बात है। श्री प्रभुदत्त जी ब्रह्मचारी बद्रीनारायण से नीचे आ गये थे और कर्णवास में श्री उड़िया बाबा से मिलने आये थे। वहीं आपसे मिलना हुआ। श्री ब्रह्मचारी जी बड़े ही विद्वान, उत्साही तथा भावुक हृदय के युवक थे। उनकी तितिक्षा सराहनीय थी। उन्होेंने संसार से विमुख होकर ही हिमालय की यात्रा की थी और वापस न आने का संकल्प था किन्तु कनखल के पास मुक्ति पीठ की जलवायु ब्रह्मचारी जी के अनुकूल नहीं पड़ी और बहुत संयम के बावजूद संग्रहणी हो गयी। अतः हारकर लौट आये। ब्रह्मचारी ही आपके पूर्व परिचित थे। आपसे उन्होंने कहा- मेरे लिए कोई काम बताओ। आप ने कहा- आप श्रीमद् भागवत का अनुवाद करें, यह भाई जी की बड़ी इच्छा है। ब्रह्मचारी जी ने कहा - अनुवाद में तो मेरी रूचि है नहीं, कहो तो चैतन्य चरित लिख दूँ। भाई जी ने पूछने पर स्वीकृति दे दिया।

ब्रह्मचारी जी ने कहा - मेरे मित्र पं0 वागीश जी शास्त्री हैं, उनसे कहकर श्रीमद्भागवत का अनुवाद करवा दूंगा। आपने यह संदेश भी श्री भाई जी पास रतनगढ़ भेज दिया और यह भी लिख दिया कि मेरी भी इसका अनुवाद करने की इच्छा है। भाई जी ने कहा, तब आप ही करो।

कालान्तर में यह ग्रन्थ सं. 1996 वि0 में आप द्वारा ही अनुवादित होकर गीता प्रेस से प्रकाशित हुआ था। इसकी प्रस्तावना में आप लिखते हैं-

आज से कई वर्ष पूर्व की बात है। एक दिन एक इक्के पर श्री भाई जी (हनुमान प्रसाद जी पोद्दार) और श्री हरि किशन दास जी गोयन्दका के साथ मैं प्रेस से बगीचे को आ रहा था। मार्ग में मेरे श्रद्धेय साथियों में श्रीमद् भागवत के प्रकाशन के विषय में बात चीत होने लगी। उसी समय मेरे चित्त में इस ग्रन्थ रत्न के अनुवाद का मूक संकल्प हुआ। इस वार्तालाप के प्रसंग में ही श्री गोयन्दका जी ने श्री भाई जी से कहा - भाई जी! यदि आप ही इसका अनुवाद करें तो बड़ा अच्छा हो। इस पर भाई जी ने कहा - शिव! शिव !! मैं इस कार्य के योग्य कहाँ हँू? इसके लिए तो बड़ी योग्यता की आवश्यकता है।

श्रद्धेय भाई जी की यह बात सुनकर मेरे संकल्प में कुछ ठेस लगी और मैं सोचने लगा, यदि भाई जी ही इस कार्य के योग्य नहीं हैं तो मैं इसे कैसे कर संकूंगा।

अस्तु, उस समय इससे अधिक कुछ नहीं हुआ। धीरे-धीरे इस ग्रन्थ के अनुवाद के लिए जहाँ तहाँ बातचीत होने लगी। मैंने भी उसमें कुछ सहायता की । किन्तु उस संकल्प का बीज तो मेरे हृदय में भी था ही। एक बार प्रसंगवश मैंने अपनी इच्छा भाई जी को लिख दी और उन्होंने तुरन्त मुझे इस कार्य के लिए अपनी स्वीकृति दे दी।

मैंने बड़े उत्साह से मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा सं0 1988वि0 को अनुवाद प्रारम्भ कर दिया, इससे पूर्व मुझे कभी इस ग्रन्थ रत्न के अनुशीलन का सौभाग्य नहीं हुआ था। इसलिए आरम्भ करने के पश्चात् मुझे अपनी अयोग्यता महसूस होने लगी। कुछ दिन पीछे यह उक्ति भी सुनी- ‘विद्यावतां भागवते परीक्षा’। इससे चित्त में और भी शंका होने लगी। जिस ग्रन्थ में विद्वानों की परीक्षा होती है, उसमें एक विद्या विहीन का प्रवेश कैसे होगा।

किन्तु यह सब होते हुए भी मेरा उत्साह शिथिल नहीं हुआ। मुख्यतः लोकैषणा ने ही इसे सजीव बनाये रखा। यद्यपि परमार्थ पथ के पथिक के लिये सभी प्रकार की एषणायें हेय ही हैं, तथापि लोक में बहुत से कार्य इन्ही की प्रेरणा से होते हैं। उस समय यही बात इन पंक्तियांे के लेखक के विषय में भी हुई। इस प्रकार डेढ़ वर्ष तक यह कार्य चलता रहा। बीच बीच में प्रेस के और भी कार्य होते रहे। अन्त में आषाढ़ शुक्ला षष्ठी सं0 1989 विं0 को भागीरथी के तट पर वैकुण्ठाश्रम, मियॉं गंज(फर्रूखाबाद) में यह अनुवाद समाप्त हुआ।

अस्तु! अनुवाद समाप्त हो जाने पर प्रायः दो वर्ष तक तो यों ही पड़ा रहा। उस के बाद विचार हुआ कि यदि मूल ग्रन्थ का पाठ किसी प्राचीन प्रति से मिला लिया जाय तो विशेष प्रामाणिक रहे। इसके लिए विद्वानों से, मुख्यतया श्रीमन्मध्व गौड़ सम्प्रदायाचार्य गोस्वामी श्री दामोदर लाल जी कविराज एम. ए. से परामर्श किया गया। श्री कविराज महोदय ने बताया कि कालेज के सरस्वती पुस्तकालय में एक प्रति प्रायः आठ सौ वर्ष पूर्व की लिखी हुई है। अभी तक इतनी प्राचीन और कोई प्रति उपलब्ध नहीं हुई। यदि उसके अनुसार पाठ रखा जाय तो बहुत अच्छा हो।

तब श्री कविराज जी के तत्वावधान में पाठ संशोधन का कार्य आरम्भ हुआ। किन्तु पीछे उक्त प्रति के अनुसार पाठ रखने में कई प्रकार की अड़चनें समझकर उन्ही की सम्मति से केवल पाद टिप्पणियों में इसके पाठान्तर देने का निश्चय हुआ।

इसके पश्चात् अनुवाद के संशोधन का विचार हुआ। अतः पहले देवर्षि पं0 रमानाथ जी भट्ट से यह कार्य कराया गया और फिर श्रद्धेय पंडित श्री रामनारायण दत्त जी शास्त्री तथा श्रद्धेय श्री हरिकृष्ण दास जी गोयन्दका ने मिलकर बांकुडा में सम्पूर्ण ग्रन्थ का संशोधन करने की कृपा की। इन तीनों महानुभावों का मैं अत्यन्त कृतज्ञ हँू।

इस ग्रन्थ पर मध्य कालीन महात्माओं की बड़ी श्रद्धा रही है। विशेषकर वैष्णव संतो का तो यह परम प्रमाण ही रहा है। वे तो इसका वेदों से भी बढ़कर आदर करते रहे हैं। उनके सिद्धान्तानुसार भगवत्प्राप्ति के मर्यादा और अनुग्रह दो मार्ग हैं। इनमें अनुग्रह मार्ग विशेष महत्वशाली है, क्योंकि अनुग्रह मार्गी के उद्धार का उत्तर दायित्व स्वयं श्री भगवान के हाथ में होने के कारण वह सर्वथा निरापद है। किन्तु वेदों में केवल मर्यादा मार्ग का ही उल्लेख है और श्रीमद् भागवत में अनुग्रह मार्ग की प्रधानता है। इसलिए वे इस महाग्रन्थ का श्रुति से भी अधिक मान करतें है। इसी से श्रीमद् वल्लभाचार्य ने उपनिषद् गीता और ब्रह्मसूत्र के साथ भागवत को भी सम्मिलित करके प्रस्थान भय के स्थान में प्रस्थान चतुष्टय की स्थापना की है।

श्रीमद् भागवत के ऊपर मध्यकालीन संत और आचार्यों की अनेक टीकायें हैं। सर्व श्री श्रीधर स्वामी, बल्लभाचार्य, विजयध्वज, शुकदेव, वीर राघव, जीव गोस्वामी, सनातन गोस्वामी और विश्वनाथ चक्रवर्ती इसके प्रधान टीकाकार हैं। इनमें श्रीधर स्वामी की टीका सर्वमान्य है। प्रस्तुत अनुवाद में प्रायः उसी का अनुसरण किया गया है। कहीं कही आवश्यकतानुसार अन्यान्य टीकाओं का भी आश्रय लिया है। उपर्युक्त टीकाकारों में श्रीधर स्वामी ही सबसे प्राचीन हैं। उनसे पूर्ववर्ती अन्य आचार्य की टीका आजकल देखने में नहीं आती। किन्तु श्रीमध्वाचार्य जी ने अपने भागवत तात्पर्य निर्णय नामक ग्रन्थ में श्री हनुमान जी और चित्सुखाचार्य जी की टीकाओं का उल्लेख करते हुए श्रीमद् भागवत के वोपदेव कृत होने का निराकरण किया है। वहाँ वे कहते हैं -

बोपदेव कृतत्वे च वोपदेव पुराभवैः।

कथं टीका कृता संस्युर्हनुमच्चित्सुखादिभिः।।

इससे सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ बहुत प्राचीन काल से ही विद्वानों की श्रद्धा का विषय रहा है। आज भी सर्व साधारण में जितना इसका प्रचार है उतना गीता के सिवा अन्य किसी संस्कृत ग्रन्थ का नहीं है। विनयावनत - मुनिलाल

उपनिषद शांकर भाष्य का अनुवाद

अनुवाद की प्रस्तावना

‘‘उपनिषदें साक्षात् कामधेनु हैं। ब्रह्मसूत्रों की रचना भी इन्हीं के वाक्यों और शब्दों की संगति लगाने के लिए हुई है तथा श्रीमद् भगवत गीता भी गोपाल नन्दन कृष्ण द्वारा दुहा हुआ इन्हीं का दूध है। भारत वर्ष में जितने आस्तिक सम्प्रदाय हैं, उन सबके आधार ये ही तीन ग्रन्थ रत्न हैं। ये प्रस्थान त्रयी कहलाते हैं। प्रायः सभी सम्प्रदायों के आचार्यो ने इनकी विवेचनात्मक व्याख्या लिखकर अपने मत स्थापित किये हैं। अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, द्वैत और शिवाद्वैत आदि सभी सम्प्रदाय की आधार शिला ये ही ग्रन्थ रत्न हैं। अपने अपने विचारानुसार आचार्यों ने उनमें अपने ही सिद्धान्त की झांकी की है। अद्वैत वाद के प्रधान आचार्य भगवान शंकराचार्य हैं। उनके भाष्य की गंभीरता, विद्वता, स्फुटता और प्रमाणिकता सभी ने स्वीकार की है। उनकी प्रसन्न गम्भीर लेखनी का वास्तविक रसास्वाद तो वे ही कर सकते हैं, जो सब प्रकार साधन सम्पन्न, अद्वैत निष्ठ तथा संस्कृत वाड.मय के प्रौढ़ विद्वान है। तथापि जिन्हे यह सौभाग्य प्राप्त नहीं है, उनमें से बहुत से महानुभाव, जो उनके अबाध्य सिद्धान्त पर मुग्ध होकर उनके चरणों पर निछावर हो चुके हैं, उनकी वाणी का भाव मात्र जानने के लिए निरन्तर उत्सुक रहते हैं। उनके साथ स्वयं भी उस भाव का अवगाहन करने के लिये ही मैंने भगवान शंकराचार्य के उपनिषद भाष्य का भावार्थ लिखने का दुःसाहस किया है।

यद्यपि मैं किसी प्रकार इस महान कार्य को हाथ मे लेने की योग्यता नहीं रखता, तो भी जिसकी इच्छा से सम्पूर्ण प्राणी अहर्निश भिन्न भिन्न कार्यों में लगे रहते हैं, उन सर्वान्तर्यामी जगन्नाट्य सूत्रधार ने ही मुझे भी इसमें जोड़ दिया। मेरी इस चपलता से यदि कुछ महानुभावों का मनोरंजन हो सका तो मैं इस प्रयास को सफल समझूंगा।’’

प्रथम ईशावास्योपनिषद् गीता प्रेस से प्रकाशित हुआ तथा दूसरे उपनिषदों का प्रकाशन भी द्रुत गति से हो रहा था। उन्हीं दिनों सं. 1992 विं0 में पूज्य स्वामी श्री करपात्री जी की अध्यक्षता में वाराणसी के धर्म संघ से निकलने वाले साप्ताहिक ‘पंडित’ पत्र में बिना नाम दिये सात प्रमुख व्यक्तियों के कार्यों की आलोचना प्रकाशित हुई। श्री मालवीय जी, श्री गांधी जी, श्री उड़िया बाबा जी, श्री हरि बाबा जी, श्री जयदयाल गोयन्दका, श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार तथा श्री मुनिलाल जी।

श्री मुनिलाल जी के सम्बन्ध में लिखा था- ‘‘कुछ लोग ऐसे हैं कि संस्कृत की विशेष योग्यता न होने पर भी इधर-उधर से दूसरे ग्रन्थों को देखकर उपनिषदादि का अनुवाद करते हैं और प्रति पृष्ठ के हिसाब से पारिश्रमिक लेकर ब्राह्मणों की वृत्ति का हनन करते हैं।’’

वह पत्र श्री भाई जी ने लेकर आपको बताया। आपने कहा - बात तो ठीक ही कहते हैं। मेरी संस्कृत की कोई योग्यता नहीं और अनुवाद भी मैंने पैसे के लिये ही किया है। पैसा तो मिल गया है, अब आप ऐसा करें कि अनुवादक की जगह मेरा नाम न दें।

उस समय आपके मन में श्रीमद्भागवत तथा उपनिषद भाष्य दोनों के लिये ही अनुवादक की जगह नाम न देने का विचार हुआ था। उपनिषदों के लिये तो कह दिया था और श्रीमद् भागवत कालान्तर में प्रकाशित हुआ, उस समय कुछ लोकैषणा का भाव आ गया, इसलिये कहा नहीं। उसका परिणाम यह हुआ कि भागवत तो एक संस्करण होने के बाद छपी नहीं और उपनिषदों के अनुवादक के रूप में लोग अब भी जानते हैं।

अनुवादक की जगह अपना नाम न देने का निश्चय करने पर आपको जैसी शांति मिली वैसी बाद में अन्य किसी कार्य से नहीं मिली।

स्वप्न में ऋषि दर्शन

गीता प्रेस के कार्य काल में एक रात्रि को आपने स्वप्न में देखा- प्रातः काल का समय है, आप गंगा तट पर बैठे हुए हैं। किसी ने कहा - देखो, ऋषि उतर रहे है। आपने सामने देखा, दो ऋषि आकाश में उल्टे होकर नीचे आ रहे थे। उन्होंने पहले अपनी जटाओं से गंगाजल को स्पर्श किया फिर सीधे होकर स्नान करने लगे। स्नान के पश्चात् चलते समय आप उनका चरण-स्पर्श करने के लिए झुके, उस समय वे लोग रास्ता काटकर आगे चले गये। उनके हाथ मे एक कलश था। जाते समय उसे छोड़ गये। उस पर लिखा था - ‘‘याज्ञवल्क्य’’ं।

भक्त श्री गुलराज जी कानोडिया से परिचय

दिल्ली मैं ‘कुदसिया घाट’ एक मौहल्ला है। उसमें गुलराज जी का घाट ‘मारवाड़ी घाट’ कहलाता है। वहीं भक्त श्री गुलराज जी कानोडिया रहते थे। उनका सत्संग भी होता था।

एक बार श्री उड़िया बाबा जी दिल्ली पधारे थे। भक्त जी भी बाबा के सत्संग मंे आते थे। वहीं आपसे उनका परिचय हुआ। बाद में यह सम्बन्ध घनिष्ट होता गया और आपका दिल्ली में स्थाई निवास उन्हीं के यहाँ होने लगा। वे तत्वनिष्ठ थे, उनका व्यवहार मृदु था। घाट पर यदि किसी का किसी से मनो मालिन्य हो जाता तो जब तक वे उसे शान्त नहीं कर लेते तब तक उन्हें चैन नहीं पड़ता था। उनके सत्संग में ही आपका परिचय भिवानी के सेठ गजानन्द जी से हुआ था।

सेठ श्री जय दयाल जी गोयन्दका का सत्संग

गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक श्री जय दयाल जी गोयन्दका का प्रतिवर्ष ऋषिकेश में सत्संग होता था। सं0 1996वि. में हरिद्वार का कुंभ होने के कारण वहांँ स्थान का संकोच था। इसलिए यह प्रश्न हुआ कि इस वर्ष का सत्संग कहाँ किया जाय। इन दिनों श्री मुनिलाल जी कर्णवास में ठहरे हुए थे। उन्होंने श्री गोयन्दका जी को यह सुझाव दिया कि इसके लिए कर्णवास बहुत उपयुक्त स्थान है। उनके अनुरोध से वे श्री घनश्याम दास जालान के साथ कर्णवास आये और उन्हें वह स्थान बहुत उपयुक्त जान पड़ा। तभी बांध पर जाकर उन्होंने इस अवसर पर कर्णवास विराजने के लिए श्री उड़िया बाबा और श्री हरि बाबा जी को आमन्त्रित किया। सत्संग की व्यवस्था श्री मुनिलाल जी को सौंपकर उनकी सहायता के लिए रघुवीर जी को भेज दिया गया और जहाँ तहाँ पत्रों द्वारा इसकी सूचना भेज दी।

कर्णवास की सब धर्मशालायें सत्संगियों के ठहरने के लिए मांग ली गयी। श्री जय दयाल जी डिबाई वाली कुंज में ठहरे और सीतामऊ के राजा साहब सीता बाई की धर्मशाला मे।

पक्के घाट पर भंडारे का प्रबन्ध रहा और सत्संग होता था बुधऊ माता के स्थान पर! इस अवसर पर दूर-दूर से अनेकों सत्संगी एकत्र हुए। श्री महाराज जी पूरे सत्संग में रहे। सायं काल में जो गंगा जी की रेती में सत्संग होता था उसमें आप नियम से सम्मिलित होते थे।

(हमारे श्री महाराज जी, पृष्ठ 304-5)

तीर्थ यात्रा

सन् 1939 ई. में गीता प्रेस से तीन धाम (जगन्नाथ पुरी, द्वारका और रामेश्वरम्) के लिए स्पेशल तीर्थ यात्रा ट्रेन निकाली गयी थी। मार्ग में पड़ने वाले पुण्य स्थलों का दर्शन भी होता चलता था। आस्थावान यात्रीगण भी पर्याप्त थे।

इस यात्रा में श्री जयदयाल जी गोयन्दका, पं0 श्री राम नारायण दत्त जी शास्त्री, श्री शान्तनु बिहारी जी द्विवेदी (बाद में स्वामी श्री अखण्डानन्द सरस्वती) और आप (श्री मुनिलाल जी) भी थे और भी सहधर्मी सत्संगी विद्वान सहयात्री थे।

यात्रा में श्री शान्तनु बिहारी जी द्विवेदी और आप ट्रेन में एक ही बिस्तर पर सोते थे। पं0 श्री रामनारायण दत्त जी शास्त्री ऊपर टांन पर सोते थे। इनका परस्पर विनोद भी चलता रहता था। एक दिन आप के सम्बन्ध मंे श्री द्विवेदी जी ने यह पंक्ति पढ़ी -

श्री युत मुन्नीलाल जी अग्रवाल कुल बाल।

तभी श्री शास्त्री जी ने दूसरी पंक्ति पढ़कर पद पूरा कर दिया -

दो दो ग्रन्थों का करें भाषान्तर हर साल।।

इस यात्रा की एक घटना उल्लेखनीय है। जब दक्षिण भारत में यह लोग त्रिवन्ना मलाई पहुँचे तब वहाँ के प्रसिद्ध संत श्री रमण महर्षि के दर्शनार्थ उनके आश्रम में गये। सेठ श्री जयदयाल जी गोयन्दका महर्षि से सत्संग करना चाहते थे। किन्तु समस्या यह थी कि महर्षि तेलगु ही जानते थे। उनके साथ रहने वाला दुभाषिया उन्हें अंग्रेजी से तेलगू में समझा सकता था। इधर सेठ जी न तेलगू जानते थे न अंग्रेजी, फिर सत्संग कैसे हो? तब आपने दुभाषिया बनकर सेठ जी की बात का अंग्रेजी रूपान्तर महर्षि के दुभाषिये तक पहुँचाया तथा उनकी बात हिन्दी मंे रूपान्तरित करके अपने साथियों तथा सेठ जी को बताया। इस प्रकार के सत्संग में निम्न लिखित प्रश्नोत्तर हुए -

जयदयाल गोयन्दका - यदि मूल में परमतत्व एक ही है तो इस दृश्य की प्रतीति किसको, कब से और क्यों हुई।

रमण महर्षि - यह प्रश्न करने वाला कौन है?

जय0 - जिज्ञासु।

रमण0 - जिज्ञासु किसे कहते है?

जय0 - जिसे ज्ञान की इच्छा है।

रमण0 - ये ज्ञान और अज्ञान जिसे होते हैं, उसका अनुभव होने पर यह प्रश्न हो नहीं सकता।

जय0 - ठीक है, अनुभव होने पर प्रश्न नहीं हो सकता, परन्तु जब तक अनुभव नहीं है और उसे अनुभव करने की इच्छा है तब तक तो यह प्रश्न बन ही सकता है। और इसका कोई उत्तर भी होना ही चाहिए।

रमण0 - इसका कोई उत्तर नहीं है - यही इसका उत्तर है। वास्तव में यह प्रश्न बन नहीं सकता। जिसे ज्ञान और अज्ञान होते हैं उसे जानना चाहिये। उसे जान लेने पर स्वयं वही रह जायेगा।

जय0 - उसे कैसे जान सकते है?

रमण0 - इस प्रश्न पर विचार करते रहने से उसका अनुभव हो जायेगा। जब तक अनुभव नहीं होता तब तक ऐसी उत्सुकता रहनी अच्छी ही है।

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जयदयाल - ध्यान करते समय वृत्ति ध्येय में स्थिर न होकर जो तरह तरह के विचार आने लगते है उसकी निवृत्ति किस प्रकार हो सकती है?

रमण0 - अनात्म वस्तुओं में आसक्ति होने से ही चित्त इधर-उधर भटकता है। अतः चित्त को उसकी ओर से हटाकर आत्म चिन्तन में ही लगाने का प्रयत्न करना चाहिए। यह चिन्तन करने वाला कौन है? इसका चिन्तन करने से अन्य चिन्तन विरत हो सकता है।

जय0 - विचार से यह निश्चित हो जाने पर भी कि हमारा देहादि अनात्म पदार्थांे से कोई सम्बन्ध नहीं हैं, चित्त उन्हीं के विषय में चिन्तन करने लगता हैं, इसका क्या कारण है और ऐसे चिन्तन की निवृत्ति कैसे हो सकती है?

रमण0 - इसमें अभ्यास और वैराग्य की कमी ही कारण है, और उनकी दृढ़ता से ही इनकी निवृत्ति हो सकती है।

जय0 - अभ्यास की दृढ़ता कैसे हो?

रमण0 - अभ्यास करते रहने से।

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जयदयाल - आत्मा का ध्यान करते समय क्या चिन्तन करना चाहिए?

रमण - आत्मा का ध्यान करने से तो ध्याता ही ध्यान का विषय हो जायेगा, फिर उसका ध्यान कौन करेगा?

जय0 - यदि उसका ध्यान नहीं किया जायेगा तो उसके स्वरूप का ज्ञान कैसे होगा?

रमण - ‘तुम हो’ इतना तो तुम जानते ही हो। जिस समय विचार के द्वारा तुम वास्तविक तत्व को जान लोगे, उस समय तुम्हंे अपने स्वरूप का भी ज्ञान हो जायेगा।

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मुरलीलाल - साधक को यह कब समझना चाहिये कि अब मुझे परमात्मा की उपलब्धि हो गयी।

रमण - जब तक यह जानने की इच्छा है तब तक परमार्थ की उपलब्धि नहीं समझनी चाहिए। परमार्थ का ज्ञान होने पर ऐसी इच्छा नहीं रहती।

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रमाकान्त - क्या नाम जप भी परमार्थ की उपलब्धि में सहायक है?

रमण - अवश्य।

जय0 - और निष्काम कर्म भी?

रमण - हां, निष्काम कर्म भी।

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रमाकान्त - नाम का स्वरूप और परमार्थ तत्व के साथ उसका सम्बन्ध क्या है?

रमण - नाम और नामी का अभेद होता है। नाम ही नामी है, और नामी ही नाम है। नाम जप से ही परमार्थ की उपलब्धि होती है। जिनकी किसी भी भगवन्नाम में दृढ़ आस्था नहीं है और यह जानने की इच्छा है कि मैं कौन हूँ। उसे अहं पद का ही विचार करना चाहिए। यह भी एक नाम है। इसका विचार भी एक प्रकार का चिन्तन ही हैं।

रमाकान्त - जापक को किस नाम का जप करना चाहिये?

रमण - किसी भी भगवन्नाम का जप किया जा सकता है। सब समान हैं।

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जय0 - यह जानते हुए भी कि अनात्म वस्तुओं से हमारा कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं, जब कभी हानि-लाभ, मान-अपमान, या सुख-दुख की प्राप्ति होती है तो चित्त की समता नष्ट हो ही जाती है। इसका क्या कारण है और किस प्रकार इसकी निवृत्ति हो सकती है?

रमण - इसका कारण निष्ठा की कमी ही है जब कभी इनका आवेश हो उस समय ऐसा चिन्तन करना चाहिए कि जिससे राग-द्वेषादि हो रहे हैं वह कौन है? और उसका इनसे क्या सम्बन्ध है। इस प्रश्न पर विचार करते रहने से चित्त अन्तर्मुख होगा और इन दोषों का वेग भी शमन हो जायेगा।

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इस प्रकार सत्संग का आनन्द लेते हुए यात्रीगण वापस गोरखपुर आकर अपने-अपने गन्तव्य स्थल पर सानन्द पहँुच गये।

छोटे भाई की मृत्यु

आपके छोटे भाई थे देव कुमार जी। वे आप से उम्र में दस वर्ष छोटे थे। यह संभवतः 1936-37 ईं की घटना है। तब आप गीता प्रेस में ही कार्यरत थे। देव कुमार को भी वहीं नौकरी लगवा दिये थे। उन दिनों गीता प्रेस से एक सस्ते गल्ले की दूकान लगती थी। देव कुमार जी ही उसके इन्चार्ज थे।

आषाढ़ मास की अमावस्या को सूर्य ग्रहण था। उस समय देव कुमार जी गोरखपुर में ही थे। ग्रहण स्नान के लिए राप्ती नदी के तट पर भीड़ हो रही थी। उसमें वे भी थे। युवावस्था थी, तैरने का शौक था। नदी में छलांग लगाकर तैरते हुए उस पार चले गये। कुछ देर ठहरकर वापस इस पार आने लगे। बीच धारा में जल अधिक गहरा था, भँवर पड़ रही थी, उसी मे फँस गये और शरीर अतल गहराई में डूबता चला गया। बाद में लोगों ने उनके शरीर को पाने के लिये नौका आदि लेकर बहुत प्रयास किया किन्तु शव नहीं मिला।

उन दिनों आप देहरादून और मसूरी के बीच राजपुरा में निवास कर रहे थे। आपके पास गीता प्रेस से तार भेज दिया गया-‘खेद है, देव कुमार डूब गया, शव नहीं मिला।’ तार लेकर पोस्ट मैन आपको देने के लिये गया। उस समय आप ध्यान कर रहे थे। उसने पड़ोस में एक व्यक्ति से कह दिया कि उठने पर कह दीजियेगा कि उनका तार आया है। पोस्ट ऑफिस आकर ले लेंगे। ध्यान से उठने पर उस व्यक्ति ने बताया। आपने सोचा - पिताजी का शरीर अस्वस्थ रहता है, हो सकता है उन्ही के सम्बन्ध में कुछ हो। फिर डाकघर से तार लेकर पढ़े। समाचार दुखद था ही। आपने गोरखपुर तार दे दिया कि आप का तार मिल गया है, मैं घर जा रहा हँू और खुर्जा चले गये। वहाँ सब लोग शोक मग्न थे। आपने गीता प्रेस को पत्र लिखा - यहाँ सब लोग शोक ग्रस्त हैं परन्तु जो भगवान की माया आज रूला रही है वही कल भुला देगी।

आप सोचते थे कि देव कुमार काम संभाल लेगा तो मैं सुख पूर्वक संन्यास ले लूंगा। उनकी असामयिक मृत्यु से आप के मन में वैराग्य उदय हुआ और संसार की नश्वरता प्रत्यक्ष दिखने लगी। यह विरति निरन्तर बढ़ती ही गयी।

मृत्यु भय निवृत्त हुआ

इसके दूसरे वर्ष की घटना है। आप गर्मियों में नीलकंठ (ऋषिकेश) में रह रहे थे। एक दिन प्रातः काल टहल कर लौट रहे थे। रास्ते में कुछ सोचते हुये ही आ रहे थे। चिन्तन का विषय तो स्मरण नहीं रहा किन्तु उसमंे अन्तिम बात मन में यही आई कि यदि ऐसी बात हैं जो जैसा जीना, वैसा मरना। और तब से मृत्यु का भय चित्त से निकल गया।

इससे पहले दूसरों के मरने जीने का तो चित्त पर प्रभाव नहीं पड़ता था, किन्तु स्वयं मरना नहीं चाहते थे। ऐसा भाव रहता था कि जब काम पूरा हो जाय तभी शरीर छूटे। अब वह भाव भी निवृत्त हो गया।

विरक्त सप्ताह

सन् 1939ईं माघ शुक्ल एकादशी को स्वामी श्री अखण्डानन्द जी ने संन्यास लिया। उसके पश्चात् फाल्गुन मास में बांध पर श्री महाराज जी (उड़िया बाबा) के पास चले आये। और फिर अधिकतर उनके साथ ही रहने लगे। उस वर्ष का चातुर्मास श्री महाराज जी ने कर्णवास में किया। इस बीच में स्वामी प्रबोधानन्द और ब्रह्मचारी शिवानन्द आन्जनेय भी विरक्ताश्रम में दीक्षित हो चुके थे। इन सबका प्रथम चातुर्मास यही था।

श्री मुन्नीलाल जी पूर्वाश्रम में स्वामी श्री अखण्डानन्द जी की भागवत-कथा सुन चुके थे। उनका संकल्प हुआ कि श्री महाराज जी (उड़िया बाबा) को उनका भागवत सप्ताह सुनाया जाय। इन्हांेने श्री महाराज जी और स्वामी जी से इसके लिए प्रार्थना की। दोनों ने ही स्वीकृति दे दी। अतः पक्के घाट पर श्री गनेशी लाल जी की यज्ञ शाला में इसका आयोजन हुआ। पूज्य स्वामी जी भागवत के अद्वितीय वक्ता हैं। संन्यास लेने पर उनका यह प्रथम सप्ताह हुआ। आपकी प्रवचन शैली बड़ी ही स्वाभाविक विवेचनात्मक और मनोमुग्ध करने वाली है।

सभी को बड़ा आनन्द हुआ। इस सप्ताह के मुख्य श्रौता थे श्री मुन्नीलाल जी। श्री महाराज जी और स्वामी निर्मलानन्द जी ने पूरा सप्ताह सुना। मूल का पाठ पंडित तुलसी राम जी ने किया और दो-तीन पंडित जापक रहे। इस सप्ताह में बडे़-बड़े चमत्कार हुये। कई लोगों ने बाद में बताया कि हमें भागवत के सिंहासन पर बालकृष्ण की झांकी स्पष्ट दिखलाई पड़ी। बाहरवें स्कन्ध का सप्ताह प्रवचन करते समय शुकदेव जी की विदाई के प्रसंग में स्वामी जी बेसुध हो गये। कुछ भक्तों को बड़ा दुख हुआ।


1. ऋषिकेश के उत्तर में नीलकंठ, पूर्व में चक्रेश्वर, दक्षिण में रामेश्वर ओर पश्चिम में विल्वकेश्वर। इस प्रकार चार दिशाओं में चार शिव लिंग हैं।


कुछ को ऐसा अनुभव हुआ कि महाराज श्री की गोद में यशोदा स्तनन्धय आनन्दकन्द श्री बाल मुकुन्द क्रीड़ा कर रहे हैं। स्वामी जी कहते हैं कि ‘‘मुझे उस समय स्पष्ट अनुभव हुआ कि वस्तुतः सप्ताह प्रवचन श्री शुकदेव जी महाराज ही कर रहे थे, मैं नहीं। उनके चले जाने से शरीर की शक्ति क्षीण, वाणी की गति एवं स्वर मन्द पड़ गये थे।

श्री मुनीलाल जी की आर्थिक स्थिति सामान्य थी। इस आयोजन में (उस समय के तीन सौ रूपये खर्च हुए थे, फिर भी) विशेष धूमधाम न होने से लोग इसे विरक्त सप्ताह कहने लगे।

(हमारे महाराज जी पृष्ठ 309 के आधार पर)


स्वामी श्री शरणानन्द जी के सम्पर्क में

श्री स्वामी शरणानन्द जी ऋषिकेश गये हुए थे। वहीं श्री उडिया बाबा जी, आप तथा दूसरे सत्संगी भी गये थे। स्वामी जी का प्रवचन हो रहा था। उसे सुनकर आप बहुत प्रभावित हुये और उनके पास जाने लगे। धीरे-धीरे आत्मीयता बढ़ गयी। साधना की दृष्टि से भी आपको उनसे पर्याप्त लाभ मिला।

स्वामी जी ने वृन्दावन में मानव सेवा संघ की स्थापना की है। यहाँ त्याग प्रेम और सेवा के माध्यम से ‘‘मानवता में ही पूर्णता निहित है’’। इस सिद्धान्त की सिद्धि का प्रयास है और इसके पीछे प्रभु कृपा पर पूर्ण विश्वास ही सच्चा पाथेय है।

बात सन् 1944 के गर्मियों की है। गीता प्रेस के संस्थापक जी जयदयाल जी गोयन्दका का सत्संग ऋषिकेश में हो रहा था। आप भी उसमें सम्मिलित थे। स्वामी जी भी एक दिन सत्संग में आये थे। वहीं आपका स्वामी जी से साक्षात्कार हुआ। उन दिनों आपके मन में संन्यास लेने की इच्छा तो होती थी किन्तु शारीरिक अस्वस्थता का विचार करके मन कतरा जाता था।

आपकी स्थिति से अवगत होकर स्वामी जी ने कहा - ‘ईश्वर, धर्म तथा समाज किसी के ऋणी नहीं रहते। इनके लिये त्याग करने वाला कभी घाटे में नहीं रहता।’

उनके वाक्य से आपको बड़ी प्रेरणा मिली तथा उनकी अवस्था देखकर मन में साहस भी जगा। आपने सोचा - ए नेत्रहीन हैं और इन्हें प्रायः सहारे की आवश्यकता होती ही है। ऐसी दशा में जब इनका निर्वाह हो जाता है तो मैं तो इनसे अच्छी स्थिति में हूँ। फिर मेरा निर्वाह क्यों नहीं होगा।

धीरे-धीरे उनसे सम्बन्ध बहुत अधिक बढ़ गया। यह कहा जा सकता है कि किसी भी संत से इतनी घनिष्टता नहीं हुई।

स्वामी जी का सन्देश (साधकों के लिये)

जाने हुए असत के संग का त्याग करते ही असाधन का नाश और साधन की अभिव्यक्ति स्वतः होने लगती है।

असत के संग को मुख्यतः तीन भागों में बांटा जा सकता है-

1. विवेक विरोधी कर्म।

2. विवेक विरोधी विश्वास।

3. विवेक विरोधी सम्बन्ध।

विवेक विरोधी सम्बन्ध का अर्थ है - ऐसा सम्बन्ध जो सुरक्षित नहीं रह सकता। वस्तु व्यक्ति अवस्था एवं परिस्थिति से सम्बन्ध विवेक विरोधी सम्बन्ध है। क्यांेकि ये अनित्य हैं। उत्पत्ति विनाश युक्त हैं, परिवर्तन शील हैं एवं पर-प्रकाश्य हैं। विवेक विरोधी विश्वास का अर्थ हैं- वस्तु व्यक्ति अवस्था एवं परिस्थिति में जीवन बुद्धि स्वीकार करना अर्थात् प्रतीति में सत्यता एवं सुन्दरता का आभास है।

विवेक विरोधी कर्म का अर्थ है- वह कर्म जिसमें अपने विवेक का समर्थन न हो। यथा- अपने प्रति दूसरों के द्वारा भलाई की आशा रखते हुए भी हम दूसरों की बुराई में प्रवृत्त होते हैं तो इस कर्म मंे अपने विवेक का समर्थन नहीं हैं।

सन्त वाणी

निर्वासना आ जाने पर जो वाणी निकलती है, वहीं संत वाणी है। क्योंकि संत होने पर ही संत वाणी प्राप्त होती है। संत होने के लिए सभी मनुष्य सर्वदा स्वतन्त्र हैं, क्योंकि परतन्त्रता उसी कार्य में होती है, जिसके लिए बाह्य सहायता की आवश्यकता हो। संत होने के लिये किसी प्रकार के संगठन की आवश्यकता नहीं होती, प्रत्युत ज्यों ज्यों बाह्य सहायता से मुक्त होता जाता हैं त्यों त्यों संत होने का अधिकारी होता जाता है। बाह्य सहायता के त्याग में साधक सर्वथा स्वाधीन है क्योंकि पराधीनता ग्रहण में है, त्याग में नहीं। वस्तुओं की सत्यता तथा सौन्दर्य ने प्राणी को त्याग में परतन्त्र सा बना दिया है। जब साधक अपने में से वस्तु भाव निकाल देता है अर्थात् अपने में किसी प्रकार की सीमित स्वीकृति जीवित नहीं रखता तब निर्वासना बिना ही प्रयत्न आ जाती है। निर्वासना आते ही सच्ची आस्तिकता आ जाती है। आस्तिकता आ जाने पर वस्तुओं की दासता मिट जाती है। वस्तुओं की दासता मिटते ही दृष्टि बिना दृश्य के स्थिर हो जाती है। चित्त बिना आधार के शान्त हो जाता है। प्राण बना ही निरोध के लय होने लगता है। ज्यों ज्यों इस स्वभाव की स्थिरता होती जाती है त्यों त्यों है का बोध और नहीं की निवृत्ति होती जाती है। इसका अर्थ यह नहीं हैं कि बोध तथा निवृत्ति धीर-धीरे होने वाली अवस्थायें हैं। केवल संकेत मात्र भाषा है, अर्थ पर दृष्टि रखकर विचार कीजिये। दोष की निवृत्ति और गुण की उत्पत्ति युग पद होती है। प्रयत्न दोष की निवृत्ति के लिये किया जाता है, गुण की उत्पत्ति के लिये नहीं। वस्तुओं की दासता सभी दोषों का मूल है। उसके मिटते ही निर्वासना स्वतः आ जाती है जो सभी गुणों का मूल हैं।

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संन्यासोपरान्त जब आप श्री स्वामी जी से दिल्ली में मिले और कुछ उपदेश देने के लिये कहा तो स्वामी जी ने आपसे कहा - पत्र लिखवा देता हूँ, वही मेरा संदेश है। वह पत्र इस प्रकार है -

ऊँ

दिल्ली

दि. 26.11.45

वीतराग आत्म-संतुष्ट महात्मन्, सप्रेम यथा योग्य।

आत्म सम्मान परम धन है। राग-रहित हो जाना परम निर्दोषता है। आत्म समर्पण परम बल है। सर्व अवस्थाओं से अतीत हो जाना परम त्याग है। प्रतिकूलता का भय तथा अनुकूलता की आशा न रहना ही परम तप है। अपने में ही अपने परम प्रेमास्पद की स्थापना कर सब प्रकार से अचिन्त्य तथा अभय हो जाना ही परम भक्ति है। अपने लिये अपने से भिन्न की खोज न करना ही परम प्रयत्न है। एक निष्ठता ही सफलता की कुंजी है। विकल्प रहित सद्भाव ही कल्पतरू के समान है। निज ज्ञान का आदर वास्तविक स्वाध्याय है। अपने में अपना कुछ न रखना ही अपरिग्रह है। जिन साधनों के द्वारा संयोग की दासता तथा वियोग का भय निवृत्त हो वे ही आध्यात्मिक साधन हैं। शरीर विश्व के काम आ जावे, हृदय प्रीति से छका रहे और अपने आपका बोध हो यही पूर्ण जीवन है। उन सभी प्रवृत्तियों का अन्त हो जाये जो दूसरों के हित तथा प्रसन्नता का साधन न हांे- यही वास्तव में सदाचार है। अपूर्ति की पूर्ति हो जाना ही तत्वज्ञान है। सहज सनेह ही सुगम साधन है। साधक साधन तथा साध्य की अभिन्नता ही सफलता है।

कृपा दृष्टि बनी रहे। ऊँ आनन्द, आनन्द, आनन्द।

आपका अभेद स्वरूप

शरणानन्द

आगरा

दि. 11-1-46

सच्चा असन्तोष परम सन्तोष का साधन है। त्याग सभी निर्बलताओं की अन्तिम औषधि है। जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि गीली लकड़ी को सुखाने तथा जलाने में समर्थ है उसी प्रकार त्याग मन्द असन्तोष को तीव्र कर सच्चा सन्तोष प्रदान करने में समर्थ है।

गहराई से देखिये कि निर्बलता को अधिक काल तक सुरक्षित बनाये रखने में निर्बलता की दृढ़ता के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं होता। इस कारण विचारशील निर्बलता का भय तथा शासन अधिक काल तक स्वीकार नहीं करते, प्रत्युत उसे मिटाने में घोर प्रयत्न करते हैं।

ज्ञान और क्रिया का विभाग होने पर गहरा असन्तोष तथा पूरा सन्तोष नहीं हो पाता क्योंकि ज्ञान और क्रिया का विभाग दुख का मूल मिटा देता है। इस कारण गहरा असन्तोष नहीं होता और क्रिया शक्ति परम तत्व में लीन नहीं होती, इस कारण सच्चा सन्तोष नहीं होता। ऐसी अवस्था में त्याग तथा एकान्तवास के सिवा और कोई उपाय नहीं है।

जन समूह में क्रिया का सदुपयोग होता रहता है, इस कारण असन्तोष मिट जाता है और एकान्त में क्रिया शक्ति बेकार रहने के कारण असन्तोष उत्पन्न करती है। किन्तु ज्ञान और क्रिया का विभाग भीतर बाहर से असन्तोष की अग्नि प्रज्वलित होने नहीं देता। अतः ऐसी अवस्था में क्रिया शक्ति को परम तत्व में विलीन करना परम अनिवार्य है - ऐसा मेरा विश्वास है।

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एक बार कार्तिक मास की भ्रातृ द्वितीया (यम द्वितीया) पर आप भी मथुरा में स्वामी जी के पास ठहरे थे। स्वामी जी की बहन शान्ता देवी घर-बार छोड़कर विरक्त जीवन बिताने का संकल्प ले चुकी थीं। उस दिन स्वामी जी ने पीत वस्त्र देकर उनको ब्रह्यचर्य की दीक्षा दी और उनका नाम सत्य मूर्ति रखा।

वे कुछ सामान लेकर स्वामी जी का तिलक करने को उद्यत हुईं परन्तु उन्होंनें उन्हें झिड़क कर मना कर दिया। फिर वह आपको तिलक करने लगीं तो आपने अपना बचाव करने के लिये कहा कि मैं तो चाचा हूँ। तब से वे आपको चाचा जी कहने लगीं।

स्वामी जी का देहावसान होने पर वे निराश्रित हो गयीं। ऐसी स्थिति में आपने उन्हें संभाला और यथा सम्भव उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति भी कराते रहे।

आपका कहना था कि जितना आध्यात्मिक लाभ मुझे स्वामी शरणानन्द जी से हुआ उतना गुरूदेव का छोड़कर और किसी से नहीं हुआ।


निर्विकल्प होने के उपाय

इन तीन उपायों से हम निर्विकल्प हो सकते हैं -

1. यदि तुम्हारा कोई संकल्प पूरा नहीं हो रहा हैं तो हर्षपूर्वक सहन करलो।

2. यदि तुम्हारा संकल्प किसी और का संकल्प न हो जाये तो उसका पूरा न होना भी तप ही है। यह समझकर हर्ष पूर्वक सहन करो।

3. कभी-कभी ऐसे भी संकल्प उठते हैं जिनको पूरा करने की आवश्यकता नहीं मालूम होती, तो उससे असहयोग कर लो।

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प्रिय प्राया वृत्तिर्विनय मधुरो वाचि नियमः,

प्रकृत्या कल्याणी मतिरनव गीतः परिचयः।

पुरो वा पश्चाद्वा तदिदमविपर्यासित रसं,

रहस्यं साधूनामनुपधि विशुद्धं विजयते।। उत्तर राम चरितम् (भवभूति)

चितिश्चेतन शब्दार्थ भावना वनिता यदि।

तत्कर्म बीजतामेति नोचेदाद्यं परं पदम्।।

वेद्योन्मुख त्वं सन्त्यज्य रूप यद वेदनस्य वै।

न वेदनं तन्नो कर्म तच्छान्तं ब्रह्म कथ्यते।।

तच्छ्रुतं यत्किल ज्ञप्त्यै सा ज्ञप्तिः समता यया।

तत्साम्यं यत्र सौषुप्ती स्थितिर्जाग्रति जायते।। (योगवा0 6/30)

सम्प्राप्य साम्राज्य मथा ऽऽ पदं वा, सरी सृपत्वं सुरनाथतां वा।

तिष्ठत्यखेदोदयमस्त हर्षं क्षयोदयेष्विन्दुरिवैक रूपः।। (यो.वा. 5/23/99)


सात अज्ञान भूमि(और सात ज्ञान भूमियों) का विवरण

अधमाज्ञान भूमिर्वैं तमो मुख्या विजृम्भते।

तमो रजः प्रधाना च मध्यमाऽसौ प्रकीर्तिता।।

उत्तमा ज्ञान भूमिश्च रजः सत्व प्रधानिका।

शुद्ध सत्व विकासस्य स्थले नूनं यथाक्रमम्।।

पुण्य भाजां मनुष्याणां चित्ताकारि यतो धु्रवम्।

सप्तानां ज्ञान भूमिनामधिकाराः क्रमेण हि।।

समुद्यन्ति ध्रुवं देवदुर्लभानां स्वभावतः।

ज्ञानं भूम्यश्च सप्तैता साधकान्तर्हृदि क्रमात्।।

शुद्धं सत्व गुणं सम्यग्बर्द्धयन्त्यो निरन्तरम्।

निः श्रेयस पदं नित्यं गुणातीतं नयन्त्यलम्।।

सात ज्ञान भूमियाँ

1. ज्ञानदा - यत्किंचिदासीज्ज्ञातव्यं ज्ञातं सर्वंमयेति धीः।

आ माया भूमिका याश्चानुभवः परिकीर्तितः।।

2. संन्यासदा - त्याज्यं त्यक्तं मयेत्येवं द्वितीयोऽनुभवो मतः।

3. योगदा - प्राप्ता शक्तिर्मयालब्धानुभवो हि तृतीयकः।।

4. लीलोन्मुक्ति - माया विलसितं चैतद्दृश्यते सर्वमेव हि।

न तत्र मेऽभिलाषोऽस्ति चतुर्थाेनुभवो मतः।।

5. सत्यदा - जगद्ब्रह्मेति अनुभवः पन्चमः परिकीर्तितः।

6. आनन्दपदा - ब्रह्मैवैदं जगत् षष्ठो ऽनुभवः किल कथ्यते।

7. परात्परा - अद्वितीयं निर्विकारं सच्चिदानन्द रूपकम्।

ब्रह्माहमस्मीति मतिः सप्तमोऽनुभवो मतः।।

इमां भूमि प्रपद्येवः ब्रह्म सारूप्य माप्यते।। - राजयोग संहिता


सात दर्शनों के विज्ञान का विवरण

सप्त दर्शन विज्ञानं विज्ञेयं विधि पूर्वकम्।

समीक्षणार्थकत्वाद्धि दर्शनं वै हित प्रदम्।

सप्त ज्ञानात्मक भुवः परं तत्वावलोकनम्।

न्याय - कथं भवति वेदैश्च शास्त्राद्यैरधि गम्यताम्।।

निमित्त कारणी भूतं सृष्टेर्ब्रह्मेति बोधनम्।

षोडशानां पदार्थानां तत्वाप्तिर्ज्ञानतः स्फुटम्।।

परमाणोश्च नित्यत्वं प्रथमं भूमि दर्शनम्।

वैशेषिक - धर्माधर्मों विनिर्णीय षट पदार्थविचार्य वै।

पर तत्वोपलब्धिश्च द्वितीयं भूमि दर्शनम्।।

योग - वृत्तयो जगतो मूलं रूद्धा ता यत्न पूर्वकम्।

परतत्वोपलब्धिर्हि तृतीया भूमिका मता।।

सोख्य - विदित्वा प्रकृतिं सम्यक् पर तत्वावबोधनम्।

कथयन्ति बुधा एतत्तुरीयं भूमि दर्शनम्।।

पूर्व मीमांसा - प्राधान्यात्कर्मणो ब्रह्म जगदेवेति निश्चयः।

पन्चमी भूमिका सेयं निर्दिष्टा तत्व वेदिभिः।।

मध्य मीमांसा - भक्तेः प्रधानताहेतोर्बह्मैव निखिलं जगत्।

येयं बुद्धिः विनिर्दिष्टा सा षष्ठी भूमिका मता।।

उत्तर मीमांसा - ज्ञानाधिक्यादहं ब्रह्मास्मीति धी-सप्तमी भवेत्।। - राजयोग संहिता

स्वामी श्री आत्मानन्द मुनि से परिचय

स्त्री की मृत्यु के पश्चात् तथा गीता प्रेस में कार्य करते हुए भी, आप साधन में सुविधा की दृष्टि से ग्रीष्म ऋतु में पहाड़ों पर प्रवास के लिये जाया करते थे। एक बार आप आबू पर्वत पर ‘राम झरोखा’ गुफा में निवास कर रहे थे। उन्हीं दिनों पुष्कर वाले स्वामी आत्मानन्द जी मुनि भी वहीं ‘चम्पा गुफा’ में निवास कर रहे थे। निकट रहने से मिलना जुलना होने लगा। परस्पर एक दूसरे से प्रभावित हुए और सम्बन्ध प्रगाढ़ होता गया। स्वामी आत्मानन्द जी उन दिनों अपनी पुस्तक गीता-दर्पण लिख रहे थे। उस समय आप गीता प्रेस कल्याण के सम्पादकीय विभाग में कार्यरत थे।

सन् 1943 ई. की दो जुलाई को गीता दर्पण का प्रथम संस्करण स्वामी जी द्वारा भेंट स्वरूप आपको भेजा गया। उसमें तर्क एवं युक्तियों से गीता का वेदान्त सम्मत निवृत्ति प्रधान अर्थ किया गया था। आपने इस सम्बन्ध में अपने विचार लिखकर स्वामी जी से समाधान मांगा था।


आरोग्य मन्दिर गोरखपुर

26.7.43

पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज,

सादर ऊँ नमो नारायण। आपका 20 जुलाई का कृपा पत्र मिला। गीता दर्पण अभी पूरा नहीं पढ़ पाया हूँ। मुख्य ग्रन्थ का दूसरा अध्याय पढ़ रहा हूँ। पुस्तक बहुत ही उपयोगी है। जिज्ञासु और विचारकों के लिये इसे मनन ग्रन्थ कहा जा सकता है। अध्यात्म वस्तु को समझाने के लिये बहुत ही सुबोध युक्तियों से काम लिया गया है। इसलिये जहाँ तक विषय विवेचन की दृष्टि से देखता हूँ, इसकी परमोपयोगिता निर्विवाद है।

किन्तु जिस दृष्टि को लेकर आपका महात्मा तिलक से मतभेद है, उसे मैं अभी तक नहीं समझ सका। उसे समझने के लिये मुझे गीता रहस्य देखना होगा। प्रायः 20 वर्ष हुए तब मैंने वह ग्रन्थ देखा था। उस समय का मेरे चित्त पर यही संस्कार है कि श्री तिलक ने मुक्ति तो ज्ञान से ही मानी है, निष्काम कर्म को उन्होंने मुक्ति का साक्षात् साधन माना हो, ऐसा मुझे स्मरण नहीं हैं। वे निष्काम कर्म को ज्ञान का साधन मानते हैं और उसके बाद ज्ञानी की सांख्य और योग दो निष्ठायंे मानते हैं। सांख्य या संन्यास निष्ठा वाले कर्म का स्वरूप से त्याग कर देते हैं और योग निष्ठा वाले लोक संग्रह के लिये कर्म करते हुए भी वास्तव में अकर्ता रहते हैं। आपने भी पृष्ठ 314 पैरा 11 में इनका यही लक्षण किया है। यह अवश्य है कि उन्होंने ज्ञानी की सांख्य निष्ठा की अपेक्षा कर्म-निष्ठा को ही श्रेष्ठ माना है। उनका यह मत सामयिक आवश्यकता और लोक सेवा की दृष्टि से कहा जा सकता है। परन्तु इससे यह कदापि सिद्ध नहीं होता कि वे ज्ञान हीन निष्काम कर्मी को मुक्ति का अधिकारी मानते हैं।

ये सब बातें मेरे ध्यान में आत्म विलास में तिलक मत खण्डन पढ़ते समय ही आई थी। परन्तु अपना अनधिकार समझकर मैंनें आपको नहीं लिखा। इस मत में मैं कहाँ भूल कर रहा हूँ, कृपया समझाकर अनुग्रहीत करें। शेष भगवत कृपा है।

आपका कृपापात्र मुनिलाल



कुरावड़ (उदयपुर)

मेरे प्यारे श्री भक्त जी, 20.08.43

नारायण। आपका प्रेम पत्र ता. 26.7.43 का कल प्राप्त हुआ। आप गीता दर्पण पढ़ रहे हैं, इससे संतोष है और सामान्य रूप से इसके विषय में आपके विचार जानकर हर्ष है। ग्रन्थ के समाप्त होने पर आप अपनी समालोचना जिस रूप से देना पसंद करें, उस रूप से देने की कृपा कीजिये।

तिलक मत के विषय में आपने जो प्रश्न किया उसके लिये आपका धन्यवाद। मेरा समाधान इस भांति हैं।

1- गीता रहस्य (गी.र.) देखे मुझे भी बहुत काल हो गया है। गृहस्थ काल में ही देखने का अवसर प्राप्त हुआ था, इसलिए विस्तार से तो मुझे भी इसकी स्मृति नहीं है। परन्तु मेरे विचार से तो गीता रहस्य में क्रम समुच्चय वाद1 का अंगीकार नहीं किया गया है। किन्तु सम समुच्चय वाद को2 ही ग्रहण किया गया है। फिर भी आपकी स्मृति के अनुसार ऐसा मान भी लिया जाय कि उन्होंने निष्काम कर्म को ज्ञान का साधन माना है, तो भी निष्काम कर्म को उन्होंने इतना उत्कृष्ट बनाया है, जिससे कर्म ज्ञान का साधन है, ‘यह विषय दब जाता है और कर्म ही मोक्ष का साधन है’ यह विषय उभर आता है। सम्भव है आप जैसे विचारवान यह आशय निकाल लें कि ‘कर्म ज्ञान का साधन है’ परन्तु उस मत के अनुयायियांे की और सर्व साधारण की इस मत से यही मान्यता व्यापक रूप से प्रकट हो रही है कि कर्म से ही मोक्ष है और जीवन पर्यन्त कर्म का कभी त्याग होना ही नहीं चाहिये तथा कर्तृत्व व कर्तव्य बुद्धि सहित भेद दृष्टियुक्त कर्म ही उस निष्काम कर्म का स्वरूप है। उनके मत से प्रवृत्ति कदापि निवृत्त होने के लिए है ही नहीं। महात्मा श्री गांधी जी का ‘अनासक्ति योग’ भी इसी की पुष्टि करता है। इसलिये इस मत को पूर्व पक्ष बनाकर आत्मविलास के वैराग्य प्रकरण में इसका खण्डन करना आवश्यक हुआ, क्योंकि यह मत प्राकृतिक नियम विरूद्ध और सिद्धान्त विरूद्ध है। इसी पर श्रद्धा कर लेने से तत्व जिज्ञासा का उद्बोध असम्भव है और इसी से जीवन का सच्चा श्रेय नहीं हो सकता।

सच्छास्त्रोें का मुख्य कर्तव्य यही हुआ करता है कि वे जीव के श्रेय के लिये सही व सच्चा लक्ष्य स्थिर करके बतलावें, जिससे जिज्ञासु लक्ष्य-भेदन करने का पुरूषार्थ कर सके और उसके अनुसार लक्ष्य भेदन में सफलता प्राप्त करे। परन्तु इसके विपरीत यदि निशाना ही गलत बनाया गया तो लक्ष्य भेदन की क्या आशा की जा सकती है।

तिलक मत के अनुसार आपने ज्ञानी की ज्ञानोत्तर जो सांख्य व योग रूप दो विभिन्न निष्ठाएं कथन की हैं, वे विचार व प्रमाण की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं। निष्ठा अन्तः करण की अवस्था विशेष है। ज्ञानी निर्विशेष और अन्तः करण से अतीत है जो कि द्वैत भाव से निकलकर परम अद्वैत तत्व में आरूढ़ हुआ है। फिर द्वैत रूप अन्तः करण की अवस्थाओं से उसको सम्बद्ध करना तथा दो विरोधी द्वैत रूप निष्ठाओं का निष्ठावान बनाना, सर्वथा अयुक्त है। ज्ञानी के जो लक्षण गीता में किये गये हैं उन भगवद् वचनों से भी ऐसा प्रमाणित नहीं होता। देखिये (2-/55 से 58), (2/27-28), (4/18-23), (5/7-13), (6/29-32) (13/28-34) तथा (14/22-25) इत्यादि।



1. कर्म से चित्त शुद्ध होता है और ज्ञान से मोक्ष होता है इस मत को क्रम समुच्चय कहते हैं।

2. कर्म तथा ज्ञान मोक्ष के भिन्न -भिन्न तथा स्वतन्त्र मार्ग हैं, इस मत को सम-समुच्चय कहा जाता है।

3. निष्काम कर्म को यदि व्यापक दृष्टि से ग्रहण किया जाय तो ईश्वर प्राप्ति (का) उद्देश्य रखकर क्या प्रवृत्ति रूप और क्या निवृत्ति रूप सभी शारीरिक एवं बौद्धिक चेष्ठायें निष्काम कर्म के अन्तर्गत आ जाती हैें। इस हिसाब से अधिकारानुसार कर्म, उपासना, वैराग्य, शमदमादि एवं श्रवण मननादि सभी निष्काम कर्म के अन्तर्गत आ जाते हैं। और जहाँ ‘निष्काम कर्म से ज्ञान होता है’ ऐसा सिद्धान्त वचन देखने में आता है, वहाँ इसी व्यापक अर्थ से निष्काम कर्म का बोध होता है। परन्तु तिलक मत में इस व्यापकता को भंग करके कर्म को ज्ञान का साधन माना भी गया, तो केवल कर्तृत्व व कर्तव्य बुद्धि सहित, भेद दृष्टियुक्त बाह्य प्रवृत्ति रूप कर्म को ही ज्ञान का साधन माना गया है जो कि सिद्धान्त से अत्यन्त विरूद्ध है। क्योंकि भेद दृष्टि ही अज्ञान हैं, इसलिये ऐसा ही निष्काम कर्म अज्ञान का बाधक कदापि नहीं हो सकता चाहे कल्प पर्यन्त भी इसका आचरण क्यों न किया जाय। यही अपने आचरण मात्र से अज्ञान निवृत्ति में कदापि समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि यह तो अज्ञान का कार्य है। कार्य अपनी मूल को काटने में समर्थ नहीं हुआ करता, यह अकाट्य सिद्धान्त है। (पृ. 90-99)

4. मोक्ष हेतुक ज्ञान का जो स्वरूप तिलक मत में बनाया गया है, वह अपरोक्ष ज्ञान नहीं बनता, किन्तु परोक्ष व भेद ज्ञान ही उसका स्वरूप होता है। देखिये आत्मविलास प्रथमावृत्ति पृष्ठ 206 पेरा 3 तथा द्वितीया वृत्ति, द्वितीय खण्ड पृष्ठ 19।

इस मत में ज्ञान का स्वरूप यह नहीं रखा गया कि ‘न मैं हूँ’, न जगत है, न कर्म और न फल है, किन्तु ये सब मेरे आत्म स्वरूप के चमत्कार हैं और आत्म रूप ही हैं जो गीता स्थान-स्थान पर इसका ऐसा ही वर्णन करती है, जैसा पीछे अंक 1 में प्रमाण दिये गये हैं। किन्तु तिलक मत के तो ज्ञान में भी कर्ता, जगत, कर्म और ईश्वर सभी अपने-अपने स्थान पर सत्य ठहराये गये हैं, केवल फल का ही त्याग रखा गया है, सो भी भावना मात्र। ऐसा भेद ज्ञान मोक्ष हेतुक कदापि नहीं हो सकता।

इन सब विचारों केा लेकर आत्मविलास मंे इसका स्पष्ट रूप से खण्डन किया गया है, परन्तु गीता दर्पण में तो तिलक मत की स्पष्ट रूप से कोई चर्चा ही नहीं की गयी है। किन्तु आधुनिक टीकाकारों ने गीता में जो सांख्य व योग को भिन्न भिन्न रूपों में दर्शाया है उनको सम्मुख रखकर सामान्य रूप से अपने मत का निरूपण किया गया है। (पृ0 64-78)

निष्काम कर्म द्वारा ज्ञान हो जाने पर तत्पश्चात् ज्ञानी की जो निष्ठायें तिलक मत में ग्रहण की गयी हैं, वह सर्वथा सिद्धान्त विरूद्ध है, क्रम क्रम से इन दोनों निष्ठाओं का फल ज्ञान हो सकता है, न कि ज्ञानोत्तर ज्ञानी की ये विभिन्न निष्ठायें बन सकती हैं। (आत्म विलास प्रथमावृत्ति पृष्ठ 203 से 211 तथा द्वितीयावृत्ति द्वि.खं. पृ0 14-25 देखिये) पीछे पृष्ठ 314 के पैरे 11 में तो यह दिखलाया गया हैं कि तत्व साक्षात्कार हो जाने पर कर्म त्याग व फल त्याग स्वतः ही सिद्ध हो जाता है, अर्थात् कर्म सन्यास व कर्म योग का फल से ही अभेद हो जाता है। फिर ये भिन्न-भिन्न मार्ग व निष्ठा नहीं रहते, किन्तु इनकी स्वरूप से ही एकता हो जाती है। परन्तु तत्व साक्षात्कार बिना नीचे किसी भी कोटि में रहकर यथार्थ रूप से न कर्म त्याग की ही सिद्धि हो सकती है और न फल त्याग ही बन पड़ता है। क्योंकि भेद व परिच्छेद दृष्टि रहते हुए कर्म त्याग भी कर्म बन जाता है और फल त्याग भी अपना फल रखता है (पृष्ठ 80 से 87)। इसके विपरीत तिलक मत में तो ज्ञानोत्तर ज्ञानी की दो भिन्न निष्ठायें बनाई गयी हैं, दोनों सत्य हैं और कर्तृत्व व कर्तव्य सहित हैं। इसलिये तिलक मत और गीता दर्पण का तो इस विषय में अत्यन्त विरोध है। मेरे विचार से तो इसका कारण यही है कि जैसा पीछे इस पत्र के अंक 3 में दिखलाया गया है, उनका न ज्ञान का लक्षण ही निर्दोष है और अंक दो के अनुसार न निष्काम कर्म का स्वरूप ही निर्दोष है।

अपनी बुद्धि के अनुसार समाधान किया गया। अब जैसा आपके विचार में हो, अपने विचारों से सूचित करिये।

भवदीय - आत्मानन्द


गोरखपुर दि. 19.8.43

पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज,

सादर ऊँ नमो नारायण। आपका 10 अगस्त का कृपा पत्र कल मिला। मेरी शंका का आपने जो उत्तर दिया है उससे मुझे पूर्ण सन्तोष है। यह ठीक है कि यद्यपि महात्मा तिलक ने ज्ञान से ही मोक्ष माना है, तथापि कर्म पर इतना जोर दे दिया है कि उनके अनुयायी मोक्ष और ज्ञान के लिए कर्म को अनिवार्य मानने लगे हैं। महात्मा गंाधी तो ज्ञानी के द्वारा भी कर्म त्याग को असम्भव समझते हैं। यह बात ठीक ही है कि महात्मा तिलक ने ज्ञान का जो स्वरूप रखा है उसे दार्शनिक दृष्टि से तो ठीक कह सकते हैं, परन्तु वह सच्चे बोधवान की दृष्टि नहीं है। इसलिये उनकी टीका मुमुक्षुओं और जिज्ञासुओं के लिये इतनी उपयोगी नहीं हो सकती जितनी कि वह कर्मियों के लिये है। उन्होंने यद्यपि मोक्ष का साक्षात् साधन ज्ञान ही माना है और ज्ञानी का व्यवहारिक जीवन निवृत्ति परायण और प्रवृत्ति परायण दोनों ही प्रकार का हो सकता है, परन्तु उन्होंने प्रवृत्ति की ही प्रशंसा की है और उसे यहाँ तक बढ़ाया है कि वह एक प्रकार से ज्ञानी के लिये भी कर्तव्य हो जाती है। मैंने जो शंका की थी, वह तो इतने ही अंश को लेकर थी कि कर्म के द्वारा मोक्ष उन्होंने भी नहीं माना, फिर आपने कई जगह निष्काम कर्म योग के द्वारा मोक्ष मानने वालों को किस प्रकार पूर्व पक्षी बनाया हैं?

आधुनिक टीकाकारों में श्री -- जी सांख्य और योग के पृथक-पृथक मार्ग मानने वाले हैं और दोनों के ही द्वारा तत्वज्ञान की प्राप्ति मानते हैं। परन्तु वे इन्हें मार्ग ही मानते हैं। तत्वज्ञ के लिए कर्तव्य उनमें से किसी को नहीं मानते। उनके विचार से ये दोनों ही साधन हैं, सिद्ध का इन दोनांे से ही सम्बन्ध नहीं हैं। तथा आपका यह विचार है कि ज्ञान होने से पहले इनमें से कोई नहीं हो सकता, इन दोनों की सिद्धि ज्ञान होने पर ही होती है और इनमें व्यावहारिक भेद रहने पर भी ज्ञानी की दृष्टि में दोेनों एक ही हैं - कर्म से असंग होने के कारण वह संन्यासी है और कर्म फल से असंग होने के कारण ‘योगी’ हैं। परन्तु ऐसा मानने पर नीचे लिखी आपत्तियां सामने आती हैं -

1. यदि ये दोनों ज्ञानी के द्वारा ही साध्य हैं तो भगवान अर्जुन को इनका उपदेश क्यों दे रहे हैं। यदि अर्जुन तत्वज्ञ हैं तो उसे इन दोनों का अभेद समझने की जरूरत नहीं हैं, क्योंकि तब तो उसे इस रहस्य का पता स्वयं ही रहना चाहिए। और यदि वह अज्ञानी हैं तो ज्ञानी द्वारा साध्य विषय का उपदेश उसके लिये उपयोगी कैसे होगा? उसे तो ज्ञान के साधन का ही उपदेश करना चाहिए।

2. आपने अध्याय 5 श्लोक 4 के भावार्थ के प्रथम पैरे के अन्त में लिखा है कि ‘इस प्रकार कर्तृत्वा भिमान से छुटकारा पाकर जो प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति दोनों में से एक में भी भली प्रकार स्थित हुआ है वह दोनों के मोक्ष रूप फल को पा जाता है’ इस वाक्य से तीन प्रश्न उठते हैं -

क. मोक्ष रूप फल प्रवृत्ति या निवृत्ति इन दोनों के अधीन है? या -

ख. केवल कर्तृत्वाभिमान के त्याग के? अथवा -

ग. कर्तृत्वाभिमान के त्याग सहित प्रवृत्ति या निवृत्ति के?

इनमें से (क) पक्ष तो आपको भी मान्य नहीं होगा, क्योंकि कर्तृत्वाभिमान युक्त प्रवृत्ति या निवृत्ति मोक्ष का साधन हो ही नहीं सकती। (ग) पक्ष स्वीकार करें तो कर्म में अथवा संन्यास-समुच्चित ज्ञान मोक्ष का साधन मानना होगा। इससे ज्ञान की मोक्ष में स्वतन्त्र साधनता का खण्डन होगा । अतः (ख) पक्ष ही सिद्धान्ततः मानना होगा।

अब यदि सिद्धान्ततः केवल ज्ञान ही मोक्ष का साधन है तो मोक्ष को प्रवृत्ति या निवृत्ति का फल कहने से आपका क्या अभिप्राय है?

3. यदि आत्मा का असंगत्व बोध ही कर्म त्याग रूप सांख्य और कर्म फल त्याग रूप योग में हेतु है तो इन दोनों को दो साधन कहना ही असंगत है, क्योंकि वहाँ वास्तविक साधन तो असंगत्व बोध ही है। वह असंगत्व कर्म, कर्म फल सम्बन्धी, धन, सम्पत्ति और शरीरादि सभी से होना चाहिये। फिर केवल कर्म और कर्म फल इन दो की असंगता को लेकर ही इन दोनों नामों की कल्पना करने की क्या आवश्यकता थी?

इस प्रकार ज्ञानी के द्वारा सांख्य और योग की साध्यता मानने पर जो शंकाये उठती हैं उनका उल्लेख करके अज्ञानी द्वारा इनके अनुष्ठान की सम्भावना किस प्रकार है? यह लिखता हूँ -

कर्म और संन्यास इन दोनों को ही श्री - - - जी ने भी अज्ञानी द्वारा साध्य माना है और भगवान शंकराचार्य जी ने भी। श्री - - - जी इन दोनों को स्वतन्त्र साधन मानते हैं और भगवान शंकराचार्य इन्हें क्रमिक साधन बताते हैं। मेरे विचार से दोनों का ही मत युक्ति युक्त है। परस्पर विरोध दीखने पर भी इन दोनों महानुभावों के मत इसलिये युक्ति युक्त बताता हूँ, क्योंकि इन दोनों ने सांख्य और योग के जो लक्षण दिये हैं वे भी भिन्न-भिन्न हैं। श्री - - - जी कर्तृत्वाभिमान पूर्वक कर्म करते हुए उन कर्मों के फल को भगवदर्पण करने अथवा भगवान की आज्ञा मानकर या भगवान को प्रसन्न करने के लिए ही कर्म करने को योग कहते हैं। और मैं करने कराने वाला नहीं हूँ, गुण ही गुणों में वर्त रहे हैं, ऐसी भावना को अथवा मैं यन्त्ररूप हूँ। भगवान ही मेरे द्वारा सब कुछ करा रहे हैं। इस भाव को सांख्य कहते हैं। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो कर्म और सांख्य की सराहनीय व्याख्या के अनुसार ये दोनों ही लक्षण नहीं घटते हैं। इन दोनों को ही भक्तियोग कह सकते हैं। इस भक्ति योग से (चाहे यह इन दोनों में से किसी कोटि का हो) भगवान की प्रसन्नता होती है और उनकी प्रसन्नता से विवेक रूप बुद्धि योग प्राप्त होने पर तत्वज्ञान हो जाता हैं।

भगवान शंकराचार्य अज्ञानी कर्तृक कर्म को ‘कर्म योग’ और कर्म त्याग रूप संन्यासाश्रम को ‘सांख्य’ मानते हैं। ‘कर्म’ शब्द से उनका तात्पर्य नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्मों से है। ये कर्म सकाम भाव से किये जाने पर ऐहिक या पारलौकिक भोग रूप फल देते हैं और निष्काम भाव से केवल कर्तव्य बुद्धि से या भगवत्प्रीत्यर्थ किये जाने पर चित्त शुद्धि के कारण होते हैं। चित्त शुद्धि होने पर चित्त में वैराग्य होता है और वैराग्य से कर्म सन्ंयास रूप सांख्य का अधिकार प्राप्त होता है। फिर संन्यासाश्रम में शम-दमादि का विशेष अभ्यास करते हुए श्रवण मनन एवं निदिध्यासन करने से ज्ञान की प्राप्ति होती है।

इस प्रकार इन दोनों ही महानुभावों के मतानुसार अज्ञानी द्वारा कर्म-त्याग और कर्म फल-त्याग सिद्ध हो जाते हैं। आपने जो लिखा हैं कि -‘भेद व परिच्छेद दृष्टि रहते हुए कर्म त्याग भी कर्म बन जाता है और फल त्याग भी अपना फल रखता है’ सो ठीक ही है। इस प्रकार का कर्म त्याग अवश्य कर्म ही है और ऐसे फल त्याग से फल भी अवश्य होता है। परन्तु इस कर्म-त्याग या कर्म फल-त्याग का फल भोग नहीं, चित्त की शुद्धि ही है। इसलिये इसे व्यर्थ नहीं कह सकते और साधन तो सर्वदा किसी साध्य के लिए ही हुआ करता है, इसलिये उसे सर्वथा परिणाम हीन मानना उचित भी नहीं हैं।

आपने अध्याय 5 श्लोक 4 के भावार्थ के दूसरे पैरे में यह भी लिखा है कि ‘जिन्होंने सांख्य और योग को भिन्न-भिन्न स्वतन्त्र और निरपेक्ष मार्ग मानकर इनकी एकता ग्रहण ही है वे तो बालकों से भी परे अत्यन्त बालक कहे जाने चाहिये। क्योंकि ‘कर्म कर’ और ‘कर्म छोड़’ ये दोनों परस्पर भाव और अभाव रूप होने से अन्धकार और प्रकाश के समान विरोधी मार्ग हैं, इनका फल एक नहीं हो सकता।’ सो यह बात भी मुझे युक्ति युक्त नहीं जँचती। एक ही स्थान पर दो भिन्न मार्ग जा सकते हैं और जो एक मार्ग से चलेगा उसे दूसरे मार्ग को छोडना भी पड़ेगा ही। इसलिये यदि उसके मार्ग को दूसरे से भिन्न स्वतन्त्र या निरपेक्ष कहें तो क्या आपत्ति है? निष्काम भाव से कर्म करना और कर्म को अपना नहीं बल्कि अपने द्वारा ईश्वर कर्तृक मानना ये दो भिन्न भावनायें हैं और इन दोनों का फल भगवान की प्रसन्नता ही है।

इस प्रकार आपके मतों में कुछ शंकायें खड़ी करके भी मेरा यह तात्पर्य नहीं है कि आपकी बात युक्ति शून्य है। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि भिन्न-भिन्न विचारकों के विचार की शैलियां भिन्न-भिन्न हुआ करती हैं और उन सभी में युक्ति और सामंजस्य भी रहता है। अतः आचार्य या अनुभवी लोग जो कुछ लिखते हैं वह परस्पर विरूद्ध दिखने पर भी लक्ष्य की प्राप्ति में सर्वथा समर्थ होता हैं। संसार में कई प्रकार के अधिकारी हैं, जिसकी मनोवृत्ति जिस साधन के अनुकूल होती है, वह उसे ही स्वीकार कर लेता है। मुझे तो आपका सिद्धान्त भी उतना ही युक्ति युक्त जान पड़ता हैं जितने की भगवान शंकर और श्री - - - जी के। स्वयं श्री भगवान का क्या मत है यह तो भगवान ही जानें। मैं तो भगवान की तरह उनकी वाणी को भी अनिर्वचनीय और अगम्य ही समझता हूँ।

जैसे भक्तजन अपनी-अपनी भावना के अनुसार उनके रूप का भिन्न-भिन्न प्रकार से निर्देश करते हैं, उसी प्रकार विचारक भी अपनी-अपनी विचार पद्धति के अनुसार उनकी वाणी के भिन्न-भिन्न अर्थ लगाते हैं तथा विचार युक्त होने के कारण वे सभी युक्ति युक्त होते हैं और अपने-अपने योग्य अधिकारी को परम तत्व की प्राप्ति भी करा सकते हैं।

आपका कृपापात्र - मुनिलाल

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आपने मेरे लिखे हुए तिलक मत का अनुवाद करके पूछा है -‘किस दर्शन ने इस रूपवाले भेद व परोक्ष ज्ञान को मोक्षका हेतु माना है?’ सो इसके विषय में मेरी यह प्रार्थना है कि परोक्ष ज्ञान को तो किसी दर्शन ने मोक्ष का हेतु नहीं माना, परन्तु महात्मा तिलक ने गीता रहस्य में अध्यात्म तत्व का जो स्वरूप वर्णन किया है, वही एक तत्वज्ञ की दृष्टि से उसका केवल परोक्ष वर्णन ही है। परन्तु स्वयं लेखक उसे वैसा नहीं समझता और वह जिस ज्ञान के द्वारा मोक्ष मानता है उसे अपरोक्ष ही समझता है। मैंने उनके वर्णन को जो दार्शनिक दृष्टि से ठीक लिखा था, उसका आशय यही था कि भगवान शंकराचार्य के समान ही वे भी अद्वैतवाद ही स्वीकारते हैं तथा उन्होंने भी विवर्तवाद, अनिवर्चनीय ख्याति और प्रपन्च मिथ्यात्वादि स्वीकार किये हैं। यह अवश्य है कि उन्होंने शंकर-सम्प्रदाय की पूरी प्रक्रिया स्वीकार नहीं की और उनकी प्रतिपादन शैली से ब्रह्म की निर्विशेषता और एक जीववाद का स्वरूप भी स्पष्ट नहीं होता।

आपका कृपापात्र - मुनिलाल

स्वामी जी ने छः पृष्ठों का लम्बा पत्र लिखकर श्री जय दयाल जी के विचारों का तर्क और युक्ति पूर्वक खण्डन किया और आपके पास भेज दिया। उसे पढ़कर आपने लिखा - ‘‘जहाँ तक मति की गति है, मतभेद दूर नहीं हो सकता और जो मति से परे है उसमें मतभेद नहीं हो सकता।’’

इसका कोई उत्तर उन्होंने नहीं दिया।

पारस मणि

फारस के संत मुहम्मद गजाली के फारसी ग्रन्थ कीमिया-ए-सआदत का हिन्दी रूपान्तर ‘पारस भाग’ नाम से पहले ‘नवल किशोर प्रेस’ लखनऊ से प्रकाशित हुआ था। उसकी भाषा पुरानी हिन्दी होने से पाठकों को रूचिकर नहीं थी। बाद में उसका प्रकाशन भी बन्द हो गया था।

अल्मौड़ा के नारायण स्वामी जी ने आपको लिखा कि वह ग्रन्थ (पारस भाग) संतों को बहुत रूचिकर है, इस समय उसका छपना बन्द हो गया है। इसकी भाषा बदल कर आप प्रकाशित करा दें। तब आपने उसका प्रचलित हिन्दी में सुन्दर रूपान्तर कर दिया।

स्वामी शिव चैतन्यानन्द जी ने दिल्ली में एक पुस्तक प्रकाशन ट्रस्ट बनाया था। उन्होंने पुस्तक ले ली, वह छप भी गयी। किन्तु बाद में वे इस स्थिति में नहीं रहे कि विक्रय कर सकें। इसलिये उन्होंने सारा स्टाक ‘मानव सेवा संघ-वृंदावन’ को बेच दिया। आपने उन्हें यह लिखकर दिया था कि स्टाक समाप्त होने पर यदि तीन वर्ष तक पुस्तक का प्रकाशन नहीं हुआ तो दूसरी जगह से पुस्तक प्रकाशित करा सकेंगे।

जब पुस्तक समाप्त हो गयी तो आपने उनसे प्रकाशन के लिये कहा। उन्होंने कहा कि इतना रूपया हम नहीं लगा सकते हैं। आपने कहा कि दो हजार रूपये तो मैं दिला दूंगा, बाकी का आप लगा लो। उन लोगों की इच्छा थी कि पूरे चार हजार रूपये आप ही दिला दें। इसलिए टाल टूल करते रहे।

कुछ काल पश्चात आपने स्वामी आत्मानन्द जी मुनि से बात की। उन्होंने दो हजार रूपये लेकर पुस्तक प्रकाशित करना स्वीकार कर लिया। आपने रूपये उन्हें दिला दिये और मानव सेवा संघ वालों को लिख दिया कि आप पुस्तक प्रकाशन का अधिकार उन्हें दे दें। उस समय आपके मन में तीन साल की जगह एक साल के एग्रीमेन्ट का स्मरण रहा । मिलने पर मानव सेवा संघ वालों ने तीन साल के अधिकार पत्र की याद दिलाई और कहा कि पुस्तक का प्रकाशन स्थगित है, स्थिति ठीक होने पर प्रकाशित हो जायेगी। आपने कहा कि अब पुस्तक आप छापिये किन्तु पैसे देना मेरे हाथ में नहीं है, क्योंकि पैसे मैंने उन्हें दिला दिये हैं।

आपने श्री आत्मानन्द जी मुनि को पुष्कर पत्र लिखा कि मैंने उन्हंे तीन साल का अधिकार दे रखा है इसलिये आप अभी मत छपवाइये। इससे स्वामी जी बड़े नाराज हुये और कहा कि आप बड़े धोखेबाज हैं। उन लोगों का कोई अधिकार नहीं बनता हैं। आप वकीलों से बात कर लीजिये। इस तरह से तो आप एक ग्रन्थ रत्न के प्रकाशन का अवसर खो रहे हैं।

इस पर आपने लिखा - बहुत से ग्रन्थ रत्न और नर रत्न न जाने कहाँ चले गये। मैंने जो वचन दिया है उसका उल्लंघन कैसे किया जा सकता है। आप ऐसे कटु वचन कहकर परस्पर का सौहार्द क्यों बिगाड़ना चाहते हैं।

बाद में मानव सेवा संघ ने पुस्तक प्रकाशन का अधिकार उन्हें (आनन्द कुटीर ट्रस्ट पुष्कर को) दे दिया था। अद्यावधि पुस्तक वहीं से प्रकाशित हो रही है।

अनुभूति प्रकाश

श्री विद्यारण्य स्वामी की लिखी पुस्तक अनुभूति प्रकाश का भी आपने अनुवाद किया था। इसमें उपनिषद् की कथाओं को श्लोकबद्ध किया गया था। पुस्तक स्वामी श्री अखण्डानन्द जी को बहुत पसन्द थी। उसे भी प्रकाशन के लिये श्री शिव चैतन्यानन्द जी ने ही लिया था। बाद में उन्होंने उसे श्री दुलारे लाल जी भार्गव वाराणसी को प्रकाशनार्थ दे दिया था। फिर उन्होंने उसे गुम कर दिया। इसमें श्लोक प्रायः तीन हजार थे।

साधु श्री शान्तिनाथ जी से सत्संग

एक बार गर्मियों में सदा की भांति आप आबू पर्वत पर निवास कर रहे थे। वहीं आपका परिचय नाथ सम्प्रदाय के एक संत श्री शांतिनाथ जी से हुआ। वे श्री गम्भीर नाथ जी के शिष्य थे। उन्होंने चार भाषाओं (हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत और बंगला) में ग्रन्थ लिखे थे। बाद में उनका विचार हुआ कि दर्शन शास्त्र कोरे तर्कवाद हैं, उनमें है कुछ नहीं। इनके चक्कर में न पड़कर केवल शान्त भाव से बैठना चाहिये।

मिलने पर आपने उनसे पूछा - यह जो दिखता है वह है कि नहीं? उन्होंने कहा - है। आप - यदि है तो यह सीमित है कि असीम है? उन्होंने कहा - सीमा तो देश काल वस्तु इन तीनों से ही होती हैं और वह इसके अन्तर्गत आ गया। अतः असीम ही होना चाहिये। आपने कहा - असीम तत्व सावयव नहीं हो सकता। ससीम अवयवों से मिलकर जो वस्तु बनेगी, वह असीम नहीं हो सकती। इसलिये यदि इसे असीम मानेंगें तो अवयव केवल प्रतीति मात्र हैं, इनकी सत्ता नहीं हो सकती। इससे यह सब निर्विशेष ब्रह्म ही सिद्ध होता है। और यदि यह सीमा युक्त है तो उससे आगे और कुछ होना चाहिये और वह असीम होगा। और वही परमार्थ होगा। इस प्रकार दोनों तरह एक निर्विशेष अखंड ब्रह्म ही परमार्थ सिद्ध होता है। इसका उनसे कोई उत्तर न बन सका।


संन्यासाश्रम में प्रवेश( श्री उडिया बाबा जी से )

परम पूज्य श्री उडिया बाबा जी महाराज पैदल ही भ्रमण करते थे तथा नियत समय पर नियत स्थानों पर पहुँच जाते थे। ऐसे ही भ्रमण करते हुए बाबा अनूप शहर से प्रायः छः मील दूर बिरौली नामक ग्राम मंे आकर ठहरे हुये थे। बाबा बड़े ही समर्थ महापुरूष थे। उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। उनके आगमन का समाचार प्राप्त करके प्रायः दस-बीस कोस की दूरी पर स्थित गृहस्थ तथा विरक्त प्रेमी सत्संग के लिये आ जाते थे। इस प्रकार सत्संग के माध्यम से वातावरण शान्तिमय हो जाता था।

आपकी बाबा में अपार श्रद्धा थी। आप द्वारा क्रिया समर्पण का सुन्दर रूप आपके प्रायः प्रत्येक ग्रन्थ के प्रारम्भ में देखने को मिलता है। ऐसे योग्य शिष्य को पाकर सद्गुरू भी सन्तुष्ट ही रहते हैं। इसीलिये बाबा तथा उनकी मंडली के लोगों में आपके प्रति विशेष स्नेह व आदर का भाव था, किन्तु इससे आपके मन में आत्मिक उत्साह ही बढ़ा, अहंकार नहीं। यही विशेषता है।

अब आपकी मानसिक स्थिति बदल गयी थी। संसार का आकर्षण समाप्त हो गया था। आत्म चिन्तन ही मुख्य कर्तव्य प्रतीत होता था। बाबा के सत्संग ने आपके वैराग्यानल को प्रदीप्त करने में घृत का काम किया।

बाबा प्रायः योग्य जिज्ञासुओं केा वैराग्य मय जीवन जीने की प्रेरणा देते थे। आप पर उनके उपदेश का उचित प्रभाव पड़ा और अपने अन्तः करण को निर्विषय बनाने के लिये आप प्रयत्नशील हो गये।

अब आपके जीवन में विशुद्ध वैराग्य का प्रादुर्भाव हुआ। संसार का नश्वर रूप प्रत्यक्ष दिखने लगा। ऐसा लगता मानो संसार एक वन है और उसमें प्रचण्ड दावानल प्रदीप्त हो रहा है तथा उसकी तप्त उर्मियाँ आपको विकल कर रही हैं। यह दृश्य आप के वैराग्य को तीव्र करने में सहायक सिद्ध हुआ।

अब आपने संन्यास लेने का विचार किया। तपस्वी जीवन तो था ही, पूर्वाभ्यस्त होने से कठिनाई नहीं हुई। आप भी विरौली गये और एकान्त में बाबा से अपनी स्थिति बताये तथा सर्वस्व त्याग का विचार व्यक्त किये। यह चैत्र महीने की बात है। बाबा को इससे प्रसन्नता ही हुई। आप चाहते थे कि यह बात गुप्त रहे किन्तु बाबा ने दूसरे दिन स्वामी अखंडानन्द प्रभृति संतों से कह दिया - ‘‘मैंने मुन्नी लाल को संन्यास के लिये कह दिया है। आगामी वैशाख पूर्णिमा को वह संन्यास ले लेगा।’’ उसी दिन बाबा सबके साथ अनूप शहर गये। वहीं चर्चा सुनकर आपने सोचा कि अब बात पक्की कर लेनी चाहिए। अतः बाबा से बोले कि आप मेरे द्वारा भंडारा करा दीजिये तथा अपना उत्तरीय दे दीजिये और नाम रख दीजिये। बाबा ने भंडारे की स्वीकृति दे दी और अपना उत्तरीय देकर नाम ‘‘सनातन देव’’ रख दिये।

बाबा ने परामर्श दिया कि ऋषिकेश स्थित कैलाश आश्रम के महंत महा मंडलेश्वर श्री विष्णुदेवानन्द गिरि से दीक्षा लेना ठीक रहेगा। अतः आपने उनके यहाँ आश्रम में रहने वाले संत श्री शाश्वतानन्द ब्रह्मचारी को इस आशय का पत्र लिख दिया कि मैं संन्यास दीक्षा हेतु वैशाखी पूर्णिमा पर आ रहा हूँ, मंडलेश्वर जी से कह दीजियेगा। आप मंडलेश्वर जी से पूर्व परिचित थे और अपनी कृतियों (ग्रन्थानुवाद आदि) के कारण प्रसिद्ध भी हो चुके थे।

दो चार दिन बाबा के पास रूककर आप वापस खुर्जा आ गये। आपका संन्यास लेने का विचार जानकर सम्बन्धियों को दुख होना स्वाभाविक था।

उन दिनों खुर्जा में स्वामी योगानन्द जी नाम के एक संत रहते थे उनका आप पर स्नेह भी था। सूचना मिलने पर वे आपके पास आये। उस समय आप कैलाशाश्रम जाने की तैयारी में ही लग रहे थे। स्वामी जी ने कहा - यह समय संन्यास के अनुकूल नहीं हैं, वातावरण बहुत परिवर्तित हो चुका है। लोगांे में बहिमुर्खता बढ़ गयी है। संत महात्माओं का सम्मान भी पहले जैसा नहीं रहा है। अतः घर पर रहकर ही भजन करो। आप पर स्वामी जी की बातों का कोई असर नहीं हुआ। अपने चित्त की स्थिति बताकर आपने पूछा - ऐसी स्थिति में संन्यास के सिवा और कुछ हो सकता हो तो बतलाइये। बात प्रसिद्ध हो जाने पर भी मैं विचार छोड़ दूँगा। आज मैं रूक जाता हूँ।

स्वामी जी ने कहा - मैं तुम्हे आज्ञा भी तो दे सकता हूँ।

आपने कहा - इस विषय में आप आज्ञा नहीं दे सकते हैं। हाँ, जिन्होंने आज्ञा दी है वे ही यदि पुनः आज्ञा दे तो बात दूसरी है।

स्वामी जी ने बाबा के लिए इस आशय का एक पत्र लिखकर आपको दिया कि यदि आप मना कर देंगें तो ये मान जायेंगें।

दूसरे दिन कैलाशाश्रम से ब्रह्मचारी जी का पत्र आया। उन्होंने लिखा था- मंडलेश्वर जी ने कहा है कि यहाँ तो संन्यास शिवरात्रि को ही दिया जाता है। आपको यह सोचकर कि व्यर्थ परेशानी से बच गये, प्रसन्नता ही हुई।

दूसरे दिन बाबा के पास बिरौली चले गये। आपने बाबा को सारी बात बता दी। स्वामी योगानन्द जी का पत्र भी दिया किन्तु बाबा ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। वापस घर आकर आपने सगे सम्बन्धियों से विदा ली। व्यथित हृदय लोगांे ने अश्रपूर्ण नेत्रों से भावभीनी विदाई दी।

आप बाबा के पास पहुँचे और प्रणाम करके कहा - अब मैं आपकी शरण में आ गया हूँ।


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संयोग की बात, उस समय बाबा के पास कोई संन्यासी नहीं था। स्वामी श्री अखण्डानन्द जी, श्री गणेशानन्द जी अवधूत, स्वामी आत्मानन्द जी जोधपुर वाले, तथा स्वामी श्री स्वरूपानन्द जी (बाद में शंकराचार्य) के साथ ऋषिकेश चले गये थे। बाबा के कुछ प्रेमी साधु ही रह गये थे। दूसरे दिन बाबा राम घाट के लिये चले। मार्ग में नहर के किनारे बने विश्राम गृह के बाहर रात्रि निवास के लिये ठहर गये। इस बीच आप भी संध्या करके वहीं आ गये।

बाबा के एक प्रेमी भक्त थे मास्टर चिरन्जीलाल। ये वर्नाकुलर स्कूल में हैड मास्टर थे। प्रायः बाबा की सेवा में रहते थे। बाबा ने उनकी विरक्तों में रहकर भजन करने की प्रवृत्ति देखकर एक दिन विनोद में ही उनकी चोटी काटकर उनका नाम विज्ञान भिक्षु रख दिया और वही प्रसिद्ध हो गया। आपके संन्यास की चर्चा चलने पर विज्ञान भिक्षु ने कहा - जैसे मुझ को आपने संन्यास दिया था वैसे ही इनको भी दे दीजिये। बाबा ने कहा - नहीं जी, तुम्हें तो कोई जानता नहीं था, इसको तो बहुत लोग जानते हैं, कहेंगे- बाबा न ऐसा कैसे कर दिया। फिर कुछ विचार कर बोले - थोडे़ दिन ठहर जाओ। कोई योग्य संन्यासी आ जायेगा तो दीक्षा दिला देंगें। आपने कहा - घर से अन्तिम बिदाई लेकर आया हूँ, इसलिए घर तो जाऊँगा नहीं, और पास में इतना पैसा भी नहीं है कि ज्यादा दिन गुजारा कर सकूँ।

आपकी बात सुनकर बाबा सोच में पड़ गये। तब आपने ही कहा - मैं जैसे कहता हूँ वैसे करिये। किसी योग्य ब्राह्मण से आवश्यक श्राद्ध कर्म तथा विरजा होम सम्पन्न करा दीजिए। वस्त्र तथा नाम आपने दे ही दिया हैं, उसे धारण कर लूँगा। प्रैष मंत्र मैं जानता हूँ, स्वयं ही बोल लूँगा। महावाक्यों का उपदेश आप पहले कर ही चुके हैं, उन्हें स्मरण कर लूँगा। बाबा ने कहा ठीक है, तब चलो मैं तटस्थ द्रष्टा रहूँगा। वहाँ से चलते हुए मार्ग में ‘नरवर’ गाँव की संस्कृत पाठशाला से एक कर्म काण्डी विद्वान पं0 अमृतराम को लेकर रामघाट आये। वहाँ आपके द्वारा कुल पूर्वजों तथा स्वयं का श्राद्ध कराया गया। फिर बिरजा होम हुआ, तत्पश्चात् विधिवत संन्यास दीक्षा सम्पन्न हुई। उस समय काषाय वस्त्रों में आपकी अपूर्व शोभा हुई। बाबा ने कहा - तुम्हारे लिये महा वाक्य -‘‘तत्वमसि’’ रहेगा। स्वयं बाबा ने जहाँ से दीक्षा ली थी, वहाँ का महावाक्य भी ‘तत्वमसि’ ही है। अतः परम्परा से बाबा द्वारा ही आपकी वहाँ महादीक्षा सम्पन्न हुई।

अब आप पूर्णानन्द प्रसाद से पूर्ण होकर कृत कृत्यता का अनुभव करने लगे। यह घटना सन् 1946 के मई मास की है। उस समय आपकी आयु साढ़े पैंतालीस वर्ष थी।

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कुछ दिन बाबा के पास रहकर उन्हीें की आज्ञा से आप ऋषिकेश चले गये। वहाँ स्वामी अखंडानन्द जी तथा अन्य महात्माओं से मिले। स्वामी श्री अखण्डानन्द जी महाराज ही इस मंडली के अगुवा थे। वहाँ लगभग एक माह रहकर पैदल ही सब लोग वृंदावन के लिए रवाना हुए, मार्ग में सबने भिक्षाटन किया। एक दिन आप भी भिक्षा मांगने गये थे।

इस प्रकार यात्रा करते हुए सब लोग गुरू पूर्णिमा के अवसर पर वृंदावन पहुँच गये। उस वर्ष गुरू पूर्णिमा का उत्सव वहीं मनाना निश्चित हो चुका था। सबने बाबा को प्रणाम किया। आर्शीवाद देकर बाबा ने सबकी कुशल पूछी तथा प्रेम पूर्ण दृष्टि से सबको सन्तुष्ट किया।

सबने ईश्वर बुद्धि से बाबा का पूजन किया। भण्डारा हुआ। कीर्तन मंडलियों द्वारा भजन कीर्तन हुआ। विद्वानों ने सत्संग-प्रवचन का लाभ लिया। बाबा जैसे समर्थ सद्गुरू में ऐश्वर्य प्रत्यक्ष था, अतः ईश्वर बुद्धि से पूजन स्वाभाविक था। बाबा का भंडारा तो प्रसिद्ध ही था। भला अन्नपूर्णा के भंडारा में कमी किस बात की हो सकती थी। सब प्रकार के दर्शनार्थियों को सन्तोष मिला। आनन्द की इस सुरसरि में स्नान करके साधक, जिज्ञासु और भक्त जन अपने-अपने निवास को प्रस्थित हुए।

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श्री चिम्मन लाल जी का देहावसान

सन् 1947 ई. की बात है। संन्यास लिए हुए एक वर्ष हो चुका था। आप श्री कृष्णाश्रम वृन्दावन में श्री हरिबाबा की जीवनी लिख रहे थे। एक दिन घर से पत्र आया। उस में आपके छोटे भाई श्री चिम्मन लाल जी के सन्निपात ज्वर से देहावसान होने की सूचना थी। दोपहर का समय था, आपने भोजन नहीं किया था। पूज्य बाबा को ही पत्र मिला। उन्होंने पढ़कर पास खड़े भक्त से कहा - अभी उनको भोजन कर लेने दो। एक घंटे बाद पत्र देना और पत्र रख दिया।

आप भोजन तथा अल्प विश्राम के बाद पुनः श्री हरिबाबा का जीवन चरित लिखने लगे। उसी समय श्री विज्ञान भिक्षु जी ने पत्र लाकर धीरे से आपके पास रख दिया। आपने पत्र उठाकर पढ़ा। चित्त में लहर सी आई किन्तु कलम नहीं रूकी। लिखते ही रहे। इस प्रकार कठिन अवसरों पर भी आपका धैर्य और विवेक अविचल रहा।

स्वप्न में भगवद्दर्शन

संन्यास लेने के बाद की बात है। आप फिरोजपुर में थे। वहीं एक रात आपने स्वप्न देखा। किसी ने कहा - देखो गरूड़ पर बैठकर भगवान विष्णु जा रहे हैं। तब आपने उधर देखा। श्याम वर्ण गरूड़ पर बैठे हुए भगवान विष्णु एक तरफ को चले गये।

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सम्प्रदाय - आपका विचार है कि बिना सम्प्रदाय के साधन नहीं होता, किन्तु वस्तु की उपलब्धि होने पर कोई सम्प्रदाय नहीं रहता। जिन्हें सम्प्रदाय का आग्रह होता है वे ही दूसरों का खंडन करते हैं। जैसे बिना नौका के नदी पार नहीं की जा सकती किन्तु नौका पर रहते हुए भी नदी पार नहीं की जा सकती। अथवा जैसे बिना जीना(सीढ़ी) के छत पर नहीं चढ़ा जा सकता किन्तु जीना पर रहते हुए भी छत पर नहीं चढ़ा जा सकता। वैसे ही बिना सम्प्रदाय के समुचित साधना नहीं होती। किन्तु सम्प्रदाय का आग्रह रखते हुए परमार्थ की उपलब्धि भी नहीं होती।

ब्रह्मगीता

इस ग्रन्थ में उपनिषदों के कुछ अध्यात्म विद्या सम्बन्धी प्रसंगों का ही श्री ब्रह्माजी ने उपदेश किया है। अद्वैत सम्प्रदाय मे श्री शंकरानन्द जी कृत आत्मपुराण और श्री विद्यारण्य स्वामीकृत अनुभूति प्रकाश भी इसी प्रकार के ग्रन्थ हैं। उनकी अपेक्षा यह बहुत पूर्ववर्ती है। अतः कहना न होगा कि उक्त ग्रन्थकारों ने इस ग्रन्थ की शैली का अनुकरण करते हुए ही उन ग्रन्थों की रचना की है। इसकी वर्णन शैली अत्यन्त उदात्त और गम्भीर है। उसमंे परमार्थ तत्व का बड़ा ही सजीव और मार्मिक विवेचन हुआ है। स्कन्द पुराण में भगवान शिव के स्वरूप की प्रधानता है। (उसी का भाग सूत संहिता है और उसके शिरो भाग में ब्रह्म गीता है।) अतः इस ग्रन्थ में परम तत्व का शिव रूप से ही वर्णन हुआ है। उन भगवान शिव की महिमा का वर्णन करते हुए कहीं कहीं विष्णु और ब्रह्मा की हीनता भी दिखाई है। परन्तु उसका तात्पर्य शिव जी का महत्व प्रकट करने में ही है। विष्णु की निन्दा में नहीं, क्योंकि जो परमार्थ तत्व शैवों की दृष्टि में शिव है वही वैष्णवों की दृष्टि में विष्णु और शाक्तों की दृष्टि में शक्ति है। प्राचीन शास्त्रों की ऐसी शैली ही है कि जहाँ जिसकी महिमा का वर्णन करना होता है वहाँ उसे ही सबसे बड़ा बताया जाता है तथा उसकी अपेक्षा अन्य सबकी हीनता प्रकट की जाती है।

ब्रह्मगीता अभी तक सम्भवतः किसी भी भारतीय लिपि में स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित नहीं हुई है। भाई नारायण दास जी ने मुझे इसका हिन्दी अनुवाद करने के लिए प्रेरित किया और स्वयं छपवाकर प्रकाशित करने का उत्तरदायित्व लिया। भगवत् कृपा से अब यह ग्रन्थ सानुवाद प्रकाशित हो रहा है।

विनीत

सनातन देव।


तटस्थता

आप कसौली (जि. सोलन हि.प्र.) में विगत चालीस वर्षों से प्रायः प्रतिवर्ष ग्रीष्म व वर्षा के दिनों में बंगाली बाबा के आश्रम में ठहरते थे। वहाँ सत्संगी कम हैं, फिर भी आपको वह स्थान बहुत पसन्द है। एक बार एक संत ने कहा कि आप यहाँ के गृहस्थ जनों को सत्कर्म की प्रेरणा दीजिये। आपने कहा - मैं तो यहाँ बहुत दिनों से आ रहा हूँ, किन्तु कभी किसी से कुछ कहता नहीं हूँ। दीवार की तरह रहता हूँ। कोई कुछ पूछता है तो अपनी समझ के अनुसार उचित राय दे देता हूँ। वह माने चाहे न माने उसकी मर्जी। उससे मुझे हर्ष या खेद नहीं होता।

ऋषिकेश में प्रेम दशा

एक बार आप ऋषिकेश में थे। एक दिन प्रातः काल एकान्त में एक चट्टान पर लेटकर आप जोर-जोर से रो रहे थे। वहाँ से कुछ दूर ऊपर पहाड़ी पर स्थित कैलाशाश्रम के संत श्री हरितीर्थ जी रहते थे। उनका प्रतिदिन टहलने का नियम था। उस दिन उधर से होकर ही जा रहे थे। आपका रोना सुनकर पास आ गये और पूछा - क्या बात है, पेट में तकलीफ है क्या? उनकी बात सुनकर आपको हँसी आ गयी, साथ में संकोच भी हुआ। स्वामी जी प्रेम की अवस्थाओं से परिचित थे। आपकी बात सुनकर उन्होंने कहा - तब तो मेरे आने से विक्षेप ही हुआ और पुनः ऊपर आश्रम की ओर चले गये। आप भी प्रकृतिस्थ होकर मंगल आश्रम पर आकर विश्राम करने लगे।

शक्तिपात

एक पत्र में आपने लिखा है- ‘‘तुमने शक्तिपात के विषय में पूछा। यह घटना प्रायः सन् 1948 ई. के शीतकाल की है। मुझे केवल वेद्य वस्तु के बोध के विषय में तो कोई सन्देह नहीं था। परन्तु आरम्भ से ही ऐसा मन था कि बिना निर्विकल्प समाधि हुए पूर्णता प्राप्त नहीं होती। परन्तु ध्यानाभ्यास में लगे रहने पर भी मुझे विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई। मेरे परिचित स्वामी विष्णुतीर्थ जी थे। वे शक्तिपात किया करते थे और उनका कथन था कि शक्तिपात होने पर साधक अपनी योग्यता के अनुसार साधन में स्वतः ही आगे बढ़ जाता है। उनमें मेरी सामान्यतया श्रद्धा थी। अतः मैंने पूछा कि, यदि किसी की आप में अश्रद्धा तो न हो, परन्तु विशेष श्रद्धा भी न हो, उस पर आपके द्वारा शक्तिपात हो सकता है या नहीं? उन्होेंने कहा - इसमें श्रद्धा की कोई बात नहीं है। वह तो गुरू की शक्ति है, काम करती ही है। यह वृन्दावन की घटना है। वे सेवा कुन्ज के पास रहते थे। अतः मैं प्रातः काल स्नानादि से निवृत्त होकर ब्रह्म मूहुर्त में उनके पास गया। उन्होंने दो दिन शक्तिपात किया, परन्तु मुझे कोई नवीनता अनुभव में नहीं आई। उन्होंने कहा, शक्ति गयी तो है, वह फिर कभी काम करेगी। इसके प्रायः दो वर्ष बाद वे मुझे पिलखुवा में मिले थे। वहाँ उन्होंने कहा कि जिन्हें कब्ज रहता है उन पर शक्तिपात काम नहीं करता।

अब जब भक्ति भाव का उन्मेष हुआ, तब मैंने उन्हें पत्र लिखा था। वे देवास में आश्रम बनाकर रहने लगे थे। परन्तु उनका कोई उत्तर नहीं आया। फिर कभी वे नहीं मिले। अब उनका शरीर नहीं है।

जोधपुर 15.1.85

शिष्य बनाये

एक पत्र में आपने लिखा है- ‘मेरे एक सत्संग के साथी हैं, मनमोहन जी। आजकल वे अयोध्या के रामसखी जी के मन्दिर के महन्त हैं। उनके पिता श्री शम्भूनाथ इलाहाबाद के रहने वाले थे और जयपुर में वकालत करते थे। अपने समय के वे वहाँ के सबसे बड़े वकील माने जाते थे। परन्तु जब मुझसे मिले थे तब वकालत छोड़ चुके थे। उनका आग्रह था कि मैं संन्यास लूंगा और आपसे ही लूंगा। मैं तो किसी को शिष्य बनाता नहीं। एक बार मैं इलाहाबाद गया और श्री शंकराचार्य के ब्रह्म निवास आश्रम में ठहरा था। वे मेरे पास आये। उनका कोई आपरेशन हुआ था। इसलिये मूत्र त्याग मूत्रेन्द्रिय से न होकर एक नल द्वारा बोतल में जमा होता रहता था। उनके हाथ में वह बोतल लगी हुई थी। उन दिनों वे कोई मुकदमा भी लड़ रहे थे। मुझसे संन्यास देने का आग्रह किये। मैंने उन्हें बहुत समझाया, परन्तु उन्होंने आग्रह नहीं छोड़ा। तब मैंने कहा कि आपको पेशाब की बोतल हाथ में रखनी पड़ती है। ऐसी स्थिति में आप न तो किसी आश्रम में रह सकेंगे और न स्वयं भिक्षा मांग सकेंगे। अतः कैसे संन्यास निभेगा।

केवल एक प्रकार का संन्यास हो सकता है कि जब आप मुकदमें से निवृत्त हो जायँ तब त्रिवेणी तट पर कोई कुटी बनाकर रह जायँ, कहीं जायँ नहीं। वहाँ स्वयं कोई भिक्षा दे जाय तो पाली नहीं तो गंगाजल पीकर रह गये। इस तरह शरीर रहे तो ठीक, न रहे तो न सही। उन्होंने इस प्रकार रहना स्वीकार कर लिया। तब मैंने उन्हें प्रैष मंत्र लिखकर दे दिया और कहा कि मुण्डन कराकर गंगा स्नान करके यह मन्त्र बोलकर वस्त्र बदल लेना और अपना नाम वामदेव रख लेना। उन्होंने पीछे ऐसा ही कर लिया था। परन्तु वे कहीं गिर गये थे, इसलिए चलने में असमर्थ हो गये थे। तब उनके पुत्र मनमोहन जी ‘जिनका नाम अब राम मोहन शरण हो गया था, उन्हें अयोध्या ले गये थे। वहीं उनका शरीर शान्त हो गया था। उन्हें उक्त अनुमति देने के बाद मेरा उनसे मिलना कभी नहीं हुआ।

13.2.85 जोधपुर

महात्मा भूरी बाई

पुस्तक की प्रस्तावना में आप लिखते हैं - सम्भवतः सन् 1948 ई. की बात है। मैं उदयपुर गया था। अपने पुराने सहपाठी श्री लक्ष्मीलाल जी जोशी के पास। उस समय वे शिक्षा विभाग के निदेशक के पद पर थे। उससे पहले सन् 1939 ई. में गीता प्रेस तीर्थ यात्रा ट्रेन का सदस्य होने के नाते मैं नाथद्वारा गया था। किन्तु तब तक मैंने आदरणीया श्री बाई जी के विषय में कुछ भी सुना नहीं था। उसके पश्चात् मैंने सुना कि नाथद्वारा में श्री भूरी बाई नाम की एक महिला संत हैं जो सात-सात दिनों तक समाधिस्थ रह जाती हैं। अतः तब से ही मुझे उनके दर्शनों की उत्कण्ठा थी। जब उदयपुर गया तो मालूम हुआ कि श्री जोशी जी से उनका अच्छा परिचय है। उन दिनों मैं अपने पास पैसा नहीं रखता था। इसलिये किसी अपरिचित स्थान पर स्वतन्त्र रूप से जाने में असुविधा अनुभव करता था। श्री जोशी जी ने श्री कालीदास जी भाटिया के नाम एक पत्र लिख दिया। वे श्री बाई जी के प्रधान सेवक थे। उस पत्र को लेकर उदयपुर से नाथद्वारा चला गया।

तभी श्री बाई जी का मुझे पहली बार दर्शन हुआ। उस समय वह अपने निजी घर में रहती थीं। वह बहुत छोटा था, परन्तु वे स्वयं उतनी ही महान थीं। मैं दिनभर उसी घर में रहा और उनका आतिथ्य ग्रहण किया। उन्होंने श्री श्रीनाथ जी के राजभोग का प्रसाद मंगाकर उसका रसास्वादन कराया। उस समय दोपहर पश्चात् इसी स्थान पर कुछ भक्तजन श्री राम चरित मानस का गान करते थे। इसके सिवा और कोई सत्संग चर्चा सुनने को नहीं मिली। अतः श्री बाई जी के मुख से कोई परमार्थ चर्चा सुनने की मुझे इच्छा हुई। इसी उद्देश्य से मैंने श्री बाई जी से पूछा - श्री दुर्गा सप्तशती में कहा है -

ज्ञानिना मपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।

बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।।

तथा गोस्वामी श्री तुलसीदास जी भी लिखते हैं -

जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई। बरिआईं बिमोह मन करई।।

इससे जान पड़ता है कि माया के प्रभाव से ज्ञानी भी मुक्त नहीं होते। यदि ऐसी बात है तो तत्व ज्ञान से भी अभय पद की प्राप्ति नहीं हो पाती। माया के प्रभाव से वहाँ भी छुटकारा नहीं मिलता। इस विषय में आप का क्या विचार है?

श्री बाई जी बोलीं, ‘बावजी’ थे ही अपनो विचार कहो। मैं तो उनका ही विचार सुनना चाहता था, अतः बोला, ‘बाई जी ! हम तो भिक्षुक हैं। आपके घर आकर भिक्षा मांग रहे हैं। आपकी इच्छा हो तो भिक्षा दे दीजिये। तब बाई जी ने कहा। कुछ रह जाता होगा। यही रह जाता होगा कि मैं ज्ञानी हूँ। इस संक्षिप्त उत्तर से मेरा समाधान तो हुआ ही, मुझे यह भी अनुभव हुआ कि अध्यात्म विद्या मेें श्री बाई जी की पैठ बहुत गहरी है। सचमुच ज्ञानाभिमान एक ऐसा दोष है, जिसका मोह साधक बहुत कठिनता से छोड़ पाता है और वह उसके पतन का कारण होता है। श्री बाई जी ने बहुत थोड़े शब्दों में बहुत गहरी बात कही है।

इससे श्री बाई जी के प्रति मेरी बहुत श्रद्धा हो गयी और मुझे पुष्कर, नाथद्वारा, सरदारगढ़, वृन्दावन और जयपुर में कई बार उनसे मिलने का सुअवसर प्राप्त हुआ। उनसे विशेष परमार्थ चर्चा तो नहीं होती थी, परन्तु उनका मातृवत सहज स्नेह हठात् चित्त को आकर्षित कर लेता था। उनमें अत्यन्त सरलता, सादगी और गहरी आत्मीयता आदि अनेक गुण थे। इतना सहज स्नेह रहने पर भी वह सर्वथा असंग थीं और असंग रहने की प्रेरणा भी देती थीं। उनकी ब्रह्म निष्ठा अक्षुण्ण थी। वे स्वयं परमार्थ चर्चा बहुत कम करती थीं, परन्तु जो कुछ कहती थीं उससे उनकी गम्भीर निष्ठा का आभास अनुभव होता था। एक बार पुष्कर में मेरे अभिन्न मित्र स्वामी ब्रह्म ज्योति जी ने उनसे कहा, ‘बाई जी’ आपका कथन तो सर्वथा सत्य है, परन्तु सब इसके अधिकारी नहीं हैं। सिंहनी का दूध सुवर्ण के पात्र में ही ठहरता है। इस पर श्री बाई जी ने कहा - ‘तो सिहंनी गीदड़ी को दूध कठैशूँ लावै।’ ऐसी थी उनकी ब्रह्म निष्ठा। श्री नारायण स्वामी जी ने उन्हें साक्षात् श्री नारायण जी के दर्शन कराने की बात कही और उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया। इससे नाम और रूप के प्रति उनकी सुदृढ़ अनास्था की अनुभूति होती है।

श्री जोशी जी ने प्रस्तुत ग्रन्थ का संकलन करके निःसन्देह जिज्ञासुओं का बड़ा उपकार किया है। इस समय जो लोग विद्यमान हैं उनमें से ऐसा कोई नहीं है जो उनकी अपेक्षा श्री बाई जी के सम्पर्क में अधिक आया हो। श्री बाई जी ने यह कहकर कि इसे तो मैंने नौ महिने केवल पेट में ही नहीं रखा, आपके प्रति स्वयं अपनी गहरी आत्मीयता प्रकट की है। अतः आपसे अधिक उन्हें समझने और उनके आन्तरिक भाव को अभिव्यक्त करने में और कौन समर्थ हो सकता था। प्रस्तुत पुस्तक में श्री बाई जी के जीवन की संक्षिप्त झांकी तो है ही, उनके सान्निध्य और सत्संग से जिज्ञासुओं ने जो अमूल्य सामग्री संगृहीत की है, उसका भी रसास्वादन हो जाता है। जीवनी यद्यपि बहुत संक्षिप्त और औपचारिक है, तथापि उससे उनके शील स्वभाव, त्याग, तपस्या, तितिक्षा और औदार्य का पूरा परिचय मिल जाता हैं।

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श्रीमद् भगवद गीता गूढार्थ दीपिका की टीका

अनुवादक का निवेदन

श्रीमद् भगवद् गीता भारतीय वांग्मय का एक दे देदीप्यमान रत्न है, हिन्दू धर्म ग्रन्थों में ही नहीं, विश्व के सम्पूर्ण आध्यात्मिक साहित्य में इसका स्थान बहुत ऊँचा है। यह ऐसा सर्वमान्य ग्रन्थ है जिसका स्वदेश और स्वधर्म में ही नहीं, विदेश और परधर्मांे में भी बहुत अधिक मान है। संसार में गीता के जितने अनुवाद औेर संस्करण मिलते हैं उतने बाइबिल को छोड़कर और किसी ग्रन्थ के नहीं मिलते। भारतीय मनीषियों ने भी टीका अनुवाद और टिप्पणियों के द्वारा जितना विस्तार और विवेचन इस ग्रन्थ का किया है उतना और किसी का नहीं किया। आचार्यों ने अपने मतवादों का आधार उपनिषद् ब्रह्म सूत्र और गीता- इन तीनों प्रस्थानों को ही माना है। इनमें भी सर्व साधारण के लिये जितनी सुलभ और सुबोध गीता है उतने अन्य दो प्रस्थान नहीं है। अतः यह निर्विवाद सिद्ध है कि गीता भारतीय दर्शन शास्त्र की सर्वाेत्कृष्ट परिणति है।

गीता के वक्ता हैं भगवान श्री कृष्ण और श्रोता हैं वीराग्रगण्य पाण्डु पुत्र अर्जुन, जो आस्तिकों की दृष्टि से स्वयं श्री नारायण और नर के अवतार हैं। श्री नारायण और नर दोनों ही धर्म के द्वारा मूर्ति के उदर से आविर्भूत हुए थे और दोनों ही भगवद् अवतार माने जाते हैं। इनमें नारायण ईश्वर के प्रतीक हैं और नर जीव के। ईश्वर और जीव तो उपनिषद् की भाषा में समान वृक्ष पर साथ-साथ रहने वाले दो पक्षी हैं। इस प्रकार दोनों ही सखा हैं। वस्तुतः इन दोनों का सख्य या साथ कभी नहीं छूटता। किन्तु कर्म फल का लोभी जीव भ्रमवश अपने को अपने नित्य सखा ईश्वर से बिछुड़ा समझने लगता है और मोह में पड़कर शोकाकुल हो जाता है। इस शोक और मोह से उसका उद्धार करने में ईश्वर से बढ़कर और कौन समर्थ हो सकता है? ठीक ऐसी ही परिस्थिति अर्जुन की भी है। श्री कृष्ण का नित्य सखा होने पर भी वह बन्धु-बान्धवों के मोहवश स्वधर्म को भूल शोकाकुल हो जाता है। उस समय श्री कृष्ण अपनी अमृतमयी वाणी से उसे सचेत करते हैं और वह मोहमुक्त होकर पुनः एक सच्चे सखा की भाँति श्री कृष्ण की आज्ञा का अनुवर्तन करने को तैयार हो जाता है। इस प्रकार अर्जुन में जीव की बद्ध और मुक्त दोनों अवस्थाओं का दिगदर्शन होता है और प्रभु किस प्रकार जीव का प्रत्येक अवस्था में त्राण करते हैं- इसके प्रतीक है श्री कृष्ण। श्री कृष्ण की वह अमृतमयी वाणी - जीव की सुप्त चेतना को जाग्रत करने वाली उनकी वह मधुर मुरली ध्वनि ही है गीता। प्रभु के पाद पद्मांे से निःस्तृत श्री भागीरथी त्रिलोकी को पवित्र करती है, फिर साक्षात् उनके वदनाविन्द से आविर्भूत श्री गीता जी की महिमा तो कह ही कौन सकता है?

ऊपर हम कह चुके हैं कि श्री गीता जी पर अनेक विद्वानों ने टीका और व्याख्यायें लिखी हैं। उनमें भी जितनी टीकाएं अद्वैत सम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा लिखी गयी हैं उतनी और किसी सम्प्रदाय द्वारा नहीं लिखी गयीं। उन टीकाओं में श्री मधुसूदन स्वामी की गूढ़ार्थ दीपिका का स्थान यदि सर्वोच्च कहा जाय तो भी अत्युक्ति न होगी। इसमें सन्देह नहीं कि गीता के सभी प्रकरणों को अद्वैत निष्ठा के रंग से रंगने में तो श्री शंकरानन्द जी ही सब से बढ़े-चढ़े हैं, परन्तु उसके विभिन्न प्रसंगों को यथा स्थान सुरक्षित रखते हुए उनकी प्रसंगानुकूल व्याख्या करने में श्री सरस्वती जी की वाणी ही सफल हुई है। आपने यथा स्थान ज्ञान, योग, भक्ति, न्याय और मीमांसा सभी दार्शनिक दृष्टियों का पूर्णतया आदर किया हैं। उससे गीता की सर्व मान्यता तो सुरक्षित रहती ही है, आपकी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय भी प्राप्त होता है।

यह सब होते हुए भी श्री मधुसूदन स्वामी का दार्शनिक दृष्टिकोण अद्वैत सिद्धान्त के ही अनुरूप है। इसे व्यक्त करने में उन्होंने कहीं-कहीं साकारवाद की दार्शनिक दृष्टि से कुछ भर्त्सना भी की है, तथापि भक्ति पक्ष का समर्थन और प्रतिपादन करने में स्वयं भगवान शंकराचार्य से भी अपना मतभेद प्रकट करने में संकोच नहीं किया। आचार्य चरणों का उन्होंने सर्वत्र आदर किया है और भाष्य की व्याख्या करके उसे सर्व साधारण के लिए सुलभ करना ही अपनी टीका का उद्देश्य बताया है। जहाँ-जहाँ अपना मतभेद प्रकट किया है वहाँ भी आचार्य चरणों के प्रति अन्यन्त विनय ओर शालीनता व्यक्त की है। इससे जहाँ एक ओर आचार्य चरणों के प्रति उनकी अटूट श्रद्धा प्रकट होती है वहाँ दूसरी ओर उनके विचार स्वातन्त्रय और सत्य निष्ठा का भी आभास मिलता है। एक सच्चे संत में सचमुच इन दोनों गुणों की आवश्यकता है। सच्चे आचार्य और गुरू ऐसे अनुयायी और शिष्य को पाकर प्रसन्न ही होते हैं। परवर्ती कई विद्वानों ने सरस्वती जी के इस विचार स्वातन्त्रय की भर्त्सना और समालोचना भी की है। परन्तु ऐसा करके क्या उन्होेंने उन्हीं के स्वभाव का अनुसरण नहीं किया। हाँ, इतना अन्तर अवश्य है कि इनकी यह प्रवृत्ति एक व्यक्ति विशेष का अनुसरण करने के कारण है। जबकि सरस्वती जी ने अपने विवेक या अन्तरात्मा का आदर करते हुए वैसा किया था।

इस प्रकार हम देखते हैं कि श्री मधुसूदन स्वामी की यह व्याख्या अत्यन्त बहुमुखी और पाण्डित्यपूर्ण है। मेरे जैसे सामान्य विद्याबुद्धि सम्पन्न व्यक्ति का इसके अनुवाद में प्रवृत्त होना दुःसाहस मात्र था। परन्तु सबके अन्तः करणों को प्रेरित करने वाले प्रभु तो परम स्वतन्त्र हैं। वे कब किसको क्यों किस कार्य में प्रवृत्त करते हैं - इसका कोई नियम तो है नहीं। आज से प्रायः चौबीस वर्ष पूर्व उन्हीं की प्रेरणा से यह अनुवाद लिखा गया था। इसके कोई-कोई स्थल तो आज भी मेरे लिए दुरूह ही हैं। परन्तु कुछ सम्मान्य महानुभावों की सहायता से उनका भी अनुवाद हो ही गया है। उन महानुभावों में विरक्तशिरोमणि स्वामी श्री ब्रह्मप्रकाश जी, महामण्डलेश्वर स्वामी श्री स्वतन्त्रानन्द जी, मीमांसा तीर्थ न्यायाचार्य स्वामी श्री योगीन्द्रानन्द जी और पं. श्री रामनारायण दत्त जी शास्त्री के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इस सम्पूर्ण ग्रन्थ के अनुवाद में मुझे शास्त्री श्री हरिलाल कालिदास जी के गुजराती अनुवाद से सहायता मिली है। अतः मैं इन सभी महानुभावों का अनुगृहीत हूँ।

परम् आदरणीय स्वामी श्री योगीन्द्रानन्द जी ने इस ग्रन्थ के संशोधन में बहुत अधिक सहयोग दिया है। उन्होंने इसकी भूमिका लिखी है और सम्पूर्ण ग्रन्थ पर टिप्पणी लिखना भी आरम्भ किया था, परन्तु कार्य की अधिकता के कारण पुस्तक की छपाई के साथ वे इसे न लिख सके। इसलिये इस संस्करण में वह अपूर्ण ही रह गयी। उनकी इन कृपाओं का मैं अत्यन्त आभारी हूँ और उनसे प्रार्थना करता हूँ कि अगले संस्करण तक वे अपनी टिप्पणी पूरी लिख दें, जिससे जनता के लिये यह ग्रन्थ अधिकाधिक उपयोगी हो जाय।

’ ’ ’

विनीत

मार्गशीर्ष कृ. 1 सं. 2018 सनातन देव

अनुवाद तथा अनुवादक के सम्बन्ध में -

श्री स्वामी योगीन्द्रानन्द जी लिखते हैं - अनुवाद भी एक प्रशस्त कला है। सबके ललाट पर इसकी रेखा नहीं होती। अनुवाद के साथ अनुवादक के व्यक्तित्व का तादात्म्य होता है। कुशल अनुवादक के शब्दों में मूल ग्र्रन्थ की धूमिल अन्तरात्मा भी निखर उठती है। उसका वर्चस्व प्रखर और भावाभिव्यन्जना प्रस्फीत हो जाती है। प्रस्तुत अनुवाद इसी कोटि का है। श्री मधुसूदन सरस्वती जैसे दिग्गज विद्वान की लेखनी प्रोन्नत वैदुषी की निकष ग्रावा है। उसकी विद्युच्चपल लोकोत्तर वक्र थिरकन का स्थिर स्वच्छ सुगम चित्रपट पर अंकन करना असम्भव नहीं तो क्लिष्ट अवश्य है। इस कार्य में यह अनुवाद पूर्ण कृतार्थ और शत प्रतिशत सफल उतरा है।

इस ग्रन्थ रत्न के अनुवादक हैं स्वनाम धन्य स्वामी श्री सनातन देव जी। पूर्वाश्रम में आप श्री मुनिलाल जी के नाम से प्रसिद्ध थे। आपने गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित कल्याण के सम्पादन विभाग में रहते हुए अनेक उच्च कोटि के ग्रन्थों का अनुवाद किया था। आपका जीवन बहुत ही सात्विक और सरल है। किसी प्रकार की बनावट या दिखावट आपको पसन्द नहीं है। आप पैसा पास नहीं रखते और वस्त्रादि अन्य सामग्री भी आवश्यकता से अधिक रखना आपकी रूचि के विरूद्ध है। ..... आपके सौजन्य, निरभिमानता तथा त्याग से मैं पूर्ण प्रभावित हूँ।

26.1.62 स्वामी योगीन्द्रानन्द

उदासीन संस्कृत विद्यालय न्यायाचार्य, मीमांसातीर्थ

ढुण्ढिराज, वाराणसी


त्रिपुरा रहस्य

भारतीय वाड.मय में अध्यात्म तत्व का प्रतिपादन करने की अनेकों पद्धतियां हैं। उन सभी का मूल आधार वेद है। यह ठीक है कि बौद्ध जैन आदि कुछ सम्प्रदायों ने अपनी विचार धारा को वेद मूलक नहीं माना, और कहीं-कहीं वैदिक सिद्धान्तों से अपना तीव्रतर मदभेद भी प्रकट किया है, तथापि उनके मौलिक सिद्धान्तों की छाया भी कहीं-कहीं श्रुतियों में मिल ही जाती है। अस्तु, इस समय उनके विषय में हमें कुछ भी विचार करना नहीं है। वेदानुसारिणी पद्धतियों में सूत्र, स्मृति, तन्त्र और पुराण आदि की गणना की जाती है। प्रस्तुत ग्रन्थ तान्त्रिक साहित्य के अन्तर्गत है। तन्त्रों का क्षेत्र अत्यन्त विशाल है। तथापि सामान्यतया उसे शैव, शाक्त और वैष्णव तीन विभागों में विभक्त किया जा सकता है। गाणपत्य सौर आदि अन्य तन्त्र भी न्यूनाधिकरूप से इन्हीं के अन्तर्गत आ जाते हैं। तान्त्रिक साधना के द्वारा साधक केा बहुत शीघ्र अपने अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। अन्य साधनाओं से इसकी मुख्य विलक्षणता यह है कि यह ज्ञान के साथ साधक को ऐश्वर्य की प्राप्ति भी करा देती है। तन्त्रों का मत है कि ज्ञान हो जाने पर भी जब तक साधक मंे घृृणा, लज्जा, भय, शंका, जुगुप्सा, कुलाभिमान, शील और जाति ये आठ प्रतिबन्ध रहते हैं, तब तक उसके जीवत्व की निवृत्ति नहीं होती। तन्त्र इन आठ प्रतिबन्धों को ‘अष्ट पाश’ कहता है और जो इनसे मुक्त हो जाता है उसी को शिवत्व की प्राप्ति बतलाता है -

‘घृणा, लज्जा, भयं, शंका, जुगुप्सा चेति पंचमी।

कुलं, शीलं तथा जाति रष्टौ पाशाः प्रकीर्तिता।।

पाशबद्धो भवेज्जीवः पाशमुक्तः सदाशिवः।।

तन्त्रों की ही दूसरी संज्ञा आगम भी है। शाक्त आगमों में ‘त्रिपुरा रहस्य’ एक प्रधान ग्रन्थ है। इसकी श्लोक संख्या बारह हजार बताई जाती है। इसके तीन खण्ड हैं - माहात्म्य, चर्या और ज्ञान। प्रस्तुत ग्रन्थ ज्ञान खण्ड है। इसकी श्लोक संख्यां 2163 है। महात्म्य खण्ड 6687 श्लोंकों का ग्रन्थ बताया जाता है। चर्या खण्ड लुप्त हो चुका है। उसकी कोई प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी। ज्ञान खण्ड पर श्रीमत् श्री बुध निवास विरचित ‘तात्पर्य दीपिका’ नाम की संस्कृत टीका है। पहले मूल ग्रन्थ का अनुवाद मराठी भाषा में हुआ था। उसी का हिन्दी अनुवाद श्री माधवराव सप्रे ने (जो लोकमान्य तिलक द्वारा विरचित गीता रहस्य के भी हिन्दी-अनुवादक थे) ‘दत्त भार्गव संवाद’ नाम से किया था।

प्रायः चालीस वर्ष हुए यह ग्रन्थ नागपुर निवासी सेठ नागर मल पोद्दार ने प्रकाशित किया था। अब यह अप्राप्य है। परमार्थ प्रेमियों को यह ग्रन्थ अत्यन्त उपादेय और रूचिकर जान पड़ा। अतः प्रायः दस वर्ष हुये, उसी पुस्तक को अविकल रूप से ‘त्रिपुरा रहस्य’ नाम से दिल्ली निवासी श्री नारायण दास जी मुल्तानी ने प्रकाशित किया था। किन्तु उनकी तथा उनके कुछ मित्रों की इच्छा थी कि इसे मूल और अनुवाद सहित भी प्रकाशित कराना चाहिए। अतः उन्हीं के प्रेम पूर्ण अनुरोध से प्रस्तुत ग्रन्थ तैयार हुआ है। आशा है, इसके द्वारा जिज्ञासुओं की अच्छी सेवा हो सकेगी। दिल्ली से जो प्रति प्रकाशित हुई है उसमें प्रकाशक के अनुरोध से इन पंक्तियों के लेखक ने ही भूमिका लिखी थी। यह आमुख प्रायः अविकल रूप से उसी की प्रतिलिपी है।

इस ग्रन्थ के प्रणेता महर्षि हारितायन हैं। उन्होंने अवधूत शिरोमणि दत्तात्रेय और परशुरामजी का यह संवाद देवर्षि नारद को सुनाया है। परशुराम जी ने पहले भगवान दत्तात्रेय के मुखारविन्द से भगवती त्रिपुरा देवी की महिमा सुनी। इससे उनके हृदय में श्री त्रिपुर सुन्दरी के प्रति अत्यन्त भक्तिभाव उदित हुआ। गुरूवर दत्त से देवी की उपासना का सब क्रम जानकर उन्होंने महेन्द्र पर्वत पर जाकर बारह वर्ष तक बड़ी तत्परता से देवी की उपासना की। उपासना में तल्लीन रहते हुए ही उनके चित्त को इस सृष्टि चक्र और परमार्थ तत्व की समस्या आन्दोलित करने लगी। पहले इस विषय में वे मुनिवर संवर्त से जिज्ञासा कर चुके थे। परन्तु उस समय उनकी कोई बात उनकी समझ में नहीं आई। अतः अब गुरूवर दत्त के पास जाकर उन्होंने इसी विषय में प्रश्न किया और उनके मुखारविन्द से यह सारा उपदेश सुनकर वे सब प्रकार के सन्देहों से छूटकर कृतकृत्य हो गये। इससे यह बात सूचित होती है कि जब तक साधक निष्काम कर्म और उपासना के द्वारा शुद्धान्तः करण होकर तत्व साक्षात्कार की योग्यता प्राप्त नहीं कर लेता तब तक संवर्त-जैसे तत्वनिष्ठ महापुरूष का उपदेश सुनने पर भी वह परमार्थ तत्व को ग्रहण नहीं कर सकता।

त्रिपुरा रहस्य के अनुसार परम तत्व शुद्ध चैतन्य स्वरूप है। वह सर्वत्र व्याप्त और सभी प्रकार की मर्यादाओं से शून्य है। उसमें अनन्त शक्तियाँ हैं। तथा वह पूर्ण स्वातन्त्रय समन्वित है। उसकी शक्तियां उससे सर्वथा अभिन्न हैं। सृष्टि से पूर्व वे उसमें अव्यक्त रूप से लीन रहती हैं तथा सर्ग काल उपस्थित होने पर अपनी संकल्प शक्ति से वह शुद्ध चिति ही दर्पण में प्रतिविम्ब के समान इस दृश्य प्रपन्च को अपने में आभासित कर देती है। यद्यपि आकारात्मक देश और क्रियात्मक काल का आभास भी इस चिति शक्ति में ही होता है, तथापि इनका आधार होने के कारण वह किसी भी प्रकार उनसे प्रभावित नहीं होती, जिस प्रकार कि दर्पण अपने प्रतिबिम्बित वस्त्वाभासों से सर्वथा असंग ही रहता है।

ष्यह शुद्ध चिति ही सुरासुर वन्दिता त्रिपुरा देवी है। शाक्त तन्त्रों में त्रिपुरा को ही ललिता, षोडशी, श्री विद्या, कामेश्वरी, भुवनेश्वरी एवं त्रिपुर सुन्दरी आदि नामों से कहा है। इनका स्वरूप अत्यन्त मनोमुग्धकारी है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव और इन्द्र इनके सिंहासन के चार पाद हैं और सदाशिव उसका पट्ट है। यद्यपि इनकी गणना दस महाविद्याओं में है, तथापि कुछ तन्त्रों के मतानुसार तो वे स्वयं ही एक स्वतन्त्र महाविद्या हैं। शक्ति संगम तन्त्र का कथन है कि ये ललिता देवी ही कृष्ण संज्ञक पुरूष रूप धारण करती हैं - ‘कदाचिदाद्या ललिता पुंरूपा कृष्ण विग्रहा।’ तथापि वैष्णव तन्त्रों के अनुसार ललिता निकुन्जेश्वरी श्री राधिका जी की प्रधान सखी हैं। इसमें सन्देह नहीं कि महाविद्या ललिता सुन्दरी और श्री राधा कृष्ण सहचरी ललिता के स्वरूप, शक्ति एवं लीलाओं में बहुत अधिक अन्तर है। अतः चिद्रूपिणी होने के कारण तत्वतः तो इनका अभेद हो सकता है, किन्तु उपासना भेद होने के कारण लीलाभूमि में इनकी एकता नहीं हो सकती।

यहाँ एक बात विचारणीय है। त्रिपुरा रहस्य द्वारा प्रतिपादित शुद्ध चिति यद्यपि आपात दृष्टि से अद्वैत सिद्धान्त द्वारा शुद्ध चिन्मात्र परब्रह्म से अभिन्न जान पड़ती है, परन्तु दार्शनिक दृष्टि से ऐसी बात नहीं है। इसमें सन्देह नहीं कि तत्वतः तो ये एक ही हैं, परन्तु दोनों दार्शनिक इसे एकरूप में नहीं देखते। ये दोनों ही इसे स्वयं प्रकाश तथा देश काल और वस्तु के परिच्छेद से शून्य बताते हैं। यही नहीं, इन दोनों ही दार्शनिकों के मत में यह दृश्य प्रपन्च सर्वथा असत और माया का विलास मात्र है, परन्तु फिर भी इनके दृष्टिकोणों में एक सूक्ष्म अन्तर है। अद्वैत सिद्धान्त ब्रह्म को सर्वथा निर्विशेष, निर्विकार, निर्गुण और कूटस्थ-नित्य प्रतिपादित करता है। तथा इस दृश्य प्रपन्च को वह सदसद से विलक्षण अनिर्वचनीया माया की महिमा से, मन्दान्धकार में पड़ी हुई रज्जु में भ्रम से ही प्रतीत होने वाले सर्प, दण्ड एवं धारा आदि विकल्पों के समान, केवल प्रतीति मात्र मानता है। उसकी दृष्टि में संसार कभी उत्पन्न नहीं हुआ। अतः वह उसका विवर्त मात्र है। किन्तु त्रिपुरा रहस्य उस परमार्थ तत्व में अनन्त शक्ति और पूर्ण स्वातन्त्रय स्वीकार करता है। उसके मतानुसार शुद्ध चिति अपने पूर्ण स्वातन्त्रय के कारण अपने अमोघ संकल्प द्वारा भित्ति रूप अपने ही ऊपर इस जगच्चित्र को आभासित कर देती है। दर्पण में जैसे सामने के पदार्थों का प्रतिबिम्ब पड़ता है उसी प्रकार शुद्ध चिति में उसके संकल्पवश यह जगच्चित्र प्रतिबिम्बित हो उठता है। यह उसका सहज सामर्थ्य है। अतः यह शाक्त दर्शन यद्यपि शांकर सिद्धान्त की भाँति अद्वैतवादी ही है, तथापि इसके द्वारा स्थापित अद्वैत तत्व अकर्ता, अभोक्ता, निर्गुण और निर्विशेष नहीं है। वह शक्ति मय और विमर्श रूप है। ‘विमर्श’ उसकी क्रिया शक्ति का नाम है। वह क्रिया शक्ति उसमें सर्वदा विद्यमान रहती है। सृष्टि काल में वह व्यक्त हो जाती है, अतः उस समय उसे ‘बाह्याभास’ कहते हैं। और प्रलय काल में वह लीन रहती है, इसलिये उसे अनहंभाव कहा जाता है। यद्यपि यह अनहंभाव वेदान्तोक्त मूल अविद्या के समान ही है, तथापि मूला अविद्या ब्रह्म में अध्यस्त और जड़ रूपा है, तथा यह अनहं भाव उस शुद्ध चिति की इच्छा शक्ति है और उससे सर्वथा अभिन्न है।

इस प्रकार अद्वैत वेदान्त विवर्त्त वादी है और शाक्त दर्शन आभास वादी। प्रपन्च दोनों ही के सिद्धान्तानुसार केवल प्रतीति मात्र और स्वरूपतः असत् है। किन्तु अद्वैत मत के अनुसार यह प्रतीति भ्रम मूलक है और शाक्त मत के अनुसार यह परमार्थ तत्व के सहज सामर्थ्य से होती है। अद्वैत सिद्धान्त में इसका कारण अनादि अनिवर्चनीया माया है और शाक्त सिद्धान्त कहता है कि इसका कारण परम चिति का स्वातन्त्रय मूलक संकल्प है। परन्तु दोनों ही सिद्धान्तों के अनुसार दृश्य की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। जिस प्रकार रज्जु में भ्रम से प्रतीत होने वाला सर्प उससे भिन्न कुछ भी नहीं होता उसी प्रकार दर्पण में उसकी स्वच्छता के कारण प्रतीत होने वाला प्रतिबिम्ब भी दर्पण से भिन्न कुछ नहीं होता। अतः दोनों ही सिद्धान्तों के अनुसार एक अखण्ड अद्वैत चिन्मात्र सत्ता ही परमार्थ हैं। और वही दोनों का लक्ष्य भी है।

लक्ष्य एक होने पर भी जिस प्रकार उपर्युक्त दोनों दर्शनों के अनुसार उनके लक्षणों में भेद है उसी प्रकार उसकी उपलब्धि के साधनों में भी अन्तर है। अद्वैत वाद एक मात्र विचार को ही उसकी उपलब्धि का साधन बताता है, क्योंकि उसके अनुसार वह साधक का अपना नित्यसिद्ध स्वरूप ही है। वह उसे नित्य प्राप्त है। केवल अविद्या के कारण ही उसकी अप्राप्ति का भ्रम है। अतः विचार से अविचार या अविद्या की निवृत्ति होने पर उसे स्वयं ही उसकी अनुभूति हो जाती है। इसके लिये उसे गुरूमुख से वेदान्तोवक्त महावाक्यों का अर्थ श्रवण करने की आवश्यकता होती है। क्योंकि जो वस्तु प्रत्यक्ष सम्मुख होने पर भी केवल अज्ञान के कारण अपरिचित रहती है, उसका परिचय किसी आप्त पुरूष के कथन के सिवा और किसी प्रकार नहीं हो सकता। अतः जिन शुद्धचित्त जिज्ञासुओं के हृदय में मल-विक्षेप रूप कोई दोष नहीं होता उन्हें तो गुरूदेव के उपदेश श्रवण से ही उस तत्व का अप्रतिबद्ध बोध हो जाता है। किन्तु जिनमें चित्त की अशुद्धि के कारण संशय-विपर्यय रूप प्रतिबन्ध रहता है उन्हें उसकी निवृत्ति के लिए मनन और निदिध्यासन भी करने पड़ते हैं। इनमें मनन से संशय और निदिध्यासन से विपर्यय की निवृत्ति होती है। और फिर अखण्डाकार वृत्ति होकर उन्हें प्रतिबन्ध शून्य ज्ञान होता है। इस प्रकार अद्वैत मत के अनुसार तो श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन ही ज्ञान के प्रधान साधन हैं।

परन्तु शाक्त मत के अनुसार विचार उसका प्रधान साधन नहीं है। प्रत्युत विचार का अभाव होने पर ही उसका भान होता है - ‘न तद्विचार्य विज्ञेयमविचाराद्विभासते’ (9/82)। इस सिद्धान्त के अनुसार शास्त्र या गुरूपदेश से तो केवल परोक्ष ज्ञान होता है, उससे मोक्ष नहीं हो सकता। अपरोक्ष ज्ञान तो समाधि का परिपाक होने पर ही होता है। इसका एक विशेष कारण है। इस सिद्धान्त के अनुसार भी यद्यपि चिति नित्यसिद्धा और सबकी स्वरूप भूता ही है, तथापि उसका तिरोधान अज्ञान या अविचार के कारण नहीं अपितु उसकी विमर्श शक्ति से प्रतिभासित दृश्यवर्ग के कारण माना गया है। प्रतिबिम्ब का अभिनिवेश रहते हुए जैसे दर्पण का स्पष्ट भान नहीं होता, उसी प्रकार जब तक चित्त दृश्य और दर्शन में अभिनिविष्ट रहता है, तब तक उसे उनकी आधार भूता चिति का परिचय नहीं होता। अतः इसके लिये पहले उसे निष्काम कर्म और उपासना के द्वारा सूक्ष्म एवं शुद्ध करना चाहिए। सूक्ष्म चित्त में ही उस परम तत्व का स्फुट स्फुरण होता है। फिर तो व्यवहार में भी उसका अनुसंधान किया जा सकता है। इस ग्रन्थ में ऐसे कुछ स्थानों का उल्लेख हुआ है, जहाँ उसका स्वभावतः स्फुरण होता है-

1. निद्रा और जागार्ति के मध्य की अवस्था।

2. जब चित्त एक वस्तु के आकार को छोड़कर दूसरी वस्तु मंे जाने लगे तो उससे पहले दोनों वस्तुओं के मध्य की स्थिति।

3. एक विचार को छोड़कर दूसरा विचार आरम्भ होने से पहले की स्थिति।

ये सब दो अवस्था, दो पदार्थ और दो वृत्तियो के बीच की संधियाँ है। इनमें किसी भी अवस्था, पदार्थ या वृत्ति की स्थिति न रहने के कारण चित्त निर्विषय रहता है। यह र्निविषय चित्त ही वास्तव में शुद्ध चिति है। यही परम पद है, यही सर्वेश्वर है, और यही सम्पूर्ण प्रपन्च का आधार है। समस्त पदार्थों के रूप में यही भास रहा है। परन्तु स्वरूपतः उसमें किसी भी पदार्थ की सत्ता नहीं है। इस प्रकार निर्विकल्प समाधि में स्थित होने पर ही परम तत्व का साक्षात्कार होता है। परन्तु साक्षात्कार हो जाने पर तत्ववेत्ता को सर्वदा उसी अवस्था में स्थित रहने की आवश्यकता नहीं है। उसका स्वरूप तो नित्यसिद्ध ही है, किसी अवस्था विशेष में उसे सीमित नहीं किया जा सकता। सारी अवस्थायें उसी में तो प्रति भासित होती हैं। अतः वह किसी भी स्थिति में रहे स्वरूपस्थ ही है। उसे अपने से भिन्न कुछ भी प्रतीत नहीं होता।

इस प्रकार हम देखते हैं कि साधनों में भेद होने पर भी उन दोनों मार्गो का अनुसरण करने वाले साधनों की अन्तिम स्थिति तो एक ही होती है। ये दोनों ही साधन श्रुति सम्मत हैं और दोनों के द्वारा एक ही शुद्ध चेतन का साक्षात्कार होता है। वास्तव में तो भारतीय मनीषियोें ने परम तत्व की उपलब्धि के लिये जितने साधनों की उद्भावना की है, उनके द्वारा अन्त में एक ही वस्तु की उपलब्धि होती है। जिस प्रकार नगर के सभी मार्ग घूमफिर कर एक ही राज प्रासाद पर पहुँच जाते हैं, उसी प्रकार परम पद की प्राप्ति के सभी साधनों का साध्य एक ही तत्व है। अपनी अपनी भावना और साधना के अनुसार उस एक की ही अनेक रूपों में उपलब्धि होती है। सब साधकों की योग्यता और रूचि एक सी नहीं होती। अतः अधिकार भेद के कारण साधन-भेद भी आवश्यक है। इस साधन भेद से ही सम्प्रदाय-भेद की सृष्टि हुई है। इसलिये विचार करने से निश्चय होता है कि समाज की यथायोग्य आध्यात्मिक प्रगति के लिये सम्प्रदाय भेद भी उपयोगी ही है। किन्तु सभी सम्प्रदायों का गन्तव्य स्थान तो एक ही है, अतः लक्ष्य की एकता होने के कारण उनमें संघर्ष का कोई भी कारण नहीं है। जो लोग साधन में ही साध्य बुद्धि कर लेते हैं उन्हीं में अविवेक वश साम्प्रदायिक संघर्ष की सृष्टि होती रहती है किन्तु विभिन्न अधिकारियों के लिये सम्प्रदाय भेद जितना आवश्यक है समाज के आध्यात्मिक विकास में साम्प्रदायिक संघर्ष उतना ही घातक भी है। अतः जो महानुभाव सब प्रकार के सम्प्रदाय भेदों में एक ही अभिन्न साध्य को देखते हैं वे ही वास्तव में सबके एकमात्र आराध्य परम पद का रहस्य जानने वाले हैं। जिनकी उस पर दृष्टि रहती है उनके लिए संसार में कहीं किसी प्रकार का विरोध नहीं रहता। उन्हें तो सर्वत्र उस एक का ही लीला विलास प्रतीत होता है। वे इस विश्व ब्रह्माण्ड में सर्वत्र उसी की झांकी कर अपने प्रियतम के प्रेम में छके रहते हैं। ऐेसे महापुरूष ही सच्चे परमार्थ दर्शी हैं। वे सभी के आदर्श होते हैं और सभी उनकी वन्दना करते हैं।

इस प्रकार संक्षेप में इस ग्रन्थ के विषय पर यत्किंचित प्रकाश डालने का प्रयत्न किया गया है। आशा है, जिज्ञासु जन इसके अनुशीलन द्वारा यथा योग्य लाभ उठाकर अपना जीवन सार्थक करंेंगे।

श्री कृष्णाश्रम, वृन्दावन विनीत

कार्तिक शुक्ल 6, स.ं2023 वि. सनातन देव

यह ग्रन्थ अब चौखम्बा संस्कृत संस्थान वाराणसी से प्रकाशित हो रहा है।


सखी भाव की साधना

नारद गोपी बने बने गोपी त्रिपुरारी।

अर्जुन नर तहँ बने अर्जुनी गोपी प्यारी।

रास रहस घनश्याम तंे अर्जुन ने पूछयो जबहिं।

रस सर मह मज्जन करयो, पुरूष वेश बदल्यो तबहिं।।

भागवत चरित पंचमाह

शास्त्रों में भगवत्प्रेम की पराकाष्ठा सखी भाव की प्राप्ति को ही बताया गया है। श्रुति भगवती का कथन है - ‘पतिं, पतीनां,’ ‘प्रिय पतिम्’।

परमात्मा स्वामियों का स्वामी है। (आत्मस्वरूप होने से) प्रियतम पति है। क्योंकि -

आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति। (वृहदारण्यक उपनिषद्)

आत्मा के लिये ही सभी प्रिय होते हैं। यही प्रेमाद्वैत है।

परमात्मा को तत्वतः जानकर उनकी अर्द्धागिंनी बनकर उनके ही ध्यान चिन्तन से तदाकारता प्राप्त करना ही जीवन्मुक्ति का सहज स्वरूप है। साथ ही सच्ची प्रियतमा का आदर्श भी है।

उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरूष जग नाहीं। (मानस अरण्य.)

एकात्मता होने पर ही पत्नी पति के दायित्व की सच्ची अधिकारिणी होती है। तभी वह पति की हृदयेश्वरी सर्वेश्वरी तक बन जाती है।

आप प्रारम्भ से ही विचार प्रधान मस्तिष्क के रहे हैं। सत्संग भी प्रायः अद्वैत वीथी के पथिकों का ही रहा है। और उपनिषद् दर्शन ही द्रष्टव्य तथा उसका प्रति पाद्य ब्रह्म ही प्रेष्ठ रहा है।

क्रम तो यह है कि सगुणोपासना से वृत्ति को शनैः शनैः व्यापक करते हुए ब्रह्माकार किया जाय और अभेद भाव से निर्गुण ब्रह्म का अद्वैत उपलब्ध हो। इस प्रकार पहले सेवक-सेव्य या उपासक-उपास्य का द्वैत अपनाकर प्रेमाद्वैत की स्थिति प्राप्त करना मनीषियों को मान्य है।

अब भगवान का लीला विधान देखिये। जो सर्वथा अकल्पित बात थी और जिसकी आपने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी, वही मन में उद्भूत होकर चित्त को बेचैन करने लगी।

यह सच है कि उस छलिया को कोई अपने पुरूषार्थ से पा नहीं सकता, किन्तु जिससे वह मिलना चाहे, वह बचकर जा नहीं सकता।

उसने अपने प्रेम की डोरी वीतराग परमहंस पर भी डाली और प्रेमिका बनने के लिये विवश कर दिया। कहा भी है -

जन्मान्तर सहश्रेषु तपो ध्यान समाधिभिः।

नराणां क्षीण पापानां, कृष्णे भक्तिः प्रजायते।।

पिछले हजारों जन्मों में किये हुये तप ध्यान और समाधियों द्वारा पापों के नष्ट होने पर मनुष्यों में श्री कृष्ण भक्ति उत्पन्न होती है।

साधना की स्फूर्ति

उचित समय पर योग्य अधिकारी में साध्योपासना की उत्कृष्ट परिणति परिलक्षित होती है। आप अब इस निष्ठा के योग्य हो गये थे। अतः सर्वथा शुद्ध अन्तःकरण में भक्ति महादेवी का प्रादुर्भाव हो गया।

यह स्थिति तो आपकी आयु के तीसवें वर्ष में ही प्राप्त हो गयी थी। प्रायः एकान्त में अकारण ही विकलता होने लगती और उससे हृदय शीतल होने पर शान्ति भी मिलने लगती थी। किन्तु यह बात एकान्त में ही होती थी।

आप में दम्भ- दोष बचपन से ही नहीं था। आप सत्य के पक्षपाती रहे हैं। और जो बात जैसे है उसे वैसे ही बताना ठीक मानते हैं। अपनी ओर से किसी प्रकार का तत्सम्बन्धी भाव प्रकट करना आपको पसन्द नहीं है। और यह भी आपकी निर्विकारता का ही प्रमाण है।

पता नहीं क्यों, आपको यह सब अटपटा लगता था, किन्तु यह तो होना था, इसलिये होता ही रहता था। गीता प्रेस में पन्द्रह वर्षों तक कार्य किये किन्तु अपना अन्तर्भाव किसी पर प्रकट नहीं होने दिये। बल्कि उसे दबाने या मिटाने का ही यत्न करते रहे क्योंकि यह सब आपकी रूचि और बुद्धि के प्रतिकूल था। विद्या व्यासंग और कर्मठ स्वभाव होने के कारण व्यर्थ बातों में आपकी रूचि प्रारम्भ से ही नहीं थी। अब साधन की परिपक्वावस्था में तो उसकी गुन्जाइश ही नहीं थी। अतः वह प्रच्छन्न प्रेम अब प्रगाढ होकर प्रकट होने लगा।

उसने आपके अन्तःकरण में हलचल मचा दिया तथा आपको श्याम सुन्दर की सखी बनने के लिये विवश करने लगा। आपने इस भाव की शान्ति के लिये जप पाठ भी खूब किया, रास पंचाध्यायी के सौ पाठ किये किन्तु परिणाम वही , ‘ढाक के तीन पात’ रहा।

यह प्रेम का रोग है ही ऐसा। चाहो तो बात नहीं पूछता और टालो तो गले आ पड़ता है। आप भी इसके चक्कर में आ गये। लाख कोशिश करें किन्तु मन माने ही नहीं। अब तो निकुन्ज की क्रीड़ा ही याद आने लगी। अकारण रोना भी आता था -

योग न वियोग, अकारण लगा सोग।

समय के साथ ही परिस्थिति से समझौता करना पड़ा। ऐसा लगने लगा कि सखी वेश से रहना चाहिये। इससे अपना लाभ होगा।

इसके लिये उपयुक्त एकान्त स्थान, श्रृंगार के साधन और सहायक की अपेक्षा थी। इसके लिये पैसे भी चाहिये। अकिंचन संन्यासी के पास पैसा कहाँ? मांगने की प्रवृत्ति नहीं, अतः कठिनाई थी।

साधना का प्रारम्भ

भिवानी के सेठ श्री गजानन्द जी आपके मित्र थे। उनसे सम्पर्क जब आप गृहस्थाश्रम में थे तभी श्री गुुलराज जी कानोड़िया के यहाँ सत्संग में मिलते रहने से हो गया था। समान विचार वालों से मिलने पर मैत्री स्वाभाविक रूप से हो जाती है। वह स्नेह सम्बन्ध बाद में भी यथावत रहा।

संन्यासोपरान्त आपके मन में जब इस साधना की प्रेरणा चल रही थी, तब आप उनके यहाँ दो बार गये थे किन्तु संकोचवश उनसे इस विषय में चर्चा नहीं कर सके।

तीसरी बार सन् 1961 ई. में इस उद्देश्य को लेकर आप भिवानी गये। श्री गजानन्द जी पूर्ववत् बड़े प्रेम से मिले, स्वागत सत्कार हुआ। तत्पश्चात् आपने अपने मन की बात उनके समक्ष रखी। आपकी बात सुनकर उनको कुछ अटपटा सा लगा क्योंकि वे भी विचार प्रधान मस्तिष्क के ही थे। किन्तु उन्होंने अपना वैचारिक मतभेद आप पर प्रकट नहीं किया और उपयुक्त समुचित साधन सामग्री तथा स्थान की व्यवस्था कर दिये। आप भी साधन की तैयारी में लग गये।

पहली बार वहीं आपने सखी वेश बनाया। उस समय आप एक शान्त एकान्त कमरे में भगवान श्री कृष्ण का चित्र पट रखकर भाव पूर्वक पूजा करते थे। एक मात्र श्री कृष्ण ही परम प्रेष्ठ थे उनके समक्ष अपना हृदय खोलकर उनमें विविध भाव भरकर प्रभु को आत्म निवेदन करते थे। भक्ति की सर्वोत्कृष्ट परिणति सखी भाव में होती है। इसमें जैसे पति पत्नी का अनावरण मिलन एकात्म्य भाव की प्रगाढ़ता को पुष्ट करता है उसी प्रकार परमात्मा के समक्ष अमानी बनकर अपने समस्त मन प्राणों का समर्पण कर उनसे सहज एकात्म्य प्राप्त करने का प्रयास साधक का सर्वाेत्कृष्ट कर्तव्य कहा जा सकता है। इस काल में कभी-कभी संयोग जन्य सुख तथा वियोग जन्य दैन्य की अनुभूति होती थी। तदानुसार कभी-कभी प्रेमालाप तथा वियोग जन्य विकलता भी होती थी। इस बीच आपने रास पंचाध्यायी के 108 पाठ भी किये थे। परन्तु उससे कोई विलक्षणता नहीं मालूम हुई।

चौदह दिन का अनुष्ठान था। वह सम्यक रूप से सम्पन्न हो गया। फिर आप वहाँ से अन्यत्र भ्रमण में चले गये।

ऋषभ देव पर कृपा

श्री ऋषभदेव जी के पितामह हरियाणा प्रान्त के मूल निवासी थे। वे व्यवसाय की दृष्टि से फिरोजपुर छावनी(पंजाब) आकर रहने लगे थे। उन्होंने स्वयं की दुकान कर ली थी। उससे धीरे-धीरे कारोबार बढ़ गया तथा सामाजिक प्रतिष्ठा भी मिली। ऋषभ देव जी का जन्म फिरोजपुर में ही हुआ और समय पर समुचित शिक्षा ग्रहण करके जीविकोपार्जन भी फिरोजपुर में ही करने लगे।

प्रारम्भ में इनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। किन्तु पूर्व संस्कारवश चरित्र की दृढ़ता इन्हें प्राप्त थी। सत्य तथा धर्म के प्रति इनका प्रबल आग्रह था।

जब आप (स्वामी जी) भ्रमण करते हुए मार्च माह में फिरोजपुर पहुँचे तथा वहाँ के लोगों ने आप का परिचय प्राप्त किया तो उन्हें रामबाग समिति के सदस्यों ने राम बाग में ही ठहराया और नियमित सत्संग तथा सेवा में आते रहे। आपके सम्बन्ध में सुनकर ऋषभ देव भी वहाँ गये तथा आपकी सादगी, रहनी, सहनी और स्पष्ट वादिता से बहुत प्रभावित हुये। युवावस्था थी तत्परता से सेवा में प्रवृत्त हो गये। आप भी इनके आचार व्यवहार और निष्कपट सेवा भाव तथा इमानदारी और धर्म निष्टा से प्रभावित हुए।

कुछ दिन ठहरकर आप भ्रमण के लिए अन्यत्र प्रस्थान किये। फिर घूमते हुए दिल्ली पहुँच गये। समाचार मिलने पर ऋषभ देव भी दिल्ली पहुँच गये। वहाँ कुछ दिन सत्संग लाभ करके वापस फिरोजपुर आ गये। इसी प्रकार अन्यत्र भी समाचार मिलने पर अपने अभाव की परवाह न करके ऋषभदेव जी आपकी सेवा में पहुँच जाते थे। आपकी लगन तथा निष्ठा सराहनीय थी। बार-बार आने जाने तथा मिलते रहने से सम्बन्ध प्रगाढ़ होता गया।

इनका निश्चय था कि धर्म विरूद्ध आचरण और असत्य व्यवहार कभी नहीं करूंगा भले मरना ही क्यों न पड़े। इस निश्चय के कारण इन्हें कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। कभी-कभी सब कुछ छोड़कर भजन करने की इच्छा होती थी। किन्तु भिक्षा वृत्ति में हीनता का ख्याल होने से मन त्याग से विरत हो जाता था। माताजी इनके पास रहती थीं। उनकी सेवा का दायित्व भी इन पर ही था तथा पूरे मन से आदर पूर्वक सेवा करते थे। संतों के प्रति आदर बुद्धि थी तथा उनसे समस्या समाधान भी कराते थे किन्तु लक्ष्य निश्चय नहीं हो सका था। अतः चित्त दुविधा में पड़ जाता था।

इस बीच इन्हांेने दो तीन बार अपने ढंग से अनाज की, मिठाई की, तथा अन्य वस्तुओं की दुकान चलाने का प्रयास किया किन्तु सफलता नहीं मिली। ‘ओछी पूंजी धनी को खाय’ वाली कहावत चरितार्थ होने लगी थी।

इस बीच ऋषभ देव जी का आत्म निरीक्षण तथा साधन ठीक चल रहा था। स्वामी जी का मार्गदर्शन आप में आस्था बनाये हुए था। समय-समय पर पत्र द्वारा स्वामी जी से मार्गदर्शन लेते रहते थे साथ ही अपनी साधन जनित शंकाओं और जिज्ञासाओं का भी समाधान कराते थे। एक पत्र के उत्तर में दि. 29.3.62 को स्वामी जी ने वृन्दावन से लिखा था-

‘‘तुमने अपने साधन की जो स्थिति लिखी है उससे तुम्हारा साधन संबंधी संस्कार तो अच्छा जान पडता है, किन्तु लगन और तत्परता उतनी नहीं है। आसन और शरीर की स्थिरता जितनी अधिक बढे़गी उतनी ही एकाग्रता और निःसंकल्पता में भी वृद्धि होगी। वर्तमान और अतीत जीवन के संस्कारों का स्फुरण भी अभ्यास बढ़ने पर स्वतः कम हो जायेगा। असंगता और साक्षी दृष्टि रहने से स्वतः ही संकल्पों में कमी हो जाती है। आसन की स्थिरता और अवधि बढ़ाने का प्रयत्न रहना चाहिये। परन्तु अपने को उस प्रयत्न से असंग और उनका साक्षी ही अनुभव करना चाहिये। यद्यपि ‘करना चाहिये’ यह भाषा भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा तो वह है ही।

अब प्रत्यगात्मा या जीव के विषय में तुम्हारा कोई प्रश्न नहीं हैं - यह भी अच्छा ही है। इससे आगे समझने की और कोई आवश्यकता नहीं है। जो समझ से परे है उसके विषय में कोई समझ रखना नासमझी ही है। उसके विषय में ना समझी तो जान न पड़े, किन्तु कोई समझ भी न हो - यही वास्तविक समझदारी है। यदि अन्तर प्रेरणा न हो तो स्वयं सन्देह उठाकर समझने का प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है। विचार की पुष्टि न तो तर्क से होती है और न तर्क छोड़ने से। इसके लिये तो प्रपन्च से असंगता और स्वयं अचिन्त्य रहना अधिक उपयोगी है। स्वरूप कि पूर्णता, अहंता की निवृत्ति होने पर होती है। और अहंता की निवृत्ति होती है साक्षी और साक्ष्य का भेद न रहने पर। यह अभेद किया नहीं जाता प्रत्युत भगवत्कृपा या आत्मकृपा से स्वयं होता है।

आपने माण्डूक्य कारिका का -

अन्यथा ग्रह्णतः स्वप्नो निद्रा तत्वमजानतः।

विपर्यासे तयोः क्षीणे तुरीयं पदमश्नुते।। (आगम. 15)

जो श्लोक लिखा है उसका आशय है कि परमार्थ तत्व को अन्य रूप से अर्थात् जगत रूप से ग्रहण करना ही स्वप्न है और ग्रहण न करना अर्थात् उसे न मानना ही निद्रा है। जिस प्रकार सुषुप्ति में तो ग्रहण का अभाव रहता है और स्वप्न में अन्यथा ग्रहण रहता है, इसी प्रकार आत्मा का न जानना अर्थात् अज्ञान ही निद्रा है और आत्मा में अज्ञान पूर्वक उसे अन्य प्रकार अर्थात् प्रपन्च रूप से जानना स्वप्न है। जब ये अग्रहण और अन्यथा ग्रहण अर्थात् आत्मा का अज्ञान और प्रपन्च का ज्ञान - ये दोनों नहीं रहते तो आत्मा की उपलब्धि हो जाती है। जैसे रस्सी का तभी ज्ञान होता है जब रस्सी का अज्ञान और उसके कारण होने वाला सर्प का ज्ञान ये दोनो न रहेें। आत्मा का कोई इत्थंभूत ज्ञान नहीं होता, केवल अनात्मा का मिथ्यात्व निश्चय ही उसका ज्ञान है। इसी से कहा है कि आत्म ज्ञान के लिये केवल वृत्ति व्याप्ति की अपेक्षा है, उसमें फल व्याप्ति नहीं होती।

अस्तु आपके पत्र से आपकी प्रगति सन्तोष जनक ही जान पड़ती है। लगे रहिये। जो लगा रहता है उस पर भगवत्कृपा होती ही है।

शुभैषी

सनातन देव

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श्री वृन्दावन

9-4-62

सप्रेम नारायण स्मरण। तुम्हारा 4 अप्रैल का पत्र मिला। साक्षी और साक्ष्य कोई परमार्थतः सिद्ध वस्तुयें नहीं हैं। विचार अनुभूति के आधार पर किया जाता है और व्यवहार में यह सबसे सूक्ष्म और उत्कृष्ट अनुभूति है। क्योंकि इसके द्वारा सारा प्रपन्च और प्रपन्च का अभाव दृश्य कोटि में आ जाता है और द्रष्टा प्रपन्च एवं प्रपन्चाभाव से भी अतीत निश्चित होता है। इस प्रकार अपना आप सभी से असंग निश्चित होता है। यह असंगता ही मुक्ति है। इसीलिये सांख्य और योग द्रष्टा दृश्य के विवेक द्वारा ही मुक्ति मानते है। जब साधक इतने में सन्तुष्ट नहीं होता तो उसे यह अनुभूति होती है कि दृश्य केवल प्रतीति मात्र है, परमार्थ सत्य केवल चिन्मात्र साक्षी ही है। वह साक्षी ही इस दृश्यमान जगत का अधिष्ठान पर ब्रह्म है। इस प्रकार साक्षी और परब्रह्म की एकता का ज्ञान होना ही तत्व ज्ञान है। इसके पश्चात् यह सम्पूर्ण प्रपन्च उस चिन्मात्र का ही लीला विलास जान पड़ता है। वह प्रपन्चातीत है और वही प्रपन्च भी जान पड़ता है। अतः वह सर्वात्मा ही सबका सब कुछ है। उस सर्वात्मा में प्रीति की प्रगाढ़ता का हो जाना ही जीव का परम पुरूषार्थ है।

आपका विचार ठीक दिशा में चल रहा है। जब अपना कोई स्वार्थ नहीं रहता और प्रभु प्राप्ति की सच्ची लालसा होती है तो वे स्वयं ही साधक को सब रहस्य समझा देते हैं।

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शेष भगवत्कृपा शुभैषी

सनातन देव


कसौली

24-7-1962

सप्रेम नारायण स्मरण। जहाँ प्रभु से सच्चा सम्बन्ध और उनके प्रति आन्तरिक प्रीति होती है वहाँ प्रतीक्षा तो होती है, परन्तु परीक्षा नहीं होती। इसी प्रकार निर्भरता तो होती है परन्तु अनियन्त्रितता नहीं होती। प्रभु दर्शन देंगें या नहीं इसके लिये कोई संकेत पाने की उत्सुकता नहीं होनी चाहिए, अपितु उनके दर्शनों के बिना हम कैसे जीवित हैं - ऐसी बेचैनी होनी चाहिये। इसी प्रकार यह मत सोचो कि जब सब समाप्त हो जायेगा तो उन्हें व्यवस्था करने के लिये स्वयं आना पड़ेगा। अब भी तो वे ही व्यवस्था कर रहे हैं। अब भी वही परिस्थिति है जो न्यायतः होनी चाहिये। अतः इसी का सदुपयोग करो। उपार्जन और व्यय में धर्मानुसार अपने-अपने कर्तव्य का पालन करो। अपने लिये कुछ नहीं और प्रभु के लिये सब कुछ समर्पित करने का भाव ही सच्ची निर्लोभता है। दूसरे की पूँजी को यथा सम्भव सुरक्षित रखना और समय पर लौटा देना भी अपना कर्तव्य है। यह सब तुम समझते ही हो। फिर भी इसलिये संकेत कर दिया है जिससे कि भाव विशेष में कर्तव्य दृष्टि मंद न पड़ जाय।

, यह तो अच्छी बात है कि अपने पर किसी का काबू जान पड़ता है और छोटी से छोटी बात भी किसी के द्वारा कराई जाती सी जान पड़ती है। परन्तु इसकी सफलता तभी है जब उनके प्रति अपनी अनन्य प्रीति और प्रतीति बढ़े। अतः भगवत् सम्बन्ध की प्रगाढ़ता के साथ भगवच्चिन्तन बढ़ाने का प्रयत्न रहना चाहिए। इससे स्वतः ही उनके प्रति प्रीति की जागर्ति होगी। आर्थिक और लौकिक परिस्थितियों की परवाह न करके उत्तरोतर भगवत्प्रेम बढ़ता रहे - इसी का प्रयत्न होना चाहिए। विघ्न बाधायें आती हैं तो आवें। प्रीतम का पथ तो कंटकाकीर्ण ही होता है। जो कांटों से डरता है उसे प्रियतम के प्रदेश में प्रवेश नहीं मिल सकता। वे किसे रखते हैं यह उन्हीं पर छोड़ दें। किसी से बड़ा बनने की बात मत सोचो। सर्व रूप में वे ही तो हैं। किसी को बुरा भी मत समझो। सब में उन्हीं की झांकी करो। अनेक रूपों में वे ही लीला कर रहे हैं। मेरे विचार से इन बातों से अवश्य कुछ सहायता मिलेगी। ऊँची नीची बातों का भेद मैं नहीं जानता। जब जो बात जिसके काम आ जाये तब वही बात उसके लिये बड़ी हो जाती है।

’ ’ ’ ’

शेष भगवत्कृपा। सभी प्रेमियों को सप्रेम नारायण स्मरण।


कसौली

7-8-62

सप्रेम नारायण स्मरण। ---- जब तुम जानते हो कि भगवान से भिन्न उनकी कृपा नहीं हैं और ज्ञान का स्वरूप यह समझते हो कि एक ब्रह्म ही है और कुछ नहीं है, तो यह कैसे कहते हो कि भगवान मुझे अलग मालूम होते हैं। भगवान को अपने से अलग न देखकर उन वासनाओं को अलग देखो जिनके कारण तुम्हें प्रलोभन या पतितता का भास होता है। जब उन्हें अपने से अलग देखोगे तो वो सत्ता शून्य हो जायेंगी। फिर उनका भास भले ही हो परन्तु सत्ता न रहने के कारण उनसे संग नहीं भासेगा। जैसे रज्जु में सर्प का भास तो होता है, परन्तु उससे रज्जु का संग नहीं होता।

तुम्हें दूसरे साधनों से आय हो गयी- यह तो प्रसन्नता की बात है। परन्तु इसमें मेरी क्या सिद्धि है? मैेनंे तो दुकान करते रहने का कहा था क्योंकि और कोई कार्य तुम्हारे योग्य ध्यान में नहीं आया और आमदनी तो प्ररब्धानुसार होती है। इसलिये इसी में योगक्षेम का निर्वाह हो जाना चाहिये। व्यक्तिगत रूप से मेरे में कोई शक्ति या चमत्कार है- ऐसा मुझे तो नहीं भासता। यदि तुम्हें भासता है तो उसे मैं तुम्हारी भावुकता के सिवा और क्या कहूँ।

तुमने ज्ञान के विषय में पूछा- सो ज्ञान होता तो ‘मैं ब्रह्म हूँ’ इसी रूप में है, क्योंकि जिज्ञासु आत्मा और परमात्मा के स्वरूप का ही विचार करता है और उसे दोनों के अभेद रूप में ही उनका निश्चय होता है। परन्तु यह वृत्ति ज्ञान है। अपने उदय काल के दूसरे क्षण में ही इसका बाध हो जाता है। फिर जो ज्ञान रहता है उसे शब्दों द्वारा तो यही कहेंगे कि ‘सब ब्रह्म है’ अथवा ‘केवल ब्रह्म ही है’। भगवान शंकराचार्य जी ने यही बात शतश्लोकी में इन शब्दों में कहीं है-

‘आदौ ब्रह्माहमस्मीति अनुभव उदिते खल्विदं ब्रह्म पश्चात्।’

अर्थात् पहले ‘मैं ब्रह्म हूँ’ ऐसा अनुभव उदित होने पर ‘निश्चय यह सब ब्रह्म ही है’ ऐसा बोध होता है।

श्री वृन्दावन

10-10-1962

सप्रेम नारायण स्मरण। तुम्हारा पत्र मिला। उसके बाद श्री बांके बिहारी जी के दर्शनों के लिए तो गया था, परन्तु उनसे तुम्हारा सन्देश कहने का स्मरण नहीं रहा। वह सन्देश क्या यहाँ मेरे द्वारा ही कहा जायेगा। वे तो वहाँ भी हैं और जहाँ से सन्देश की प्रेरणा उठ रही है वहाँ भी मौजूद हैं। वे सुन रहे हैं और यथा समय उत्तर भी देंगे। अभी वे जैसे रखंे वैसे रहो। उनके हाथ में अपने जीवन की बागडोर सौंपकर वे जो कुछ सहावें सहो। वे सब ठीक कर देंगे और अब भी ठीक ही कर रहे हैं। जीव सभी परतन्त्र होते हैं। परन्तु यदि यह परतन्त्रता मन की न रहकर प्रभु की हो जाय तो वह स्वतन्त्रता से भी बढ़कर है।

ऋषभ देव जी को सलाह तथा प्रबोध


श्री वृन्दावन

21-2-63

सप्रेम नारायण स्मरण। आजीविका के लिए कोई काम तो करना चाहिये। कर्तव्य का निश्चय मन लगने के आधार पर नहीं, मन की स्थिति के आधार पर होता है। यदि मन विरक्त जीवन या भिक्षावृत्ति को स्वीकार नहीं करता तो उसे आजीविका के लिए उद्योग करने ही चाहिए। यदि रूपये की असुविधा है तो कम रूपये से हो सकने वाला कोई काम कर लें जैसे माताजी ने तूड़ी(भूसा) आदि का काम करने को कहा था।

स्वप्न और जाग्रत के मिथ्यात्व के विषय में तुमने जैसा विचार लिखा है, वह भी ठीक है। परन्तु इससे मन की सत्ता तो सिद्ध हो ही जाती है। मन की सत्ता सिद्ध होने से जीव और जगत की सत्ता भी सिद्ध हो जायेगी। परन्तु वास्तव में तो जीव जगत और चित्त भी प्रतीति मात्र ही है। प्रतीति को ही दृश्य कहते हैं, अतः दृश्य का मिथ्यात्व प्रतीति मात्र होने के कारण ही है।

स्वप्न भी वास्तव में चित्त की कल्पना नहीं, चिति में ही कल्पित है। चित्त तो परिच्छिन्न अहंकार होने पर ही कहा जाता है और परिच्छिन्न अहंकार रहते हुए स्वप्न की भी रचना नहीं होती। यदि ऐसा होता तो मनमाना स्वप्न बनाया जा सकता था। वास्तव में तो स्वप्न बनाया नहीं जाता, स्वयं ही भासता है। उसमें जिस प्रकार पदार्थों की प्रतीति होती है, उसी प्रकार जीव, ईश्वर और चित्तों की भी प्रतीति होती है। उसमेें जो अल्पदेश या अल्पकाल की बात कही है वह जाग्रत में सत्यत्व की आस्था रखने वालों को उसका मिथ्यात्व समझाने के लिए केवल एक युक्ति है। वास्तव में स्वप्न भी चित्-समुद्र का ही लीला विलास है। समुद्र में जैसे तरंग फेन बुद्बुदादि होते हैं उसी प्रकार स्वप्न के जीव हैं। तत्वतः तो वे सब जल मात्र ही हैं, केवल व्यवहार दृष्टि से ही उसे समष्टि रूप से समुद्र कहते है और व्यष्टि रूप से तरंग, फेन बुदबुद आदि। समष्टि रूप समुद्र में जहाज चल सकते हैं, किन्तु तरंग आदि केवल तृण का भार वहन करने में समर्थ हैं। इसी प्रकार इस जगत का जो अधिष्ठान है वह तत्व रूप जल है। वही व्यवहार दृष्टि से समुद्र रूप ईश्वर कहा जाता है, जो सर्व शक्तिमान है तथा तरंगादि के समान जीव है जो अल्प शक्ति है। तत्वतः ये सब चिन्मात्र ही हैं। सारा भेद केवल प्रतीति मात्र है। देश काल और वस्तु भी प्रतीति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

इसी प्रकार जगत भी केवल प्रतीति मात्र है। स्वप्नावस्था से इसमें जो भेद जान पडता है वह भी केवल अवस्थाओं का भेद ही सूचित करता है। उससे एक का सत्यत्व और दूसरी का असत्यत्व सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि उनका असत्यत्व तो उनके अवस्थात्व से ही निश्चित हो जाता है। अवस्था आने जाने वाली होती है और एक अवस्था का दूसरी में अभाव होता है। इस प्रकार कोई भी अवस्था स्थाई नहीं कही जा सकती। ऐसी अवस्था में सत्य तो वही वस्तु हो सकती है जो सब अवस्थाओं मंे अनुगत हो और जिसमें उन सबकी प्रतीति हो। वह वस्तु चिन्मात्र ही है। उसका कभी अभाव नहीं होता और उसी में सब अवस्थाओं का भास होता है।

आशा है, इस विवेचन से तुम्हेें जाग्रत की स्वप्न तुल्यता स्पष्ट हो जायेगी।

भाई जी (श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार) के पास

इधर साधन सम्बन्धी संकल्प स्फुरित होने लगे। पहले तो आपका ऐसा विचार था कि अब यह भाव शान्त हो जायेगा। किन्तु भगवद् भाव भला शान्त होता है? वह तो आता ही है क्रान्ति के लिए। उस समय तो आप अनुष्ठान से निवृत्त होकर भ्रमण में चले गये थे। अब पुनः प्रेरणा होने लगी तो विचार में पड़ गये।

यह साधन आप के विचार प्रधान मस्तिष्क को स्वीकार नहीं था इसलिये मन में इसे छोड़ने की बात आती थी किन्तु भाव ही प्रबल होकर पुनः उसी अनुष्ठान के लिए प्रेरित करने लगा तब चित्त में अर्न्तद्वन्द्व होने लगा।

इस सम्बन्ध में आपने भाई जी श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार से मिलने का निश्चय किया। भाई जी का भाव राज्य में प्रवेश के साथ ही आप पर स्नेह भी था। अतः आप गोरखपुर जाकर श्री भाई जी से मिले। भाई जी ने यथोचित् सम्मान तथा स्नेह पूर्वक मिलकर कुशल क्षेम पूछीं और आने का उद्देश्य जानना चाहा तब आपने अपनी मनोदशा का वर्णन करके पूछा- आपके विचार से क्या ठीक है मुझे यह साधन करना चाहिये अथवा नहीं।

भाई जी ने कहा- करना चाहिये कि नहीं करना चाहिये, यह तो मैं नहीं जानता, हाँ करना चाहें तो व्यवस्था करवा सकता हूँ। उस समय आप श्री गीता वाटिका के सामने वाली कोठी में ठहरे हुए थे। भाई जी का उसी में व्यवस्था कराने का विचार था। आपने कहा - यहाँ तो व्यवस्था ठीक नहीं रहेगी। हो सकता है सेठ जी श्री जय दयाल गोयन्दका को यह साधन पसन्द न आवे।

आपने पुनः पूछा- आप इसे ठीक समझते हैं? तब भाई जी ने कहा- कल बताऊँगा।

दूसरे दिन श्री भाई जी ने कहा कि श्री बिहारी जी के यहाँ परचा डालकर किसी बालक से उठवाइये। उसमें जैसी आज्ञा मिले वैसा कीजियेगा।

आपने कहा- यहीं परचा डाल लें, यहाँ भी ठाकुर जी हैं।

भाई जी ने कहा- नहीं , श्री बिहारी जी के लिये ही प्रेरणा प्राप्त हुई है।

इस वार्तालाप के पश्चात् आप श्री वृन्दावन के लिये प्रस्थान किये। वहाँ दो परचे बनाकर गोली बनाई गयी तथा पुजारी की अध्यक्षता में मन्दिर में गोली डालकर एक बालक से उठवाई गयी। परचा खोलकर देखा गया तो उत्तर नकारात्मक ही मिला अर्थात् नहीं करने का संकेत था। तब आप निश्चिंत होकर अपने आवास पर आ गये।

भाई जी द्वारा सहायता

गर्मियों में सत्संग भवन ऋषिकेश में सत्संग तथा जलवायु परिवर्तन के लिए लोग जाते रहते हैं। आप तो प्रायः प्रतिवर्ष जाते थे। इस वर्ष भी गये थे। वहीं भाई जी से मुलाकात हुई। आपने साधन सामग्री के लिये आर्थिक कठिनाई बताई। उसे सुनकर और सारी स्थिति पर विचार करके भाई जी ने कहा- एक व्यक्ति ने मुझे दो हजार रूपये दिये हैं। उन्हें मैं चाहे जैसे खर्च कर सकता हूँ। अभी कितने रूपये चाहिए।

आपने कहा- श्रृृृृंगार के लिए वस्त्राभूषण तो चाहिये ही। भाई जी ने कहा- दो हजार रूपये मैं आपको देता हूँ। शरीर का कोई भरोसा नहीं है, अतः आप इसे अभी ले लीजिये। स्थान की व्यवस्था के लिये मैं गजानन्द को पत्र लिख देता हूँ। भाई जी को बहुत लोग जानते थे। उनमें से गजानन्द भी एक थे। भाई जी ने उन्हें पत्र लिखा तो उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया और लिखा कि अनुष्ठान सर्दियों में ही ठीक रहेगा।

आप वहाँ से भ्रमण हेतु पहाड़ांे पर चले गये तथा वहाँ से कई स्थानों पर होते हुए शीतकाल के आरम्भ में दिल्ली पहुँचे। उन्हीं दिनों आपके प्रिय भक्त श्री ऋषभदेव जी गोयल भी आपके पास आये। उन्होंने बताया कि गजानन्द जी आपके साधन के पक्ष में अनुकूल विचार नहीं रखते हैं। समय पर आप साधन के उद्देश्य से गजानन्द जी के पास दिल्ली गये और सीधा प्रश्न किये-सुना है, आप इस साधना से सहमत नहीं हैं। उन्होंने कहा- हाँ बात तो ऐसी ही है। मुझे तो यह अस्वाभाविक लगता है। इससे आपको कोई लाभ होगा, ऐसी आशा मुझे नहीं है। आप पर स्नेह है, इसलिये व्यवस्था कर देता हूँ। आप प्रसन्नता पूर्वक साधन कीजिए। आपने कहा- ऐसी स्थिति में मैं आपको साथ रखकर यह साधना नहीं करूंगा।

यह नियम है कि समान रूचि के व्यक्ति के सहयोग से साधन करने पर उत्तरोत्तर लाभ होता है तथा भिन्न रूचि वाले व्यक्ति के साथ रहने पर साधना में विक्षेप होता है। क्योंकि कभी-कभी तर्क वितर्क होने पर साधना के प्रति निश्चय की दृढ़ता शिथिल होने लगती है। इसीलिये आपने वहाँ रहकर साधन नहीं किया।

भाई जी द्वारा दिये गये रूपयों से कुछ वस्त्र बनवा लिये थे किन्तु अब साधना का सुयोग न देखकर वे वस्त्र तथा शेष रूपये भाई जी के पास वापस भेज दिये और कारण लिख दिये और स्वयं दूसरे स्थानों पर चले गये।

पहली बार की साधना से आप के चित्त की दशा बदल गयी थी। हृदय की कठोरता ढीली हो गयी थी। अब चित्त एकान्त में द्रवित होने लगा था और उससे शांति भी मिलती थी।

यह परिवर्तन भी साधन में रूचि उत्पन्न करने लगा। हृदय का सहयोग मिलने पर इस साधन के लिए प्रवृत्ति होने लगी किन्तु उपयोगी स्थान के अभाव में साधना नहीं हो पाती थी। इस बीच लगभग दो वर्ष का अन्तराल भी हो गया था। यह भी अब चित्त में खटकने लगा था।

ऋषभ देव की सहायता

ऋषभ देव जी का सत्याचरण आपको प्रसन्न करता था किन्तु उनकी आर्थिक तंगी तथा सहकर्मियों से वैचारिक मेल नहीं होने पर आप कुछ चिन्तित होते थे। आपने श्री भाई जी से कहकर उन्हें गीता प्रेस में नौकरी दिलवा दी। ये वहाँ गये और अपनी कर्तव्य निष्ठा तथा सत्याचरण से लोगों के प्रिय हो गये। इसी बीच इनका सम्पर्क श्री भाई जी तथा सेठ श्री जयदयाल जी गोयन्दका से भी हो गया। इनके कार्य और व्यवहार से वे लोग भी सन्तुष्ट थे। इनका स्वभाव कुछ तेज था इसलिए किसी की थोड़ी सी गलती पर उसे सुधारने की दृष्टि से टोक देते थे। कई लोग तो उसे सुधार लेते थे कुछ लोगों को इनका टोकना अखर जाता था।

कुछ दिनों तक वहाँ रहे और भाई जी के स्नेह भाजन भी हुए। एक दिन भाई जी ने इनके सिर पर हाथ रखकर इन्हें आर्शीवाद भी दिया। इनका मन वहाँ से उपरत हो गया और आपको बताकर वहाँ से हट गये। एक बार आपके पास वृन्दावन में थे तब आप इन्हें लेकर स्वामी श्री शरणानन्द जी के पास गये। स्वामी जी प्रज्ञाचक्षु तथा प्रत्युत्पन्न मति के महात्मा थे। प्रश्नों के सहज भाव से समाधान करके उत्तर तुरंत देते थे। सदा प्रसन्न रहते थे। उस दिन आपके द्वारा इनकी सादगी, निष्ठा और दृढ़ता की बात सुनकर स्वामी जी ने कहा- ऋषभ, तुम धर्मनिष्ठ, सदाचारी व्यक्ति हो, मेरे साथ रहो। एक बात है, मुझे लोग फर्स्ट क्लास में बैठाते हैं तुम्हें सैकण्ड क्लास का टिकट मिलेगा। तब इन्होंने कहा- जिस भगवान का बल आपको है, उसी के बल पर मैं भी कहता हूँ कि मैं भी एक दिन हवाई जहाज में चलूँगा।

तब स्वामी जी ने आपको सम्बोधित करके कहा- आपका यह शिष्य तो नेता बनेगा।

कालान्तर में जब आर्थिक दशा सुधर गयी तथा आपकी चारित्रिक दृढ़ता का लोगों को परिचय मिलने लगा तब इनको सर्व सम्मति से नगर पालिका कांग्रेस कमेटी का चेयरमैन बनाया गया और स्वामी जी की वह नेतागीरी वाली भविष्यवाणी भी सार्थक सिद्ध हुई।

सत्संग भवन जोधपुर में

सम्भवतः सन् 1963 ई. की बात है। आप वृन्दावन में थे। शिवरात्रि का पर्व निकट था। उसी महत्पर्व पर शिव स्वरूप श्री उड़िया बाबा की मूर्ति प्रतिष्ठा का विशाल आयोजन था। उसमें बहुत से गृहस्थ विरक्त साधु संन्यासी सम्मिलित हो रहे थे। सत्संग भवन जोधपुर से स्वामी श्री आत्मानन्द तथा मीरा बाई आये थे। आपका उनसे पहले से ही परिचय था।

बाबा की मूर्ति प्रतिष्ठा हुई। उत्सव खूब धूमधाम से सानन्द सम्पन्न हुआ। उत्सव के उल्लास तथा कार्याधिक्य की व्यस्तता से निवृत्त होकर लोग परस्पर मिले तथा कुशल क्षेम से अवगत हुये। आपकी बातचीत स्वामी श्री आत्मानन्द जी से हुई। प्रसंग वश आपने साधनोपयोगी उपयुक्त एकान्त स्थान के सम्बन्ध में जिज्ञासा की तब उन्होंने कहा- जोधपुर में आपको अनुकूलता हो सकती है। जोधपुर का सत्संग भवन इनके तथा मीरा बाई के प्रयास से निर्मित हुआ था। जिसमें अद्यावधि साधु सेवा हो रही है। उत्सव समाप्त होने पर आप भी उनके साथ ही जोधपुर चले गये।

सत्संग भवन में दर्शनार्थियों के आवागमन से विक्षेप होगा, ऐसा सोचकर स्वामी जी ने आपके लिये दूसरी जगह सत्तर रूपये मासिक किराये पर एक मकान ले लिया। आप भी अनुष्ठान से एक दिन पूर्व दोपहर बाद अपनी साधन सामग्री लेकर उस मकान पर गये। उस मकान की छत से मिली हुई चार पाँच दूसरे मकानों की भी छतें थी, उन सभी छतों पर प्रत्येक मकान वाला आ जा सकता था।

पहले ही दिन जब आप साधन सामग्री लेकर गये थे और स्थान की सफाई इत्यादि कर रहे थे तभी पड़ोस का एक व्यक्ति आपकी छत पर आ गया। परिस्थिति देखकर आपने अनुभव किया कि यह तो बहुत बड़ा विक्षेप है। अतः वहाँ से सत्संग भवन वापस आ गये और स्वामी जी को अपनी आशंका बता दी।

सत्संग भवन के अन्दर श्री सीताराम जी का एक भव्य मन्दिर है। उसके पीछे एक तहखाना है। देखने पर वह जगह आपको पसन्द आई। आपने अपना विचार स्वामी जी को बता दिया।

उन दिनों श्री मीरा बाई नागपुर गयी हुई थीं किन्तु पहले ही उन्होंने आपको वहाँ रहने के लिये कह दिया था। आपका विचार जानकर स्वामी जी ने रात्रि में ही उस कमरे में बिजली लगवाया तथा ऊपर वाले भाग में एक तरफ अस्थाई पाखाना बनवा दिया। शेेष सुविधायें पहले से ही थी।

वह जगह आपके लिये हर प्रकार से अनुकूल सिद्ध हुई। विक्षेप शून्य शान्त एकान्त स्थान आपकी इस साधना का स्थाई स्थल हो गया। आप वहाँ साधन काल में प्रातः नित्य क्रिया से निवृत्त होकर अपना भव्य नख शिख श्रृंगार करते थे। भगवान श्री कृष्ण का चित्रपट साथ था। उस काल में आप सम्पूर्ण समर्पण भाव से एक सुन्दर गोपी वेश में सजकर अपने प्रियतम श्री कृष्ण के प्रति अपने अन्तःकरण का भाव व्यक्त करते थे। यह कार्यक्रम सांयकाल सात बजे तक चलता था, तत्पश्चात् भगवान को भोग लगाकर प्रसाद लेकर वस्त्रादि बदलकर पुनः अपना गैरिक वस्त्र पहनकर आगन्तुक सत्संगियों से मिलते थे। एक डेढ़ घंटे की मुलाकात के समय जिज्ञासुओं का समाधान भी होता था। रात्रि में दूध लेकर 9 बजे सबको विदाकर के उसी तहखाने में शयन करते थे।

इस प्रकार साधना चलती रही और आपके अन्तःकरण में द्रवता का संचार होने लगा। भक्तिभाव का उत्कर्ष आपको आनन्दित करने लगा और आपके मन प्राणों में श्री कृष्ण की नाम रूप लीला माधुरी की मादकता छाने लगी। मन भक्ति भाव से पूर्ण हो गया।

अनुष्ठान के पश्चात् आपने कृतकृत्यता का अनुभव किया और यही सोचने लगे कि अब इस अनुष्ठान को पुनः नहीं करना पड़ेगा। क्योंकि विचार प्रधान मस्तिष्क में भावना की लहर स्थाई नहीं होती है। अतः आपने कुछ श्रृंगार सामग्री इधर-उधर दे दी और मीरा बाई को कह दिया कि इसे बेच देना। बाई ने भी कुछ सामग्री बेच दी थी।

गढ़खल में अनुष्ठान

हिमाचल प्रदेश के सोलन जनपद में कसौली एक कस्बा है। उसके पास गढ़खल में आपके प्रेमी श्री विजय भान कौशिक हैं वे आयुर्वेदिक सेनाटोरियम में डॉक्टर हैं। वे अपने यहाँ आप को प्रायः ले जाया करते थे। आपने अनुकूलता देखकर वहाँ भी (जोधपुर के अतिरिक्त) साधना प्रारम्भ किया। भगवान का चित्रपट साथ था। उस समय आप श्रृंगार नहीं करते थे। मन में साधन के प्रति निष्ठा भी नहीं हुई थी इसलिये भगवान से यह पूछते थे कि साधन करूं या छोड़ दूँ। किन्तु करने के लिये ही आदेश मिलने पर करने लगते थे। यह अतिरिक्त साधन भी कुछ वर्षों तक चला था। इससे आपको लाभ तो होता था किन्तु विचारों का मेल नहीं होने से कभी-कभी विवशता वश करना पड़ता था। क्या कहा जाय, प्रभु का विधान ही ऐसा है।

दीपावली पर पुनः जोधपुर

दीपावली सन्निकट थी और मन में अनुष्ठान की प्रेरणा होने लगी। वहाँ की श्रृंगार सामग्री बहुत कुछ इधर-उधर हो गयी थी, साधन कैसे हो, असमंजस की स्थिति सामने आई। दुबारा भाई जी से कहना नहीं चाहते थे किन्तु उन्हें किसी सूत्र से जानकारी मिल गयी और उन्होंने पुनः पांच हजार रूपयों की व्यवस्था करा दी जिससे साधनोपयोगी वस्त्राभूषण और अन्य सामान बनवा लिये गये तथा आप पुनः जोधपुर में रहकर साधना करने लगे। अब की बार आपने 100 दिन का अनुष्ठान किया जिससे हृदय की कठिनता बहुत कम हो गयी, भावुकता बढ़ने लगी और सात्विक भावों का संचार होने लगा। आपको अब यह प्रतीत होेने लगा कि यह साधन मेरे लिए ठीक है और इसे मुझे करना चाहिये। यह बात मन में आते ही जी हल्का हो गया। मन की द्विविधा समाप्त हो गयी और आप प्रसन्न रहने लगे।

अनुष्ठान के पश्चात् अब की बार आपने सामान सारा ठीक ढंग से रखवा दिया ताकि अगली बार इसका समय पर उपयोग किया जा सके और प्रायः प्रतिवर्ष सर्दियों के 100 दिन का यह अनुष्ठान चलने लगा।

ऋषभ देव पर पुनः कृपा

ऋषभ देव जी अपने आग्रही स्वभाव के कारण व्यवहारिक जीवन में व्यवस्थित नहीं हो पा रहे थे। घर खर्च चलना भी मुश्किल हो रहा था। इनके भाई की एक दुकान थी किन्तु वैचारिक मेल न होने से इन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि तुम्हारी दुकान लेकर कार्य नहीं करूँगा। उन दिनों दूसरी दुकान मिलती नहीं थीं। इनकी स्वयं की दुकान किराये पर थी। किरायेदार दुकान करता था, इसलिए समय से पहले उससे खाली नहीं करा सकते थे। ऐसी स्थिति में सर्वथा बेकार हो जाने पर भोजन के लाले पड़ गये।

उन दिनों आप सत्संग भवन जोधपुर में साधनारत थे। इन्होंने घबराकर परिस्थिति बताते हुए लिखा कि मैं अब इस जीवन से ऊब गया हूँ और अब मर जाना ही अच्छा समझता हूँ।

पत्र पढ़कर आपका हृदय करूणा से भर गया। ऐसे एकनिष्ठ सदाचारी भक्त की उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। अतः आप अनुष्ठान बीच में छोड़कर फिरोजपुर चले गये और परिस्थिति से अवगत होकर इनको प्रेम पूर्वक समझाते हुए कहा - तुम्हारे प्रतिज्ञा भंग से जो पाप होगा उसे मैं अपने सिर लेता हूँ। तुम मेरी बात मानकर और झिझक छोड़कर अपने भाई की दुकान में ही काम करो।

आपकी आज्ञा मानकर इन्होंने काम करना स्वीकार कर लिया। और देशी घी की जलेबी बनाने का काम शुरू किया। उसमें सफलता मिली, दुकान चल गयी और स्थिति ठीक होने लगी। कुछ काल में ही आपकी दुकान प्रसिद्ध हो गयी। धीरे-धीरे दुकान का विस्तार हुआ और दूध तथा मिठाई की भगत जी की दुकान फिरोजपुर छावनी में विश्वसनीय प्रतिष्ठान हो गयी।

ऋषभ देव जी इस परिवर्तन से आनन्द में भर गये और अपनी सारी जिम्मेदारी आप पर ही डालकर निश्चिंत होकर साधन भजन करने लगे। वे आपको अपना पिता मानते थे। उनकी माताजी नेत्रहीन हैं। किन्तु प्रतिभा प्रखर हैं। आदर्श नारी है और भक्तिभाव से पूर्ण हैं।

इनके आचार व्यवहार के कारण ही लोग इन्हें भगत जी कहते हैं। रामबाग ट्रस्ट के ये ही व्यवस्थापक हैं। नियुक्ति के समय इन्होंने कह दिया था कि मुझमंे जब भी कोई कमी दिखाई दे उस समय आप लोग निःसंकोच बतावें तथा उसी समय मुझे यहाँ से हटा देें।

अब तो दुकान की आय काफी बढ़ गयी है। साधु सेवा में भी काफी व्यय होता है। सरकारी टैक्स और श्रमिकों की मजदूरी में किसी प्रकार की कोताही नहीं बरती जाती है। इसलिए इस दुकान के प्रति सबका सहज आकर्षण रहता है।

भगत जी स्वयं कहते है कि मैं चालीस वर्ष तक जीवित रह सकूँगा, इसकी मुझे संभावना नहीं थी, क्योंकि गरीबी के कारण भोजन ही बड़ी कठिनाई से मिल पाता था। इसीलिए इन्होंने अपनी शादी नहीं की। किन्तु भगवत्कृपा से आज वहाँ के समृद्ध परिवारों में उनकी गिनती है। सच है महापुरूषों का आशीर्वाद अमोघ होता है।

पुनः व्यवधान और अनुष्ठान

सम्भवतः सन् 1975 में प्रति वर्ष की साधना सहज भाव से चलते रहने पर आप के मन में यह विचार आया कि अब यह कार्यक्रम पूरा हो गया। मानसिक तौर पर आपने यह मान लिया कि अब इस अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं पडे़गी। उस समय एक गरीब ब्राह्मण जो आपके पास कभी-कभी दर्शनार्थ आते रहते थे उनके यहाँ लड़की की शादी थी। आर्थिक समस्या थी ही, उन्होंने अपनी बात आपको बताई तो आपने अपने गहने व कपड़े उस ब्राह्मण को यह कहकर दे दिये कि इससे उसकी शादी करो और तो मेरे पास कुछ है नहीं। ब्राह्मण कृतज्ञ भाव से आपको प्रणाम करके और सामान लेकर चले गये।

आप भी वहाँ से वृन्दावन होते हुए फिरोजपुर, कसौली, सोलन आदि स्थानों पर भ्रमण में चले गये।

दीपावली निकट आने लगी तो पुनः अनुष्ठान के लिए स्फुरणा होने लगी। आप इस विचार को रोकने का जितना प्रयत्न करें उतना ही उभर कर वह आपको प्रेरित करने लगा। सामान इन्होंने दे ही दिया था। उसके अभाव में साधना कैसे हो, यह विचार का विषय हो गया।

उन्हीं दिनों एक ऐसी घटना घटी कि आपकी यह समस्या हल हो गयी। ऋषभ देव जी के एक बुआ थीं उनका नाम था- ‘चलती देवी’। उनके कोई लड़का नहीं था। उनके नाम से बैंक में दस हजार रूपये जमा थे। उसके ब्याज से उनका खर्चा चलता था। उन्होंने यह लिख दिया था कि मेरे मरने के बाद इन रूपयों को काम में लेने का अधिकार ऋषभ देव को होगा। ये ही उसे इच्छानुसार खर्च कर सकेंगे।

ऋषभ देव जी ही बुआ की देखरेख करते थे। अचानक उनकी मृत्यु हो गयी। उस समय उनकी अन्त्येष्टि भी इन्होंने ही किया।

आपके अनुष्ठान के व्यवधान की जानकारी जब ऋषभ देव जी को हुई तो उन्होंने वे दस हजार रूपये आपके पास भेज दिये। उनकी यह उदारता देखकर आपको भी प्रसन्नता हुई और हृदय से आशीर्वाद दिये। उन रूपयों से पुनः गहने तथा कपड़े खरीदे गये और अन्य जो भी सामग्री नष्ट हो गयी थी वह सारी व्यवस्थित करके साधना प्रारम्भ की गयी तथा वह अनुष्ठान फिर प्रति वर्ष अन्तिम दिनों तक चलता रहा। भगवान ने जब प्रेरणा दी तो साधन भी जुटाये और उसका यथोचित लाभ भी आपको हुआ तथा ईश्वरीय विधान में आने वाले व्यवधान का समाधान भी ईश्वर द्वारा ही होता है यह सिद्धान्त भी प्रकट हो गया।

सनत्सुजातीय शांकर भाष्य

महाभारत के उद्योग पर्व में विदुर प्रजागर पर्व के पश्चात् सनत्सुजात पर्व है। एक दिन रात्रि में महाराज धृतराष्ट्र को निद्रा नहीं आ रही थी तब उन्होेंने महात्मा विदुर को बुलवाकर उनसे अपनी समस्या कही! तब उन्होंने उन्हें लौकिक तथा पारमार्थिक कई तरह के व्यवहार योग्य उपदेश दिये जिसे सुनकर उन्हें शान्ति मिली! तब उन्होंने उससे आगे की ज्ञान चर्चा के सम्बन्ध में जिज्ञासा की। महात्मा विदुर ने कहा कि मैं उस विद्या को जानता हूँ किन्तु उसका उपदेश करने का अधिकार मुझे नहीं है। इसके लिए मैं महात्मा सनत्सुजात का स्मरण करता हूँ। उनके आवाहन पर श्री सनत्सुजात जी ने आकर महात्मा विदुर की प्रशंसा करते हुए धृतराष्ट्र को परमार्थ तत्व का उपदेश किया जो श्रुतिसार सर्वस्व ही है। उस पर भगवान शंकराचार्य का बड़ा ही विशद, सुस्पष्ट, सुन्दर भाष्य है। उससे ग्रन्थ विशेष रूप से बोधगम्य हो गया है।

धृतराष्ट्र ने पूछा -

सनत्सुजात यदिदं श्रृणोमि मृत्युर्हि नास्तीति तवोपदेशम्।

देवासुरा आचरन् ब्रह्मचर्य ममृत्यवे तत्कतरन्नु सत्यम्।।(1/2)

हे सनत्सुजात! मैं जो आपका ऐसा उपदेश सुनता हूँ कि मृत्यु है ही नहीं, तथा (ऐसा भी सुनता हूँ कि ) अमरत्व की प्राप्ति के लिए देवता और असुरों ने ब्रह्मचर्य का आचरण किया था - सो इनमें कौन सी बात सत्य है? ।।

श्री सनत्सुजात जी बोले-

उभे सत्ये क्षत्रियाद्यप्रवृत्ते मोहो मृत्युः सम्मतो यः कवीनाम।

प्रमादं वै मुत्युमहं ब्रवीमि सदाप्रमादममृतत्वं ब्रवीमि।। (1/4)

हे क्षत्रिय! जगत के आरम्भ से ही प्रवृत्त हुए ये दोनों विचार सत्य हैं, तथापि जो विद्वानों को अभिमत है, वह मृत्यु तो मेाह है। (किन्तु) मैं तो प्रमाद को ही मृत्यु कहता और सर्वदा अप्रमाद को ही अमृतत्व बतलाता हूँ।

प्रमादाद्वा असुराः पराभवन्न प्रमादाद् ब्रह्म भूताः सुराश्च।

न वै मृत्युर्व्याघ्र इवात्ति जन्तून् नाप्यस्य रूपमुपलभ्यते हि।। (1/5)

(क्योंकि) प्रमाद से ही असुर गण पराभव को प्राप्त हुए थे और अप्रमाद के कारण ही देवताओं ने ब्रह्मत्व प्राप्त किया था। (इसके सिवा) मृत्यु भी सिंह के समान जीवों का भक्षण नहीं करती और न इसका कोई रूप ही उपलब्ध होता है।

इस प्रकार के दिव्य प्रेरक श्रुति सम्मत पारमार्थिक उपदेश चार अध्यायों में देकर धृतराष्ट्र से पूजित होकर श्री सनत्सुजात जी अन्तर्धान हो गये। वही यह दिव्य ग्रन्थ भाष्य सहित आप द्वारा अनूदित होकर सर्वप्रथम महाभारत मासिक के चौथे वर्ष के बाहरवें अंक के रूप में गीता प्रेस से दिसम्बर 1959 में प्रकाशित हुआ था। बाद में पुस्तकाकार भी प्रकाशित हुआ। अब सम्भवतः अप्राप्य है।

काव्य धारा

कविवर श्री सुमित्रानन्दन पंत के शब्दों में -

वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान।

निकल कर आँखों से चुपचाप वही होगी कविता अनजान।।

अन्तर की प्रेम भरी मधुर पुकार का नाम कविता है। अन्तःकरण के भाव जब अन्दर नहीं समा पाते हैं तो कविता के रूप में फूट पड़ते हैं। किन्तु यह बात खास करके उन महानुभावों में ही पाई जाती है जो शुद्धान्तःकरण और प्रेम पूर्ण हृदय के होते हैं। यह प्रेम जितना ही शुद्ध, सरल और निश्छल होगा, कविता उतनी ही भाव तथा सौष्ठव पूर्ण होगी।

यही कारण है कि भक्तों की रचनाओं में माधुर्य अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त कर लेता है और दरबारियों तथा विद्वानों की कविताओं में कलाबाजियाँ (छन्द अलंकार का बाहुल्य) ही अधिक प्रकट होता है।

यह काव्य धारा कभी-कभी गद्य पद्य दोनों में ही प्रवाहित होने लगती है। और दोनों में ही अन्तःकरण के भाव मूर्त होकर उभरते हैं। साहित्यकारों के यश का एक कारण यह भी है कि उन्होंने समाज और साहित्य की सेवा रूप स्वकर्म से सबमें ओत-प्रोत परमेश्वर की पूजा की। उनका वह अनन्य भाव ही उनकी गति-मति का संचालक है।

हमारे चरित्र नायक का जीवन भी आरम्भ से ही संयम की कसौटी पर कसकर खरा उतर चुका था, आगे चलकर उसमें किसी प्रकार की मिलावट नहीं हुई जिससे आपकी गद्य-पद्य मई काव्य धारा अनवरत अक्षुण प्रवाहित होती रही।

एक बात और है। कविता दो प्रकार की होती है। एक तो इच्छा या प्रयत्न साध्य और दूसरी सहज। पहले आप काव्य रचना इच्छा और प्रयत्न पूर्वक करते थे जो उनके द्वारा अनुवादित ग्रन्थों में मंगलाचरण के पदों के रूप में लिखी गयी है, कुछ हिन्दी कविताएं तथा श्लोक जो बहुत सुन्दर बन पड़े हैं उनकी काव्य कला तथा गुरू भक्ति के प्रतीक भी हैं। बाद में आप उससे भी उपराम हो गये। किन्तु जब प्रेमाधिक्य ने सखीवेश पाकर जोर मारा तो वह सहज हो गयी।

यह एक अप्रत्याशित घटना थी जिसने आपको ही नहीं, आने वाले समय में साहित्य महारथियों को भी चकित कर दिया। यह एक ही पंक्ति- ‘‘मेरो मन हुमकि हुमकि रहि जाय’’ ने आदि कवि की करूण पुकार बनकर माधुर्य लहरी से मन्दाकिनी बनकर माधुर्य सुधा सिन्धु का स्वरूप ग्रहण किया। इसमें विनय, विरह, स्वरूप, प्रीति, विवेक और लीला आदि भावों की लोल लहरियाँ उन्मुक्त भाव से खेल रही हैं।

माधुर्य माला का प्रादुर्भाव

माधुर्य लहरी की प्रस्तावना में आप लिखते हैं -

इधर कुछ वर्षों से यह कभी-कभी -

‘मेरो मन हुमकि हुमकि रहि जाय।’

इस पंक्ति को गुन गुनाया करता था। पता नहीं कब से इसे गुनगुनाना आरम्भ हुआ। गत वर्ष ता. 11 जुलाई सन् 1972 ई. को मन में एक संकल्प हुआ कि इसके आधार पर एक पद लिख दूँ। इस संकल्प की पूर्ति जिस पद द्वारा हुई वह इस प्रकार है-

मेरो मन हुमकि हुमकि रहि जाय।

कासों कहों व्यथा या हिय की, को मोको पतियाय।।

तरसत नैन चैन नहिं नैकहुँ, नीरहु गयो सुखाय।

कुल बुलात कर पद परसन कांे धीरज रह्यो सिराय।।1।।

हियं में उठत हूक सी हरदम, जिय की जरनि जराय।

चहुँ दिसि सूनो सूनो लागत, तुम बिनु कछु न सुहाय।।2।।

छिन छिन छीन होत तनु तरनी, अन्त रहयो नियराय।

साधन की कछु सार न जानौं, अब को करै सहाय।।3।।

अपनो बल तुमही मन मोहन, तुम कित रहे दुराय।

राखौ लाज विरद अपने की बिगडी लेहु बनाय।।4।।

उस दिन से न जाने प्रभु की क्या इच्छा हुई, नित्य प्रति एक पद ग्रथित होने लगा। स्वयं ही प्रथम पंक्ति स्फुरित होती, उसकी पूर्ति का संकल्प होता और पद तैयार हो जाता। इस प्रकार प्रायः पन्द्रह दिन तक तो एक एक पद लिखा गया और फिर काव्य भारती और भी मुखरित हो उठी। एक-एक दिन में पांच पांच छः छः पद भी बनने लगे। मुझे क्या लिखना है किस विषय में लिखना है और कब लिखना है, यह मैं कभी सोचता नहीं था। जब जैसी प्रेरणा होती, लिखने लगता और पद तैयार हो जाता। इस प्रकार अब तक सात सौ से ऊपर लिखे जा चुके हैं। यह क्रम कब तक चलेगा वे ही जाने। सबके केन्द्र बिन्दु श्री राधा-माधव जुगल सरकार ही हैं। उनकी लीला, उनका विरह, उनकी रूप माधुरी, उनकी महिमा और उनकी प्रीति ही, इन पदों में गायी गयी है। इस प्रकार वे इस नगण्य से अपनी चर्चा करा रहे हैं। क्यों करा रहे हैं वे ही जानें। उन्होंने जो लिखाया है एक निरीह लेखक की भाँति लिख दिया है। इन भावों का शतांश भी इस जीवन में चरितार्थ होता तो चित्त को बहुत सन्तोष मिलता। परन्तु जब वे लिखवाते हैं तो लिखूँ भी क्यों नहीं। कम से कम उनका चिन्तन ही हो जाता है तथा मन को कुछ राह और राहत भी मिलती ही है।

यह तो हुई कविता लिखने की बात। किन्तु शंका तो इनके प्रकाशन के विषय में भी थी। यदि प्रतिष्ठा के भय से किसी भी सत्प्रवृत्ति का प्रकाशन बाधक हो तब तो किसी के भी द्वारा कोई सत्कर्म होना सम्भव ही नहीं है, क्योंकि कोई भी सत्कर्म होने पर कुछ न कुछ प्रतिष्ठा मिलती ही है। अतः हानि प्रतिष्ठा मिलने में नहीं, उसे स्वीकार करने में है। मान और अपमान तो जीवन में मिलते ही हैं। साधक का पुरूषार्थ तो उनमें समान रहने में ही है। वास्तव में जहाँ भी जो कुछ हो रहा है वह सर्व समर्थ प्रभु का ही लीला विलास है। मनुष्य उसे अपनी कृति मानकर व्यर्थ मान और अपमान से प्रभावित होता है। इन पदों द्वारा भी प्रियतम ने अपने प्रेमियों को प्रणय सन्देश दिया है। यह तो केवल एक माइक (ध्वनि-विस्तारक यन्त्र) के समान है। यह इसका श्रेय कैसे स्वीकार कर सकता है। अतः उनकी वस्तु जिनके लिये है उनके सामने पहुँचा देना मात्र इसका कार्य है। इसके द्वारा जो कुछ व्यक्त हुआ है उसकी योग्यता तो मैं स्वयं स्वीकार नहीं करता फिर उसका श्रेय भाजन अपने को कैसे मानू। मेरा यह भाव भी एक पद द्वारा व्यक्त हुआ था। वह मैं आगे उद्धृत करता हूँ। उससे मेरा भाव और भी स्पष्ट हो जायेगा।

हो कर तेरा माइक प्यारे तेरी बात सुनाता हूँ।

जो कुछ तू कहलाता है, वह कह कह कर सकुचाता हूँ।।

अपने मंे कुछ तत्व न दिखता, फिर क्यों लिखता जाता हूँ।

किसके लिये लिखा जाता है, यह कुछ समझ न पाता हूँ।

प्रीति रीति की बातें करता, प्रीति न निज में पाता हूँ।।

विरह मिलन कुछ भी न यहाँ है, फिर यह सब क्यों गाता हूँ।।

’ ’ ’ ’

यहीं नहीं इससे भी पहले जो कुछ तूने करवाया।

वह भी अपनी वस्तु स्थिति से, बढ़ा चढ़ा मैंने पाया।।

क्या वह मिथ्याचार नहीं था, क्या यह सब भी दम्भ नहीं?

पर तू जो करवाना चाहे, क्यों न करूँ मैं कर्म वही।।

विद्या बल के बिना तुझी ने ग्रन्थ लेख बहु लिखवाये।

उर में कुछ वैराग्य न था, फिर घर जन भी क्यों छुड़वाये।।

बिना भाव माधुर्य साधना क्या मेरा अपराध नहीं।

पर जब तुम्हीं विवश कर देते, क्यों न करूँ फिर कर्म वही।। जब मैं तेरा यन्त्र मात्र हूँ, फिर क्यों करके पछताऊँ।

जो कुछ तुझे सुनाना है, वह सुना सुना क्यों सकुचाऊँ।।

मैं तो तेरी बात सुनाता, मेरा कुछ कर्तृत्व नहीं।

महिमा गरिमा तेरी ही है, मेरा कहीं महत्व नहीं।।

तेरी बात सुनाऊँ सबको, इसीलिये मैं यन्त्र बना।

कैसे उसे छिपाकर रखूँ, उस पर अपना स्वत्व बना।।

मैं तो तेरी बात सुनाता, सुना सुना सुख पाता हूँ।

अपने में वह बात न मिलती, इसीलिए सकुचाता हूँ।।

सब में वह सदभाव बढ़ाये, मिले मुझे उनका सुप्रसाद।

प्रीति प्रसाद मिलेगा मुझको, इसीलिए यह किया प्रमाद।।

तेरा ही सब काम दयानिधि, तेरा ही यश अपयश है।

मैं तो खेल खिलौना तेरा, मुझे न कोई रस कस है।।

सबके सब कुछ होकर भी, तुम सबको खेल खिलाते हो।

सबसे मिले जुले रहकर भी, सबसे अलग कहाते हो।।

मुझको तुमने यन्त्र बनाया, सबसे बड़ा यही प्रतिदान।

यन्त्र मात्र ही रहूँ सदा मैं, यही मुझे बस दो वरदान।।

श्री राम कृष्ण साधन कुटी विनीत

कसौली (हि.प्र.) 10-9-73 सनातन देव

इस प्रकार इन पदों का अवतरण हुआ। फिर ऐसी प्रेरणा हुई कि इसमें से आरम्भ के ढ़ाई सौ पदों को पुस्तक रूप में प्रकाशित कराया जाय। पदों में किसी प्रकार का विषय क्रम नहीं था। जब जैसा स्फुरण होता लिख दिया जाता था। अतः इन्हें सात विषयों में विभक्त करके क्रम बद्ध किया गया। इस पुस्तक में 11 जुलाई सन् 1972 से 26 अक्टूबर सन् 1972 तक लिखे हुए दो सौ इक्यावन पद संगृहीत किये गये है। जो पद जिस तारीख में लिखा गया वह उसके ऊपर लिखी हुई है।

पुस्तक तैयार होने पर ऐसा संकल्प हुआ कि इन पर राग और ताल बैठा दिये जायँ। किन्तु मैं तो इस विद्या से सर्वथा अनभिज्ञ हूँ। एक दिन स्वभाव से ही मेरे अत्यन्त प्रीति भाजन पं0 रामस्वरूप जी शर्मा से चर्चा हुई । आप श्री धाम वृन्दावन के अधिवासी बड़े कुशल कलाकार और रेडियो सिंगर है, आप एक सुप्रसिद्ध रास मण्डली के स्वामी हैं। आपने बड़ी प्रसन्नता से यह सेवा स्वीकार कर ली और कुछ दिनों में ही यह कार्य करके मुझे पाण्डुलिपि लौटा दी। उनकी इस अहैतुकी निष्काम सेवा का मैं अत्यन्त आभारी हूँ। यह भी उनके अपने प्रिया-प्रियतम की ही सेवा थी, इसलिए अधिक क्या लिखूँ।

पुस्तक के प्रकाशन का भार पूज्य स्वामी श्री अखण्डानन्द जी की आज्ञा से सत्साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट ने स्वीकार किया है। मैं उनका बहुत आभारी हूँ।

पद्य-प्रसून

1. जय राधे ।।7।।

राग सिहाना, कहरवा 16.7.1972

जय जय राधे रंगीली सरकार।

प्रीतम प्रीति पगी, मन मोहन-मोहिनि, परम उदार।।

चम्पक बरनी, कोकिल बयनी, प्रीति रीति की सार।

स्याम जीवनी, स्याम जीविता, स्याम सुभग सिंगार।।1।।

स्याम सनेह सुधा सरसावनि, स्यामानन्द स्वरूप।

स्याम सुधा लोलुप जन अलिं कहँ रवि कर सरिस अनूप।।2।।

कोटि कोटि कमला कमनीया, कोटि कोटि रति मोहनि।

कोटि कोटि विधु विरद लजावनि, कोटि कृष्ण मन मोहनि।।3।।

करूनामयी कृष्ण रति पोसनि, कृपा कोर टुक कीजै।

चरन किंकरी जानि लाडिली, चरन सरन मोहि दीजै।।4।।

2. प्रार्थना।।20।।

ध्वनि लावनी 5.8.1972

हे प्रान नाथ मन मोहन उर उजियारे।

नित बसे रहो मम मन मन्दिर में प्यारे।।

प्रियतम! तब रूप छटा अतिसय मधुमाती।

मम मन मधुकरी न तासों, कबहुँ अघाती।।

तुम हो प्रानन के प्रान, नैन मन मोहन।

तुम ही सों पोसित होत, जीव के तन मन।।

बस केवल तुम ही , मेरे एक सहारे।। नित् बसे रहो0

वह अलि अवली सी असित सुकोमल अलकें।

वह मणि मण्डित कुण्डल की झलमल झलकें।।

वह बंक विलोकनियुत नयनन की पलकें।

वह मणि मुक्तामयि हारावलि की चिलकंे।।

लखि लखि उमँगत उर, उलझत प्रान हमारे।। नित बसे रहो0

वह सिखि सिखण्ड की झुकनि मनोभव करनी।

वह मदमाती मुरली ध्वनि तन मन हरनी।।

वह नर्तन युत पग नुपूर रूनझुन रवनी।

वह पीताम्बर फहरानि परहि नहिं बरनी।।

मन मन्दिर में ये विलसहिं सदा हमारे।। नित बसे रहो0

वह प्यारी प्यारी मधु मूरति मन हारी।

विलसै नित मम मन भवन महा मुद कारी।

मैं निरखूँ नित अनिमेष1, टरूँ नहि टारी।

जीवन धन! तुम पहँ यह जीवन बलि हारी।।

बस तुमसों प्रिय। हम रहें न कुछ भी न्यारे।। नित बसे रहो0

3. अपनी बात।।39।।

बृज की मांड ध्वनि कहरवा 29.8.72

सँवलिया! तेरे लिये मैंने साधू वेष बनाया।

तेरे लिए तजी सब दुनिया, घर घर अलख जगाया।।

जहाँ तहाँ भटका वन वन पर, तेरा पता न पाया।।1।।

पहिन गैरूआ लिया कमण्डलु, स्वामी जी कहलाया।

प्रेम रंग से रँगा न यह मन, यों ही जनम गँवाया।।2।।

ज्ञान ध्यान की बातें सीखीं, बल भी खूब लगाया।

मिटी न कुलबुलाट इस मन की, यों ही समय बिताया।।3।।

अब सबसे निरास हो प्यारे! तेरे दर पर आया।

रहा न कोई और सहारा, भटक भटक दुख पाया।।4।।

यह तो एक निरीह2-यन्त्र है, तेरा चले चलाया।

जो कुछ चाहे वही करा अब, यह सब तेरी माया।।5।।

मुझे न है कुछ करना धरना, मैं भी तेरी छाया।


1. बिना पलक झपकायें 2. चेष्टा शून्य

चाहे जैसा नाच नचा, कुछ मेरा गया न आया।।6।।

एक बार कह दे ‘तू मेरा’ होगी तेरी दाया।

तेरा हूँ तेरा ही प्यारे ! रही न माया छाया।।7।।

4. तेरे द्वार पर ।।68।।

बृज रसिया 12.10.1972

मैं तौ आयौ तेरे द्वार स्याम !

कित देर लगाई रे।

हेरत हेरत मैं हरि! हारौ।

खुल्यौ न अबलौं तेरो द्वारौ।

ऐसो का अपराध विचारौ।

ऐसौ का अपराध, भई अबलौं न सुनाई रे।।1।।

भटकि भटकि मैं अति घबरायौ।

कहूँ न कोउ आश्रय थल पायौ।।

जहँ जहँ गयौ वहीं ठुकरायौ।

ठुकरायौ, आयौ तेरे द्वारे आस लगाई रे।।2।। मैं तो आयो -

जनम जनम कौ मेैं अपराधी।

कबहुँ न कोउ साधना साधी।

जग की लगी अनेक उपाधी।

जग की लगी उपाधि, कबहुँ उर शान्ति न पाई रे।।3।। मैं तो आयो -

पल पल कलप कलप सम बीतै।

उर लागत कछु रीतै रीतै।।

कलपत दिन विलपत निसि बीतै।

तुम बिन दीनानाथ ! करै अब कौन सहाई रे।।4।। मैं तो आयो -

मैं सिर पटकि पटकि हरि हारौ।

मिल्यौ न नैकहुँ कहूँ सहारौ।

हाथ पकडि अब वेगि उबारौ।

डूबत जीवन तरनी प्यारे ! होउ सहाई रे।।5।। मैं तो आयो -

कासौ कहौं व्यथा या मन की।

जानत हौ तुम सब या जन की।

रही न कोउ सामरथ जतन की।

तुम ही, मेरे जतन, करौ अब वेगि सुनाई रे।।6।। मैं तो आयो -

5. युगल रस ।।107।।

रागदेश त्रिताला 30.7.72

विपिन मे विहरत सखि ! दोउ चन्द।

गौर बरन वृषभानु नन्दिनी, स्याम वरन नँदनन्द।।

दोउ प्रेमी प्रियतम हूँ दोऊ दोउ चकोर दोउ चन्द।

दोउ रसिक अरू रस हूँ दोऊ, दोउ अलि दोउ मकरन्द।।1।।

दोउ मछरी दोउ वारि सखी री ! दोउ मयूर दोउ मेह।

दोउ के उर दोउन प्रति उमँगत, नित नव सहज सनेह।।2।।

दोउ सखि आश्रय-आलम्बन, विषयालम्बन दोउ।

दोउ प्रेमी दोऊ प्रेमास्पद, तत्सुख सुखिया1 दोउ।।3।।

महाभाव वृषभानु नन्दिनी, नन्द नँदन रस राज।

लीलास्वादन हित वितरित रस, दोउ कहँ दोउ सजि साज।।4।।

सकल विरूद्ध धर्म गुन आलय, जुगपत नित्य अनन्त।

मन बानी सों अगम-अनूपम, सुखमय, शुचि, श्रीमन्त।।5।।

दोउ रस रूप रसिक वर दोऊ, रसिकन रसद अनूप।

अंग उपांग रूप सखियन को वितरहिं रस रस भूप।।6।।

जद्यपि विलसहिं द्वै सरूप है, तदपि एक रस रूप ।

मो मन भवन चरन दोउन के, राजत रहें अनूप।।7।।

6. श्री वृन्दावन ।।115।।

राग भूपाली, त्रिताला 16.9.72

रंगीलो श्री वृन्दावन धाम।

जहाँ करत कल केलि निरन्तर, रसनिधिं स्यामा स्याम।

कल कल करत बहत कालिन्दी, मन्द मन्द अविराम।

स्यामा स्याम केलि रस भीनी, उमँगत उर्मि उदाम।।1।।

रितु रितु की महिमा अति अद्भुत, पै बसन्त अभिराम।

बारह मास बस्यो वृन्दावन, सेवत स्यामा - स्याम।।2।।

कुन्ज कुन्ज कमनीय बनी अति, सरसिज गूँजत भृंग।

कूजहिं केकी, कीर कोकिला, कूदहिं कीस कुरंग।।3।।

वन वन स्याम सखन सँग विचरत, खेलत खेल नवीन।

ग्वाल-बाल बछरन सँग उछरत, करि करि कला प्रवीन।।4।।

कबहुँ होत वन भोजन की रूचि, निज निज छींकें लावैं।

करि करि कौतुक भाँति भाँति के हँसि हँसि खायँ खवावैं।।5।।

स्याम सुरस भीनी ब्रज बाला, स्यामहिं के गुन गावैं।

कबहुँ कि दें नवनीत प्रलोभन, स्यामहिं नाच नचावैं।।6।।



1. दूसरे के सुख में सुखी रहने वाले।



निरखि निरखि यह अनुपम सोभा, सुर मुनि सिद्ध सिहावैं।

‘हम हूँ कों ब्रज वास मिले’ बस विधि सों यही मनावेैं।।7।।

7. जीवन धन गोविन्द ।।121।।

राग टोडी-तीन ताल 14.9.72

हमारे जीवन धन गोविन्द।

सत् के सत् चित के चित वे ही, आनन्द के आनन्द।।

मन के मन वे प्रान प्रान के, तन के तन स्वच्छन्द।

सब के सार आधार वही हैं, सुद्ध सच्चिदानन्द।।1।।

उन बिनु कोऊ भी न कतहुँ कछु, सब वे आनन्द कन्द।

वे ही प्रीतम वे ही प्रेमी, वे ही प्रीति अमन्द।।2।।

वे ही सर्ग, सृजन, स्रष्टा हैं, ये उनके छल-छन्द।

वे ही कर्म कार्य भी वे ही, कर्ता वे सानन्द।।3।।

जो कछु भयो, होत हैं, हुईं हैं, उनको सब ही द्वन्द्व।

फिर क्यों चिन्ता करत भजत नहिं, प्रीतम परमानन्द।।4।।

सब उनके, सबके वस वे ही, वे ही सब स्वानन्द।

सब कछु खेल उन्हीं को, बस तू खेलेजा स्वच्छन्द।।5।।

8. बाँकें की बाँकी दुनिया।।128।।

ब्रज की लोक ध्वनि, दादरा 27.8.1972

बाँके बिहारी तेरी बाँकी है दुनिया।

बाँके अंग संग तेरो बाँको, बाँकी है तेरी खेल खिलनियाँ।

बाँकी अलकें बाँकी पलके, बाँकी है कुण्डल की झलनियाँ।।

बाँकों मुकुट लटक तेरी बाँकी, बाँकी है तेरे कर की मुरलिया।।1।।

बाँके नयन, सैन तेरी बाँकी, बाँकी है तेरी भौहं धनुहियाँ।

बाँकी लटकन, बाँकी मटकन, बाँकी है तेरी चितवनियाँ।।2।।

बाँकी कटि, बाँके कर तेरे, बाँकी है कर की कंकनियाँ।

बाँकांे पट, बाँके पद तेरे, बाँकी है पद की पैजनियाँ।।3।।

बाँके ग्वाल सखा तेरे बाँके, बाँकी हैं सब गोप ललनियाँ।

बाँके नन्द जसोदा बाँकी, बाँकी हैं श्री राधा रमनियाँ।।4।।

बाँकांे ब्रज, बाँकांे वृन्दावन, बाँकी है तेरी मथुरा नगरिया।

बाँको असुर सँहारन तेरो, बाँकी हैं गिरवर धारनिया।।5।।

बाँकी बोलन, बाँकी चोरन, बाँकी हैं तेरी नाग नथनियाँ।

बाँकी ठुमकन, बाँकी नर्तन, बाँकी हैं तेरी रास रचनियाँ।।6।।

बाँको तू बाँकी तेरी लीला, बाँकी है मुख की मुसकनियाँ।

बाँकी कृपा करो मन मोहन, बाँके हम तेरे नाच नचनियाँ।।7।।



9. अभिलाषा ।।133।।

राग रागेश्वरी, ताल दीपचन्दी 19.7.72

ऐसी कब करिहौ गोपाल।

मम उर अजिर सतत विहरै तव पावन प्रेम रसाल।।

रहैं न कोऊ विसम व्यसन, पद पदुम प्रीति उर सरसै।

नयन न निरखहिं अन्य रूप, तब मधुर मूर्ति उर करसै।।1।।

सुमति सुगति सम्पत्ति न चहौं कछु ज्ञान मान विसराऊँ।

सान्ति भ्रान्ति हूँ सों उपरत है, तब पद प्रीति दृढाऊँ।।2।।

कुटिल करम बस विसम दसा, जैसी जब जो कछु आवै।

सो सब कृपा प्रसाद रावरो, मम भव व्याधि नसावै।।3।।

कबहुँ न पर अवगुन उर लावौं, निज गुन कबहुँ न निरखौं।

गुन अवगुन दोऊ परिहरि सर्वत्र तुमहिं, प्रभु परखाैं।।4।।

प्रीति प्रतीति जगत में जहँ तहँ, सो सब तुम सो लाऊँ।

तुम ही में अपनत्व समर्पित करि, सब भेद भुलाऊँ।।5।।

हम-तुम को फिर भेद न भासै, प्रीति मात्र सरसावै।

प्रियतम प्रेमी, प्रेमी-प्रियतम अस रस रीति सुहावै।।6।।

10. निहोरा ।।14।।

राग काफी, ताल दीपचन्दी 14.8.1972

बे दरदी तोहि दया न आवै।

जनम जनम की दासी तेरी, क्यों दर दर भटकावै।।

तेरे कारन जोग लियो मैं, तोकू सरम न आवै।

पहले तो अपनी करि राखी, अब क्यों आँख चुरावै।।1।।

दरद की मारी बन बन भटकूँ, जियरा अति घबरावै।

दिन नहिं चैन रैन नहिं निद्रा, पल पल मदन सतावै।।2।।

कैसी, करूँ जाउँ कित प्यारे ! को मोकहँ अपनावै।

तेरी हूँ, तेरे ही कारन विरहा मोहिं सतावै।।3।।

बहुत भई अब तो करूना कर, काहे देर लगावै।

अधर सुधा की प्यासी प्रियतम ! क्यों नहीं नेह निभावै।।4।।

11. गुण गारे ।।155।।

राग भरैल ताल दीपचन्दी 12.9.72

मन तू माधव के गुन गारे।

भटकि भटकि सब वयस बिताई, अब तू हरि ही सों लौ लारे।।

विषयन में रचि-पचि दुख भोगे, अब तू उनसों राग हटा रे।

तृष्णा डायन बहुत छकायो, अब तू वाकी लत्त मिटा रे।।1।।

मोह मगर की पकड़ कठिन है, तासों अपने प्रान बचा रे।

ममता पास परयो दुख भोगत, ताहि त्यागि प्रभु प्रीति बढा रे।।2।।

क्रोधानल में दहयो सदा सों, तासों निकसि सान्ति सर न्हा रे।

मद अभिमान पाप के गढ़ हैं, बम-विवेक सों तिन्हहिं ढहा रे।।3।।

सान मान की मदिरा मोहयो, अब तू चेत विवेक बढा रे।

काम तिमिर सो रहयो अन्ध हृै, कृष्ण प्रेम की जोति जगा रे।।4।।

संसृति-सिन्धु सुखानो है तो नाम अगस्त्य-कृपा पा जा रे।

प्रीति पीयूष पान जो चाहै, तो प्रभु चरन-सरन आ जा रे।।5।।


12. दर्शन की प्यास ।।158।।

राग धनाश्री ताल रूप 16.9.72

लोचन ललकि ललकि रह जात।

कृष्णचन्द्र मुख चन्द्र दरस हित द्वै चकोर ललचात।।

कबहुँ कि उलझत नीर नयन सों, उर उलहत दिन रात।

मन्द मन्द कछु होत हूक सी, तरसि तरसि रहि जात।।1।।

जब सों सुनी स्याम की सुखमा, सखि ! अब कछु न सुहात।

बौरी सी मैं इत उत डोूलँ, जियरा अति अकुलात।।2।।

कैसी करूँ जाउँ कित सजनी ! सूझत कोउ न बात।

स्याम स्याम ही की रट लागी, मदन मरोरत गात।।3।।

वह मुसकनि वह हँसन-माधुरी, वह चितवन अवदात।

लटकि लटकि वह चलन स्याम की सुमिरत सिहरत गात।।4।।

कह बाँकी झाँकी आँकी उर, पलहुँ न इत-उत जात।

लोचन मरहिं रूप रस प्यासे, को अब स्याम मिलात।।5।।

अकी जकी सी डोलूँ सजनी ! कैसे हुँ चैन न आत।

हुइ है चैन तबहि जब नयननि वह मृदु मूर्ति लखात।।6।।


13. चकई री ।।204।।

राग सोहनी तीन ताल 26.9.72

चकई री! चल प्रियतम के देस।

भयो प्रभात, गई अब रजनी, उनयो बाल दिनेस।।

यह रजनी बैरिन नित तो कों, देत विरह को क्लेस।

मिलन और बिछुरन कोही हैं, यह जड़ जंगम देस।।1।।

चल वा देस जहाँ नहिं, रजनी, नहीं राग राकेश।

उगत न जहाँ विषय-उडुगन हूँ, सुप्ति सुपन न प्रवेश।।2।।

नित्य दिवस ही रहत तहाँ, जगमगत आत्म दिवसेस।

नित्य जागरित ही बस बरतै, तुरिया पद दिवसेस।।3।।

प्रीतम प्राननाथ मन मोहन, रसनिधि श्री राधेश।

तिनसों नित्य मिलन रस रंजन, कबहुँ न विरह कलेश।।4।।

14. चामकी पुडिया

ध्वनि लावनी लँगड़ी 10.10.72

यह तन एक चाम की पुड़िया, क्या क्या माल भरा है रे।

जो तू इसे खोलकर देखे, तो यह नरक खरा है रे।।

अस्थि मांस मल मूत्र रूधिर ही, इसकी सारी सम्पद है।

जो इसमें फँस गया वही तो नरक जाल जकड़ा है रे।।1।।

फिर भी कैसा अचरज है यह, इसे मानता है निज रूप।

नरक कीट की भाँति इसे, इसका न संग अखरा है रे।।2।।

जो विवेक विज्ञान शील है, वे तनु की तृष्णा तजते।

रहते सदा असंग देह का संग उन्हें झगड़ा है रे।।3।।

फिर तो देह देह नहि रहता, रहता उनकी ही छाया।

वे इसके ईश्वर हैं यह तनु उनकी ही माया है रे।।4।।

माया तो मायावी की है, उससे भिन्न न है वह कुछ।

चेतन का विलास होने से, माया उसकी छाया है रे ।।5।।

इस प्रकार यह तनु भी उसका, चिद्विलास रह जाता है।

चिद्विलास ही सारा जग है, सब चित ही की छाया है रे।।6।।

चित् ही माया, चित् ही काया, चित् ही है सारा संसार।

चित्स्वरूप उस महापुरूष ने, चिन्मय तनु ही पाया है रे।।7।।

इस प्रकार चिन्मय होकर ही, चित के दर्शन होते है।

फिर तो सब चिन्मात्र भासता, चिन्मन्दिर की काया है रे।।8।।

लीला माधुरी

15. भानु घर बधाई ।।215।।

ब्रज की समाज, ताल धमार 11.9.72

भानु भवन एक लाली प्रगटी, बाजत आज बधाई हो।

कोटि विधुन को सार ग्रहन करि बिधना मनहुँ बनाई हो।।

पौरि पै बाजत सहनाई, भीर लोगन की जुरि आई।

साज् सजि सजनी सब आईं, थार भरि असन वसन र्लाइं।।

गावत गीत मनोहर बानी, सुनि सुनि सब हरसाई हो।।1।। भानु भवन

सुनत सब मुनि जन हरसाये। गगन में सुर सुर तिय छाये।

कलपतरू सुम बहु बरषाये, विविध विध मंगल हू गाये।।

चढ़ी विमानन सुर तिय गावहिं, नाचहिं अति हुलसाई हो।।2।। भानु भवन

भवन में भीर भई भारी, हरषि हियँ नाचहिं नर नारी।

करहिं बालक कल किल कारी, कीच गोरस की भई भारी।।

देखि देखि तृन तोरहिं ललना, लाली ललित लुनाई हो।।3।। भानु भवन

प्रकृति में छायो अमित हुलास, रच्यौ वन देवनि मानहुँ रास।

करैं कलरव कलकण्ठ विलास, भयौ फल दल पुहुपादि विकास।।

पावस हू में सरित सरोवर-सलिल स्वच्छ सरसाई हो।।4।। भानु भवन

कहाँ लो बरनैं वह आनन्द, स्वयं लाली भौ परमानन्द।

कटे अब सन्तन के सब फन्द, भये सब सुरमुनि हूँ स्वच्छन्द।।

देखि देखि सो अद्भुत सोभा, उर आनन्द अधिकाई हो।।5।। भानु भवन

16. श्री जी की बाल क्रीडा।।216।।

राग-सोरठ-पीलू, ताल दादरा 16.9.72

खेलत वृष भानु भवन , बाल एक सुहाई।

सुखमा की सीवं निरखि, लजत चन्द भाई।।

गौर गौर अमल अंग, दामिनि हूँ होत दंग।

वसन नील अति सुरंग, सहमत सुघराई।।1।।

अँग अँग भूषन सुहात, मुक्तामणि जगमगात्।

निरखि नखत नभ लजात, लली की लुनाई।।2।।

तनु की अति अमल जोति, जगमग गृह अजिर होत।

छिटकहिं जनु जोति स्रोत, अदभुत जुन्हाई।।3।।

सोहत कछु सखी संग! किलकत भरि भरि उमंग।

कबहुँ होत रंग भंग! रूठत मनाई ।।4।।

लाली को लखि सुहास ! कीरति उर अति हुलास।

निरखि रूप को विकास ! तोरत तृन माई ।।5।।

नारद विधिं अरू महेस ! आवहिं धरि छद्म वेस।

लली चरन धरि सुदेश ! हुलसहिं सचु पाई ।।6।।

ऐसे हि वृषभानु गेह ! बरषत आनन्द मेह।

दिन दिन बाढत सनेह ! सुखमा सरसाई।।7।।

17. नन्द घर बधाई ।। 218।।

नन्दलाल प्रगटे गोकुुल में बाजत आज बधाई हो।

कंस कोप सों भीत देव जू लालहिं गोकुल लाये।

नन्द सुता ले आप सिधारे लालहिं तहँ पौेढाये ।।

बात यह जान न पाई हो।।1।। नन्द लाल

प्रातहिं रौर परी गोकुल में जसुमति लाला जायौ।

जाने सुनी सोइ हरषित हृै दौरि पौरि पै आयो।।

जुरे बहु लोग लुगाई हो ।।2।। नन्द लाल

हरसे पुत्र प्रसव सुनि बाबा तुरतहिं भवन सिधारे।

दान मान सों किये अयाचक, याचक बानक सारे।।

खूब सम्पत्ति लुटाई हो।।3।। नन्द लाल

ग्वाल-ग्वालिनी मंगल गावत, लाई बसन मिठाई।

वारि वारि लाला पै बांटत लूटत लोग लुगाई।।

बधाई हो बधाई हो।।4।। नन्द लाल

भरि भरि मटुकी दूध दही, लै करै परस्पर होरी।

गोरस की भई कीच अजिर मैं आनंद खूब बढ़यो री।।

धूम तहँ अतिसय छाई हो।।5।। नन्द लाल

वस्त्रा भूषन साजि नन्द जू धेनु अनेक मंगाई।

दई दान जाचक विप्रन को हिय में अति हुलसाई।।

ललन आशीस दिवाई हो।।6।। नन्द लाल

बाल वृन्द बहु नांचहि कूदहिं, अतिसय धूम मचाई।

तोरहिं तान नटी नट बन्दी विरूदावली सुनाई।।

सुनहिं सब अति हरसाई हो।।7।। नन्द लाल

एहि विधि होत अपूरब आनंद सुरमुनि अति हरषात।

चढे विमानन सुर सुरबाला स्वर्ग सुमन बरसात।।

गात सब सरस बधाई हो।।8।। नन्द लाल

एहि विधि अति आनंद बढयो ब्रज डोलें फूले फूले।

लेहिं लाल की हुलसि बलैयाँ तन की सुधि बुधि भूले।।

बधाई हो, बधाई हो।।9।। नन्द लाल

18. बाल केलि ।।224।।

राग परज, त्रिताला 1-9-1972

स्याम की बाल केलि कछु गावैं।

बहु विधि खेल करत मन मोहन, मुनिजन जिनकहँ ध्यावैं।।

कबहुँ कबड्डी किनमिन कानी, कबहुँ कहूँ लुक जावैं।

ढूढ़हिं बाल सदा आतुर हृै, प्रगटै हँसे हँसावैं।।1।।

कबहूँ बाल सखा कोउ जीत्यौ, ताकों पीठ चढावैं।

घोड़ा बनि चड्डी दै बाकों, बड़ी दूर लौं धावैं।।2।।

कबहुँ होत वन भोजन की रूचि, निज निज छीके लावैं।

मंडल बाँधि बैठि आपस में, निज निज स्वाद बतावैं।।3।।

पहले ग्रास देहिं मोहन को, स्वयं प्रसादी पावैं।

बाल भाव सों कबहुँ जूठ हूँ खावैं, और खवावैं।।4।।

कबहुँ चढहिं तरू लतन जतन सों, लूट लूट फल खावैं।

कूदें ऊपर सों धरनी पै, हँसि हँसि सबहि हँसावैं।।5।।

कबहूँ होड़ होत बछरन सों, पूँछ प्रकरि केै धावैं।

कबहुँ पैठि जमुना में सब मिलि, न्हावैं और न्हवावैं।।6।।

कबहुँ मोर कबहूँ बानर बनि, बृच्छन पै चढ़ि जावेैं।

करि करि कै अनुकरन बहुत विधिं वैसेहि बदन बनावैं।।7।।

ऐसे हि होति अनेकन क्रीड़ा, कहँ लगि कविजन गावैं।

सख्य भाव के सरस उपासक, ध्याय ध्याय सचु पावैं।।8।।


19. उलाहना ।।225।।

राग रागेश्वरी 10-10-72

(मैया री) काहे न तू गोपालहिं वारत।

यह तेरो लाल बड़ो उत्पाती, काहू की कछु कानि न मानत।।

हम तो हारि गयीं अब या सों, नित प्रति नई रार यह ठानत।

ना जानें को गुरू है जासों नित नित नई जुगति यह जानत।।1।।

हम जल भरन जाँहिं जमुना तट, यह मग में कांकरिया मारत।

फोरत घट, बोरत जल सों, यह तारी देै दै बोल उचारत।।2।।

बड़े जतन सों माखन के घट, हम ऊँचे छींकन धरि राखत।

बानर बाल साथ घर में घुस, बड़ी जुगति करि सो सब ढारत।

कहा कहैं अचकरी स्याम की, सोये बालक नांेचि जगावत।

पौढ़ी सखी मिलै घर मैं तो, चुटिया बांधि खाट सों धावत।।4।।

हम दहि बेचन जाँहि मधुपुरी, यह मग रोकि दान नित मांगत।

भाँति भाँति सों हमहिं खिजावत, लूटि लूटि दहिं खात खवावत।।5।।

कहा कहा याकी गति बरनैं, सूधो सों इत बात बनावत।

ऐसो ठीठ चपल कोउ बालक, सिगरे ब्रज में कहूँ न पावत।।6।।

अपनों गांव लेहु नंदरानी, हमें न इत रहिबो अब भावत।

जाय बसैं कोउ आन गांव में, पुनि पुनि यही बात उर आवत।।7।।

20. मुरली वादन ।।229।।

राग भैरव, बहर (ब्रज लोक ध्वनि) 19-10-72

सुन्दर स्याम सुजान सिरोमनि ! अब न बजाओ बाँसुरिया।

याकी धुनि सुनि सुनि हम सबके हृदय लगत मानो आगुरिया।।

यह मुँह लगी नैक नहिं मानत, हम विरहिनि के उर अति सालत।

हम सौं सदा चौप सी राखत, उर उपजावत डाहरिया।।1।। सुन्दर स्याम

हम सब रंधन साज सजावैं ! जाय रसौई आग जरावैं।

धुनि सुनि इंधन रस सरसावै ! बुझि बुझि बाधत आगुरिया।।2।। सुन्दर स्याम

हम तो दरसन हू को भट कैं ! यह मुख लगि अधरामृत गटकै।

याकी रीत हमें अति खटकै ! चोरि तोरि दैं फाँसुरिया।।3।। सुन्दर स्याम

या सों तुमने नेह लगायौ ! हम सबकों सब विधि बिसरायौ।

यही क्लेश नित हमँहि सतायौ ! क्यों बिसरी हम दासुरिया।।4।। सुन्दर स्याम

याको बोल सबहिं को भायौ ! ऋषि मुनि सुनि सुधि बुधि बिसरायौ।

पै हमरे हिय अनल जरायौ ! कहा करै हम साँवरिया।।5।। सुन्दर स्याम

21. युगल परिणय ।।231।।

राग बिलावल, कहरवा 26.9.72

एक दिना सिसु स्यामहिं गोद लै नन्दजु श्री बन माहिं पधारे।

ताहि समय उमड़े अति घोर, पयोधर सोर मचावत कारे।।1।।

टूट परी तिनसों बड़री बुंदियाँ, जनु छूटे अकास सों तारे।

देखि दसा वह वारिद की, चिन्ताकुल भे नँदराय जू भारे।।2।।

पास न है कोउ गोप इतै, अरू गायन हूँ कहँ देखिबो है।

बालक है अति बारौ, बवन्डर बेगहुँ सो यहाँ जूझिबो है।।3।।

सोचत चित्त उदास भयौ, इतने में ही देख्यो प्रकास तहाँ है।

आई तहाँ वृषभानु लली, यह देखि भयौ मन मोद महा है।।4।।

बोले-‘अहो वृष भानु सुते’ ! यह स्याम लला मम जीवन हैं।

है प्रीति सदा तुम्हरी इन सौं, तुम लेहु इन्हें, तव ये धन हैं।।5।।

जाओ इन्हें जसुदा ढिंग लेै, मन में हुलसौ मिलिके इनसों।

अंक उठाय चलीजु लली बन, लाल किशोर भये तनु सों।।6।।

रंग बढ्यौ दोउ ओर तबै, कल केलि भई अति चोज भरी।

लोक पितामह ब्रह्मा तहाँ, हरि प्रेरित पहुँचे ताहि धरी।।7।।

दम्पति के पद वन्दि तबै, तिन ब्याहन को सब साज सजायो।

दोउन के उर चोज बढ़यौ वन, देविन हूँ चित चाव बढ़ायौ ।।8।।

पूजन होम भयौ विधि सों, अरू सप्तपदी विधि हूँ सुखदायी।

ब्याह कराय गये विधि तो इत केलि कला प्रकटी मन भायी।।9।।

दम्पति दिव्य विहार अलौकिक, देवन हूँ की तहाँ मति बौरी।

भाव विपर्यय को छिन होत ही, स्याम भयेसिसु रूप बहोरी।।10।।

लीला रही स्मृति मात्र तबै, सिसु स्याम लेै राधा चली ब्रज को।

मातु की गोद दै बाल तुरन्त विदा हृै गयी अपुने घर कों।।11।।

या रस की सब लीला अनूपम, को कवि कैसे बखान करै।

होय दया यदि स्यामा और स्याम की तो कछु यह रस जान परै।।12।।

22. होली ।।242।।

31.9.72

फागुन आयौ चलो स्याम सँग खेलें सखी होरी।

जुर मिलि सब सखि चलीं संग लिए श्री राधा गोरी।।1।।

बरन बरन के वसन रतन, आभूषन तन सोहैं।

बाजत ढोल मृदंग, फाग सुनि, रसिकन मन मोहै।।2।।

उत कछु बालक लिये स्याम हूँ, खेलन कूँ निकसे।

प्रेम सरोवर आइ मिले दोउ दल हिय में हुलसे ।।3।।

कुमकुम केसर घोरि सुरभि, रँग भाजन भरि लीन्हे।

कन्चन पिचकनि छोरि दोउ दल रँग रन्जित कीन्हें।।4।।

भरि भरि मूठ गुलाल उड़त, अति अम्बर लाल भयौ।

उड़त अरगजा अरू अबीर, अति कौतुक तहाँ छयौ।।5।।

बाजि रहे बहु बाद्य परस्पर मिलि फगुआ गावैं।

छाय रहयौ आनन्द दोउ दल करि करि हँसी हँसावैं।।6।।

घात लगी जब आप सखिन मिलि मन मोहन पकरे।

हा हा खा ली बहुत तदपि दोउ कर पंकज पकरे।।7।।

लाई स्वामिनि पास भेस सब वनिता को कीन्हों।

विनती बहुत कराय अंक भरि तिनहूँ सुख दीन्हों।।8।।

एहि विधि भयौ अनन्द सबहि के हिय अतिसय हरसे।

सुर-सुरतिय हुलसाय सुरग सों सुरभि सुमन बरसे।।9।।

23. उद्धव का ब्रजागमन

राग मालकोस, तीन ताल 6.9.72

ऊधो ब्रज मंडल में आये।

देखि वहाँ की दीन दसा उर, उमड़यौ नैन नीर भरि आये।।

सूखे तन सूखे मन चहुँदिसि, सूखे ही तरू लता लखाये।

सूखे सर सूखे पशु-पंछी देखि देखि उद्धव हुँ सुखाये।।1।।

छाई बडी उदासी मन में, मानहुँ सब सर्वस्व गँवा ये।

काहू सों कछु पूछन हूँ को होइ न साहस अति अकुलाये।।2।।

देखीं गाय छीन तनु ठाडी, खान पान कौ सुधि बिसराये।

देखहिं दीन दृष्टि सो मानहुँ, देखन काहु नैन अकुलाये।।3।।

सूनो सूनो सो सब लागत, कहा करैं कछु समुझि न पाये।

ज्यों त्यों कछु साहस बटोरि, पुनि नन्द पौरि पहुँचे संकुचाये।।4।।

24. भ्रमर गीत - (249)

राग गौरी, ताल दीपचन्दी 14.9.72


भ्रमर ! तुम काके गुन गन गाओ।

कपटी कृस्न पठायो तुमको, तो अब क्यों न उतै ही जाओ।।

कुच कंुकुम मूंछन सों लाग्यो, लाज न तुमको नेकहुँ आवै।

यह प्रसाद काहू सपत्निको, क्यांे न मत्त माधव उर लावै।।1।।

वह माधव है धूर्त सदा को, पहले केैसे हुँ नेह लगावै।

अधर सुधा एक बार प्याय पुनि, दूरहिं सों वह बात बनावै।।2।।

जान परत लछमी हॅँू को मन बाने बात बना हर लीन्हौं।

याही सों सब तजि चपला ने, वाहे पद पंकज मन दीन्हौं।।3।।

हम गँवार ग्वालिनी, हमें तू बाकी का कल कीर्ति सुनावै।

हम तो बहुत काल सों जानै, सुना उनहि जिनको वह भावै।।4।।

बाकी कपट भरी मृदु सुसकनि, अरू भ्रूमटकनि काहि न भावै।

त्रिभुवन में ऐसी को बाला, जो वापै तन मन न लुटावै।।5।।

हम वापुरी कहा कहियत हैं, लछमी हूँ बाके पद परसै।

हम दुखियन की लेत कबहुँ सुधि, याही लों बाको जस सरसै।।6।।

अरे! आय तू पुनि पुनि भैया ! क्यों हमरे पायन सिर लावै।

जान परत यह चाटु चातुरी तोहिं चाट गुरू स्याम सिखावै।।7।।

बाकी कपट कथा का कहिये, जनम जनम ऐसेहिं चलि आई।

वानर राज बालि को वाने, बीध्यों स्वयं व्याध की नाईं।।8।।

सिया-मोह सों काम मोहिता सूर्पनखा को रूप विगारयो।

सरबस दान दियो, बलि पै ताको बलि पशुवत् बन्धन डारयौ।।9।।

कहा करें या कारे की तो, प्रीति और परतीत बुरी है।

लगी न छूटत है काहू बिधि, जदपि कपट-विष-बुझी छुरी है।।10।।

एक बार हू जाके स्रवननि याकी लीला सुधा परी है।

छोरि आस सो सब अग जग की होत भिखारी ताहि घरी है।।11।।

हम हूँ ताके कपट गान सों हरिनी सम अलि! विद्ध भई हैं।

अब तुम चर्चा तजो स्याम की, हम ताकी गति समुझि गयी हैं।।12।।

अरे भ्रमर! तू पुनि पुनि हमकों काहे श्याम सँदेश सुनावै।

हम तो कृस्न मोहिता ठहरीं, पै वह हमको काहे बुलावै।।13।।

वह बांको बाँकी वह कुब्जा, फिर क्यों हमसो प्रीति जनावै।

पै यह कृस्न कथा दुस्त्यज है, पुनि पुनि वाही की सुधि आवै।।14।।

का कबहूँ मन मोहन प्यारे, ब्रज कों आय सनाथ करहिंगे।

चन्दन चर्चित बाहु बंध दै, हम दुखियन की व्यथा हरहिंगे।।15।।

25. उद्धव का स्वगत विचार (251)

राग स्याम कल्याण, ताल रूपक 15.9.72


देखि सब उद्धव करहिं विचार।

धन्य धन्य ये ब्रजवासी सब, जिनके कृस्न प्राण आधार।।

है इनको ही जनम सार्थक, जिन गोविन्द सो प्रीति दृढाई।

लोक बेद की सकल कानि तजि, माने जीवन प्रान कन्हाई।।1।।

कहा भयौ जो विप्र वंस में जनम, पाय हरि नाहिं अराधे।

अधम बंस हूँ होत पूज्य जो मन मोहन ही सों रति साधे।।2।।

वन वासिनि व्यभिचार दूषिता हूँ ये ग्वालिनि परम धन्य हैं।

जिनकी परम पुरूष मोहन में, परमा प्रीति अस अनन्य है।।3।।

अग्यानी अरू अति विमूढ हूँ यदि श्री हरि सों अति रति लावै।

तो वह निश्चय वन्दनीय है निश्चय मोक्ष परम पद पावै।।4।।

रास केलि मे प्रिय परिरम्भन सों, इन गोपिन जो रस पायौ।

सो है कमला हूँ को दुरलभ, अन्य तियन का बात चलायौ।।5।।

धन्य धन्य ये परम धन्य हैं जिन निज आर्य पन्थ हूँ त्याग्यौ।

लोक वेद की कानि न करि, केवल श्री कृष्णहि उर अनुराग्यौ।।6।।

अहो कबहुँ या ब्रज में जो मैं तृन तरू लता कोउ तन पाऊँ।

तो इनकी पगधूरि सीस धरि, अतिसय निज सौभाग्य मनाऊँ।।7।।

धन्य धन्य मैं परम धन्य, जो मोहन मोकों इतै पढायौ।

इन गोपिन को दरस पाय, अब मैंने हूँ जीवन फल पायो।।8।।

क्यों नहि स्यामहुँ आय, इतै इन को रस दै आपहुँ रस पावैं।

अब मैं मथुरा जाय करहुँ सोइ जासों स्याम वेगि इत आवैं।।9।।

श्री राधा कृष्णार्पण मस्तु

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इस प्रकार माधुर्य माला की इकतालीस पुस्तकों में सवा दस हजार से अधिक पदों का ग्रन्थन हुआ जो भक्ति साहित्य में अपूर्व कीर्तिमान है। इस पर सुयोग्य संतो तथा साहित्य महारथियों ने अपनी सम्मतियाँ दी थी। जो उन पुस्तकों के अन्त में क्रमशः प्रकाशित हुई थीं।

कृपा प्रसाद की प्राप्ति

लेखक - श्री प्रभुदत्त जी ब्रह्मचारी

बन्धुवर स्वामी सनातन देव जी हमारे परम आत्मीय हैं। आज से नहीं बाल्यकाल से हमारे उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध हैं जब हम भी खुर्जा में पढ़ते थे और वे भी पढ़ते थे। वे अपने समय के धीर-गम्भीर मेधावी छात्र माने जाते थे। विद्यालय में तो कम ही पढ़े किन्तु उन्होंने अपनी स्वाभाविकी मेधा और सूझ बूझ से अपने शास्त्रीय ज्ञान में अत्यधिक वृद्धि की। फिर वे हमारी ही सम्मति से गीता प्रेस में चले गये और वहाँ पर संस्कृत ग्रन्थेां का अनुवाद करने लगे। उस समय वे केवल गद्य में अनुवाद ही किया करते थे।

जब आप द्वारा अनूदित श्रीमद् भागवत दो भागों में प्रकाशित हुई तब उसमें भगवान श्री कृष्ण की छवि के सम्मुख एक कविता छपी थी। नाम तो उसमें किसी का नहीं था। ऐसी बिना नाम की कवितायें भाई जी (श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार) भी लिखते थे। किन्तु मैंने अनुमान लगाया स्यात यह कविता मुनिलाल जी (स्वामी सनातन देव जी) की ही हो। कविता बहुत की भावपूर्ण थी। पाठक उसका रसास्वादन करें-

निरखि किन नयना होहु निहाल।

अति अद्भुत आनँद अम्बुद सी, सोहत सो सुषमा सुविसाल।।1।।

नीरद तनु दामिनि सी दमकत, छिन छिन छविकन झरत रसाल।

अंग अंग मनिगन दुति राजत, झिलमिलात जनु उडुगन जाल।।2।।

नाचत मन मयूर अति उन्मद, निरखि इन्द्र धनु सी बन माल।

पुनि पुनि अति आनँद उर उमँगत, सुनि सुनि वंशी नाद रसाल।।3।।

मुख मयंक पै मुकुट मनोहर लसत कंज जनु कनक मराल।

मधुर मधुर मुसकान मनोहर, मारत मनहुँ मार सर जाल।।4।।

स्याम सनेह सुधा नित बरषत, परसत कंपत कुटिल कलिकाल।

सो सुठि सुधा पान करि रूचि सों, भजहु निसंक न किमि नँदलाल।।5।।

यह 45-50 वर्ष पुरानी बात है। श्रीमद् भागवत का यह प्रथम अनुवाद जहाँ तक मुझे स्मरण हैं संवत् 1983-84 में निकला था। इस पद को पढ़ते ही मेरे मन में उसी समय यह बात आयी कि हमारे भाई मुनिलाल जी कालान्तर में एक महान कवि होंगे।

कुछ काल के पश्चात् वे संन्यासी हो गये। ज्ञान निष्ठ वे पहले से ही थे। मैंने सोचा, चलो अब कविता वाली बात गयी आई हो गयी।

एक दिन वृन्दावन के बंशीवट वाले अपने आश्रम में आये और एकान्त में मुझसे बोले- मुझे तो गोपी भाव की स्फुरणा होती है। मुझे महान आश्चर्य हुआ। कहाँ ज्ञान निष्ठा और कहाँ मधुर रस का यह दिव्य भाव। मन ही मन मैंने सोचा - कोई श्रोत फूटने वाला है।

जब आप अपनी प्रथम प्रकाशित माधुर्य लहरी को मेरे पास लेकर आये तो मुझे उनके पदों को पढ़कर अत्यन्त ही प्रसन्नता हुई। जब घर में बच्चे का विवाह होता है तब बहू तो बच्चे की ही होती है किन्तु लड़के से अधिक प्रसन्नता माता पिता, भाई-बहन को होती है। माता-पिता हर्षित होते हैं, हमारी पुत्र वधू आई। भाई-बहन प्रसन्नता में नाचते फिरते हैं, हमारी भाभी आई। यही सम्बन्ध की महिमा है। अपना प्राचीन सम्बन्ध होने से हमें ऐसा लगा जैसे कवितायें हमारी ही हैं, कवि तो आँख मीचकर कविता कर देता है किन्तु उसका स्वाद तो रसिक ही जानते हैं -

कविः करोति काव्यानि स्वादं जानन्ति पण्डिताः।

अब तक आपकी तीन कविता पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वे कविता क्या हैं, कृष्ण कृपा प्रसाद हैं। यह बात श्री स्वामी जी ने आमुख में बताई ही है। इन कविताओं में सूर परमानन्द आदि की कविताओं की पूरी झलक है। पाठक स्वयं ही इनका रसास्वादन करें।

आश्विन शुक्ला विजया दशमी

सं. 2032 विक्रमी

कुँवर चन्द्र प्रकाश सिंह एम.ए.डी. लिट

(सेवा निवृत्त वरिष्ठ आचार्य एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष, मगध विश्वविद्यालय)

किन शब्दों में धन्यवाद दूँ मूक हो रही वाणी।

श्यामा श्याम रूप हैं पांचों कृतियां ये कल्याणी।।1।।

वर्ण वर्ण में भास मान है, दिव्य साधना धन्या।

रसिकों का अवलम्ब परम है, यह रस सृष्टि अनन्या।।2।।

रस माधुर्य महार्णव में मैं, डूब डूब उतराता।

अन्तर्मुख हो रही वृत्तियाँ, अपरिमेय मधु स्राता।।3।।

पंक्ति पंक्ति में कलित आपकी कला अकल कमनीया।

भरी अर्थ गौरव से अभिनव पदावली महनीया।।4।।

अभिनन्दन स्वीकार करें हे कविर्मनीषी मेरा।

दें आशीष, मधुर दम्पति का उर में रहे बसेरा।।5।।

आशीर्वाद एषा सनातनी गीतिः प्रीति मूर्तेव रीतिभिः।

दम्पती रतये भूयाच्छ्री सनातन कीर्तिता।।1।।

श्री पूर्णानन्द तीर्थोदगत सहज कथा दिव्य गंगा पृषद्भिः।

पूतेऽन्तरर्व्योम्नि पश्यन्नमृत मयं निर्द्वयं ब्रह्म सध्य्रक्।

श्री राधा माधवाभ्यां प्रतिपदमधिकं वर्धमानानुरागो।

विन्दन् माधुर्य सिन्धुं विहरति लहरी लास्य लीला निमग्नः।।2।।

स्वामी श्री सनातन देव जी हमारे लगभग 40 वर्ष के साथी हैं, पूज्यपाद श्री उड़िया बाबा जी के सत्संग में, कल्याण परिवार में, तीर्थ यात्रा में, और संन्यास दशा में भी। वे कहते हैं माधुर्य लहरी के लिये आशीर्वचन लिख दो। मैं माधुर्य लहरी का अवगाहन एवं रसास्वादन करके तृप्त हूँ और आशीर्वचन में इस आनन्द दान के लिए अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। मेरी अन्तरंग अभिलाषा है कि इसके उदगाता श्रोता और अनुशीलक इसका अधिकाधिक रसास्वादन करें।

दिल्ली 18.9.73

अखण्डानन्द सरस्वती

श्रद्धा सुमन

सुप्रसिद्ध चरित लेखक श्री सुदर्शन सिंह चक्र

श्रद्धेय स्वामी श्री सनातन देव जी महाराज के सम्पर्क में आये बिना वर्तमान समय में ज्ञानोत्तरा भक्ति कैसी होती है, समझ में आना कठिन ही है।

गीता प्रेस से निकलने वाले उपनिषदों के शांकर भाष्य तथा गीता मधुसूदनी टीका आदि के हिन्दी टीकाकार तथा अन्य अनेक वेदान्त ग्रन्थों के अनुवादक श्री स्वामी जी पर इस प्रकार भगवत्कृपा का अवतरण हुआ कि उन के हृदय से अकस्मात भाव पूर्ण पदों की धारा उमड़ पड़ी।

ये पद किसी प्राचीन पद रचनाकार के पदों के समकक्ष हैं और उन्हीं के समान इन पदों में विनय, प्रार्थना, दैन्य, लीला वर्णन, अभिलाषा आदि की बार बार अभिव्यक्ति हुई है।

भक्ति में भी दो विभाग है। नवधा भक्ति में 1. श्रवण 2. कीर्तन 3. स्मरण 4. पाद सेवन 5. अर्चन 6. वन्दन 7. दास्य भाव है और यह साध्य साधन उभयात्मक है तथा 8. सख्य और 9. आत्म निवेदन ये दो विशुद्ध भाव हैं। इनमें ही वात्सल्य को भी महानुभावों ने गिना है। इनमें भी आत्म निवेदन को पराकाष्ठा का भाव शास्त्रों एवं सन्तों ने माना है। इसी का नाम माधुर्य भाव है।

माधुर्य कल्लोलिनी इसी चरम भाव की नाना भावपूर्ण पदों की कल्लोलिनी है। रसिक भावुक प्राणी को इसमें अपने अन्तर के श्रेष्ठतम भावों का स्वरूप प्राप्त होगा। इससे रसिक शेखर श्री कृष्ण के प्रति भावोद्रेक होगा।

सम्पादक - श्री कृष्ण सन्देश।


हिन्दी के मूर्धन्य विद्वान पद्यभूषण डा0 रामकुमार वर्मा एम.ए.पीएच.डी.

श्रद्धा समर्पण

भारतीय सन्तों की परम्परा में स्वामी सनातन देव का आविर्भाव सांस्कृतिक और साहित्यिक दृष्टि से अभिवन्दनीय है। सन्त तुलसी दास ने लिखा है-

‘मुद मंगलमय सन्त समाजू’ तो ऐसे सन्तों से तो देश के वातावरण में आनन्द और मंगल की ही सृष्टि होती है।

सन्त के हृदय में परमानन्द की जो अविच्छिन्न धारा प्रवाहित होती है, उसी में संगीत की सृष्टि होती है। उस संगीत में कविता का प्रवाह उसी प्रकार होता है जैसे बसन्त ऋतु में कोकिल का स्वर गूंजने लगता है। स्वामी सनातन देव के दो ग्रन्थ मेरे सामने हैं- माधुर्य लतिका और माधुर्य तंरगिनी- प्रेमाभक्ति किस प्रकार संगीत के स्वरों में प्रवाहित हुई हैं, इन दोनों ग्रन्थ रत्नों को पढ़कर उनका आनन्द रस लेने पर सहज ही अनुभव हो जाता है।

आत्म समर्पण का मनोविज्ञान भगवान श्री कृष्ण की लीला के समानान्तर ऐसा प्रवाहित है जैसे गंगा और यमुना की सम्मिलित धारा भक्ति के तीर्थराज का निर्माण करती है।

मैं इन दोनों रचनाओं का हृदय से स्वागत करते हुए भक्तों से निवेदन करूँगा कि वे स्वामी सनातन देव की इस भक्ति तरंगिनी में अवगाहन करें।

रामकुमार वर्मा

सत्संग भवन में सन्त समागम


सम्भवतः 27-11-1976 की बात है। तब जोधपुर के सत्संग भवन में आप गोपी भाव की साधना में रत थे। उस समय वहाँ श्रद्धेय स्वामी श्री स्वतन्त्रानन्द जी पधारे थे। उन्हें हार्निया का कष्ट था। उसका आपरेशन कराने के लिए उनके अनुगत शिष्य स्वामी श्री योगानन्द जी (श्री आम वाले बाबा) उन्हें पुष्कर से वहाँ ले गये थे। वहाँ की व्यवस्थापिका श्री मीरा बाईं बहुत स्नेहशील, साधु सेवी तथा उदार हृदय महिला थीं। आश्रम दो मंजिल का है। नीचे बहुत बड़ा हाल और सामने श्री राम लक्ष्मण जानकी का भव्य विग्रह है। उस विग्रह के दर्शन से तृप्ति नहीं होती। नित्य प्रातः सायं आरती में सैकड़ों लोग भाग लेते थे। प्रायः सायं की स्तुति भी निर्धारित है।

स्वामी जी उस विग्रह के दर्शन कर भावुक हो उठे। नयनों से अश्रु बहने लगे। महात्मा जानकर पुजारी जी ने विग्रह के सामने चबूतरे पर आपको बैठाया। उस समय भी आप रो रहे थे। उपस्थित भक्तों के आग्रह पर कुछ कहने को प्रस्तुत हुए किन्तु कुछ देर में ही मूचर्िछत होकर नीचे गिर पड़े। उन्हें बैठाया गया। लोग घबरा गये तब श्री योगानन्द तथा हरिनन्दन जी ब्रह्मचारी द्वारा यह बताने पर कि ऐसी अवस्था आपको होती रहती है, लोगों को आश्चर्य हुआ। बाद मंे उन्हें वहाँ से उठाकर ऊपर कमरे में लिटाया गया। इस घटना की चर्चा हो गयी तथा लोग दर्शनार्थ आने लगे। किन्तु आप उस समय तक व्यवहार के योग्य नहीं हो पाये थे।

सायंकाल सात बजे श्री योगानन्द जी आपके पास आये और स्वामी जी के सम्बन्ध में बताये। स्वामी जी की भाव पूर्ण स्थिति तथा गहन ज्ञान का परिचय पाकर आप की उनसे मिलने की इच्छा हुई। उस समय आप उस तहखाने में ही रहते थे केवल दिन में भोजन तथा स्नानादि के लिए ऊपर जहाँ परदा लगा हुआ था वहाँ तक ही जाते थे। अतः आपने उनसे प्रार्थना की कि श्री स्वामी जी को आप मेरे पास लें आवें। वे बोले- स्वामी जी मौजी मना हैं। कह नहीं सकता कि मेरे कहने से आ ही जायेंगे। हुआ भी ऐसा ही। स्वामी जी ने वहाँ आना स्वीकार नहीं किया तब आप अपने प्रतिबन्ध का विचार न करके स्वयं ही उनके पास चले गये। योगानन्द जी ने आकर स्वामी जी को बताया तथा आपने उन्हें नमो नारायण स्वामी जी कह कर अभिवादन किया। स्वामी जी ने भी आपकी सरलता तथा शिष्टाचार को महत्व दिया।

आपने वेदान्त निष्ठा के बावजूद सखी भाव की साधना में प्रवृत्ति के लिए स्वामी जी की सम्मति चाही। स्वामी जी ने कहा- ज्ञानी स्वतन्त्र है। गीता श्रवण के पश्चात् अर्जुन ने युद्ध जैसा घोर कर्म किया। यह तो भक्ति भाव की साधना है। नारद और शंकर भी गोपी भाव के लिए लालायित रहते हैं आप तो शास्त्रानुमोदित कार्य कर रहे हैं, आपको शंका क्यों होती है? ब्रह्मनिष्ठ तो ‘न शोचति न मुह्यति।’

स्वामी जी की बात से आपको बड़ा हर्ष हुआ और अपनी साधना तथा स्थिति से अवगत कराकर हृदय की शुष्कता के लिए खेद प्रकट किया तब उन्होंने आपको आश्वस्त किया।

दूसरे दिन स्वामी जी सायंकाल आपके उपासना कक्ष में आए। वहाँ एक छोटा सा मन्दिर था जिस में खूब सुसज्जित आसन पर श्री मुरली मनोहर की सुन्दर मूर्ति स्थापित थी। उन्हें देखकर स्वामी जी भावाविष्ट हो गये, वहीं सेब रखा हुआ था उसे उठाकर श्री विग्रह पर चला दिये और जोर जोर से रोने लगे। इसी समय आपने उन्हें स्पर्श किया तो विक्षेप होने से चीख पड़े, आप स्तब्ध रह गये। बाद में प्रकृतिस्थ होने पर कुछ वार्तालाप हुआ।

आपने बताया कि श्री उड़िया बाबा में ज्ञान निष्ठा थी लेकिन आप जैसी उपरामता नहीं थीं वे व्यवहार बहुत करते थे। श्री हरि बाबा में भक्ति भाव विशेष था किन्तु आप जैसी तन्मयता और भावाविष्ट स्थिति नहीं थी। बाद में कुछ चर्चा चलने पर आप भी स्वामी जी के साथ भावाविष्ट हो गये। बाद में प्रकृतिस्थ होने पर स्वामी जी वहाँ से उठकर अपने कक्ष में आ गये थे।

आपने एक पत्र में लिखा है -

फिर तो आपकी ओर मेरा और भी आकर्षण बढ़ गया। समय-समय पर श्री वृन्दावन और ऋषिकेश में कई बार आप से भेंट होती रही। आपने अपनी लिखी पुस्तकें भी दीं। उनमें दो तो श्रीमद् भगवत गीता और नारद भक्ति सूत्रों की व्याख्या है और तीन मौलिक हैं। पांचों पुस्तकों में सैकड़ों ग्रन्थों से प्रमाण उदधृत किये हुए हैं और उनमें एक भी प्रमाण भाषा का नहीं हैं, सभी प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों के हैं। यह देखकर आश्चर्य होता है कि इतने भावुक होते हुए भी आपने ऐसी ग्रन्थ रचना कैसे कर दी। आपका कथन है कि मैं केवल आर्ष ग्रन्थ ही पढ़ता हूँ। इस प्रकार आपमें तत्व निष्ठा, प्रेम और विद्वता तीनों का ही अदभुत समन्वय हुआ है। अपनी पचासी वर्ष की आयु में मैं कई महापुरूषों के सम्पर्क में आया हूँ। परन्तु ऐसे कोई सन्त नहीं मिलें जो पूर्ण तत्व निष्ठ होते हुए भी इतने भावुक हों। आपमें ज्ञान भक्ति और वैराग्य, तीनों का ही संगम देखने को मिला। इस त्रिवेणी का दर्शन करने का जिन्हें सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे धन्य हैं। इसका स्पर्श पाकर मेरा नीरस हृदय भी कुछ सरसता का अनुभव करता है। मैं अपने को भाग्यशाली समझता हूँ।

गढखल

स्वामी सनातन देव

13.6.1987

पूर्वाभास

अब जोधपुर में आपकी साधना का अन्तिम दोर चल रहा था। सन् 1988 के फरवरी मास में लगा कि अब यह शरीर अधिक दिन नहीं चलेगा। फलतः साधना का भी समापन होना है। अतः आपने अपने साधन सामग्री सम्बन्धी आवश्यक उपकरणों को सत्पात्रों को वितरित करने का निश्चय कर लिया।

श्रृंगार के वस्त्र तथा आभूषण आपने ऋषभ देव जी को दे दिये तथा उन्होंने आप के निर्देशानुसार ही उन्हें वृन्दावन के आपके प्रेमी किसी रासधारी मंडली को दे दिया। कुछ सामग्री जो सामान्य व्यवहार के लिए उपयोगी थी बहिन स्नेह लता जी को दे दिया। शेष रहे वस्त्राभूषण श्री मीरा बाई जी (सत्संग भवन की व्यवस्थापिका) को दे दिये। आपके उपास्य ठाकुर जी के विग्रह को श्री रूड़मल (त्ण्डण्) शर्मा जोधपुर वाले ले गये तथा आपके गले की माला श्री ऋषभ देव जी ले लिये।

इस प्रकार सामग्री वितरण करके आप पूर्ववत अपरिग्रही अकिंचन हो गये, और एक प्रकार का हल्कापन अनुभव करने लगे।

जोधपुर से होली के अवसर पर श्री वृन्दावन आए और वहाँ श्री कृष्णाश्रम में कुछ दिन निवास करके प्रेमी भक्तों को आनन्दित करते रहे। अब शरीर की शिथिलता ने यह पूर्णतः आभास करा दिया था कि अब चलने की तैयारी है, तदानुसार व्यवहार में भी धीरे-धीरे उपरामता बढ़ने लगी थी।

वृन्दावन से चलकर आप दिल्ली होते हुए फिरोजपुर पहुँचे तथा वहाँ से गर्मी के कुछ अधिक बढ़ने पर ऋषिकेश गये। वहाँ से वर्षा के दिनों में आप कसौली (जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश) में अपने निर्धारित कार्यक्रमानुसार पहुँच गये। वहाँ बंगाली बाबा की कुटिया में निवास करने लगे। कुछ दिन पश्चात् शारीरिक अस्वस्थता का अनुभव होने पर जून 88 के अन्त में आप गढखल में डॉ. श्री विजय भानु जी कौशिक के यहाँ एक अलग कमरे में रहने लगे। उस समय बहिन श्री स्नेह लता जी भी वहीं थीं।

एकदिन प्रातः काल आप टहलकर आए और कमरे में प्रवेश कर रहे थे तो अचानक सिर लकड़ी की दीवार से टकरा गया और काफी चोट आई। नाक से खून बहने लगा। बाद में पूछने पर आपने बताया कि असावधानीवश सिर दीवार से टकरा गया था इसलिए खून निकल रहा है।

दो तीन दिन तक खून रूक रूक कर निकलते रहने के कारण काफी कमजोरी आ गयी और एक रात को आप मूर्छित हो गये।

प्रातःकाल डॉ. श्री विजय भानु जी कौशिक आप को गाड़ी में लिटाकर पी.जी. आई चण्डीगढ़ ले गये। वहाँ डाक्टर ने भर्ती कर लिया तथा जांच करने लगे। जांच में ब्रेन हैम्ब्रेज ज्ञात हुआ। सिर में गहरी चोट होने से आपरेशन कराना आवश्यक हो गया था। समाचार पाकर ऋषभ देव जी भी फिरोजपुर से वहाँ पहुँच गये तथा परस्पर सलाह मशविरा करके आपरेशन करा दिया। आपरेशन के बाद होश में आने पर आपने कहा- आपरेशन नहीं कराना चाहिए था।

चण्डीगढ़ में इन लोगों के ठहरने की समुचित व्यवस्था नहीं होने से ये लोग रात में वहाँ से चले आते थे और दिन में वहाँ उपस्थित रहते थे। चार पांच दिन के उपचार के पश्चात् भी सुधार नहीं हो रहा था, हालत गिरती जा रही थी। श्री ऋषभ देव जी, कौशिक जी और स्नेह लता जी पूरे मन से सेवा में तत्पर रहते थे।

महा-प्रयाण

हालत देखकर चिन्तित होना स्वाभाविक था किन्तु कोई चारा नहीं था। दि. 8.7.1988 को प्रातः 9 बजे आपने महाप्रयाण किया। डाक्टर तथा उपस्थित परिचारकों ने आप जैसे महापुरूष के प्रति श्रद्धा पूरित हृदय से भाव भीनी विदाई दी, और ऋषभ देव जी, डॉ. कौशिक को इस हृदय द्रावक घटना की सूचना दी। समाचार पाकर श्री ऋषभ देव जी पी.जी. आई पहुँचे और आपके मृत शरीर केा लेकर प्रेमी जनों के साथ ऋषिकेश की यात्रा की। वहाँ श्री शंकरानंद जी आदि अनेक महापुरूषों ने आपकी शव यात्रा की तैयारी की और समारोह पूर्वक जल समाधि दी गयी।

सन्तों ने आपकी आदर्श रहनी और सरलता तथा विद्वता की भूरि भूरि सराहना की। वहाँ से आप लोग श्री कृष्णाश्रम वृन्दावन आए और वहाँ आपके समष्टि भंडारे की व्यवस्था में लग गये। नियत समय पर भंडारा हुआ जिसमें वृन्दावन के सन्तों, महान्तों ने भाग लिया और आप की गुण गरिमा का बखान किया।

इधर डॉ. विजय भान जी कौशिक की अध्यक्षता में कसौली और सोलन वालों ने आपके निमित्त समष्टि भंडारा का कसौली में आयोजन किया जिसमें वहाँ के लोगों ने आपके प्रति भाव भीनी श्रद्धांजलि समर्पित की। संपर्क में आए हुए लोग आपकी स्मृति में फूट फूटकर रो रहे थे। आपने अपने उदार चरित और मृदुल व्यवहार से सबको अभिभूत कर दिया।

इस प्रकार एक आदर्श महापुरूष ने इस धराधाम को त्याग कर अपने दिव्य उन्नत अलौकिक कर्माे का जगत को वरदान देकर महाप्रयाण किया।

स्वामी श्री सनातन देव द्वारा अनूदित तथा विरचित गन्थ