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स्‍याही से लि‍खे हर्फ़ / रश्मि शर्मा

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पार्क की बेंच पर
कनेर के पीले फूलों वाले
पेड़ तले
मेरी खुली हथेलि‍यों पर उसने
बड़ी नरमाई से फेरी
अपनी तर्जनी
लि‍खा हो जैसे
कोई नाम
होंठों पर मुस्‍कान भर
भवें उठा, आंखों ही आंखों में पूछा
बोलो - क्‍या लि‍खा इसमें


मैंने देखा उसका चेहरा
कोमल भाव
होठों के कोरों पर छुपी,
शरारती हंसी
आत्‍मवि‍श्‍वास से लबरेज
चमकती आंखों में झांका
जो कह रही थीं
वही बोलोगी न तुम, जो मुझे सुनना है ?


हथेली पर घूमती
उल्‍टी-सीधी लकीरें खींचती
उसकी ऊंगलि‍यों तले
मैं कुरेदती रही यादों की राख
झांकती रही
उसकी नि‍र्दोष आंखों में
और सुनती रही, सुनी सी,गुम आवाजें
तेरी हथेलि‍यों पर लि‍ख दि‍या है
मेरे नाम का पहला अक्षर


अब सब कुछ गड्डमड्ड था
ये ही बात..वो ही आवाज़
सुनी थी, तो क्‍या
वो पि‍छले जन्‍म की बात थी
मुझ पर ठहरी आंखों का ताब
कैसे सहूं
पकड़कर उसकी और अपनी तर्जनी
उड़ा दि‍या हवा में
कांपती आवाज को पहनाया
खि‍लखि‍लाहट का जामा
कहा - कौआ उड़, तोता उड़, मैना उड़....


उसकी आंखें आकाश में थी
अचरज से भरी , पंछि‍यों को ढूंढतीं
और अपने दुपट्टे के कोने से रगड़ रही थी
मैं अपनी हथेली
नाम तो कोई खुदता नहीं हथेली में
स्‍याही से लि‍खे थे हर्फ़, मि‍ट ही जाएंगे
खेल-खेल में कई बार
हम तोते के साथ, पेड़ भी तो उड़ा देते हैं।