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स्‍वाध्‍याय कक्ष में वसंत / हरिवंशराय बच्चन

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शहर का,फिर बड़े,
तिसपर दफ्तरी जीवन--
कि बंधन करामाती--
जो कि हर दिन
(छोड़कर इतवार को,
सौ शुक्र है अल्लामियाँ का,
आज को आराम वे फ़रमा गए थे)
सुबह को मुर्गा बनाकर है उठाता,
एक ही रफ़्तार-ढर्रे पर घुमाता,
शाम को उल्लू बनाकर छोड़ देता,
कब मुझे अवकाश देता,
कि बौरे आम में छिपकर कुहुकती
कोकिला से धडकनें दिल की मिलाऊँ,
टार की काली सड़क पर दौड़ती
मोटर,बसों से,लारियों से,
मानवों को तुच्छ-बौना सिद्ध करती
दीर्घ-द्वार इमारतों से, दूर
पगडंडी पकड़ कर निकल जाऊँ,
क्षितिज तक फैली दिशाएँ पिऊँ,
फागुन के संदेसे कि हवाएँ सुनूँ,
पागल बनूँ,बैठूँ कुंज में,
वासंतिका का पल्लवी घूँघट उठाऊँ,
आँख डालूँ आँख में,
फिर कुछ पुरानी याद ताज़ी करूँ,
उसके साथ नाचूँ,
कुछ पुराने,कुछ नए भी गीत गाऊँ,
हाथ में ले हाथ बैठूँ,
और कुछ निःशब्द भावों की
भँवर में डूब जाऊँ--
           किंतु फागुन के संदेसे की हवाएँ
           है नहीं इतनी अबल,असहाय
           शहर-पनाह से,
           ऊँचे मकानों से,दुकानों से,
           ठिठकर बैठ जाएँ,
           या कि टकराकर लौट जाएँ.
           मंत्रियों की गद्दियों से,
           फाइलों की गड्डियों से,
           दफ्तरों से,अफ़सरों से,
           वे न दबतीं;
           पासपोर्ट चाहिए न उनको, न वीज़ा.
           वे नहीं अभिसारिकाएँ
           जो कि बिजली की
           चकाचौंधी चमक से
           हिचकिचाएँ.
           वे चली आती अदेखी,
           बिना नील निचोल पहने,
           सनसनाती,
           और जीवन जिस जगह पर गुनगुनातीं,
           सझ,स्वाभाविक,अनारोपित,
           वहाँ पर गुनगुनाती,
           गुदगुदातीं,
           समय मीठे दर्द की लहरें उठातीं;
           (और क्या ये पंक्तियाँ हैं ?)
           क्लर्कों के व्यस्त दरबों,
           उल्लुओं के रात के अड्डों,
           रूप-वाक्पटुता-प्रदर्शक पार्टियों से,
           होटलों से,रेस्त्रांओं से,
           मगर उनको घृणा है.
आज छुट्टी;
आज मुख पर क्लार्की चेहरा लगाकर
असलियत अपनी छिपानी नहीं मुझको,
आज फिर-फिर फ़ोन कि आवाज
अत्याचार मेरे कान पर कर नहीं सकती,
आज टंकनकारियों के
आलसी फ़ाइल,नोटिसें पुर्जियां,
मेरी जी नहीं मिचला सकेंगी.
आज मेरी आँख अपनी,कान अपनी,नाक अपनी.
इसीलिए आज
फागुन के संदेसे की हवाओं की
मुझे आहट मिली है
पत्र-पुस्तकें चित्र-प्रतिमा-फूलदा
सजीव इस कवि कक्ष में
जिसकी खुली है एक खिड़की
लॉन से उठती हुई हरियालियों पर,
फूल-चिड़ियों को झुलाती डालियों पर,
और जिसका एक वातायन
गगन से उतरती नव नीलिमाओं पर
खुला है.
बाहरी दीवार का लेकर सहारा
लोम-लतिका
भेद खिड़की पर मढ़ी जाली अचानक
आज भीतर आ गई है
कुछ सहमती,सकपकाती भी कि जैसे
गाँव की गोरी अकेली खड़ी ड्राइंगरूम में हो.
एक नर-छिपकली
मादा-छिपकली के लिए आतुर
प्रि...प्रि...करती
आलमारी-आलमारी फिर रही है.
एक चिड़िया के लिए
दो चिड़े लड़ते,चुहचुहाते,फुरफुराते
आ गए हैं--
उड़ गए हैं--
आ गए फिर--
उड़ गए फिर--
एक जोड़ा नया आता !...
किस क़दर बे-अख्तियारी,बेक़रारी !--
'नटखटों,यह चित्र तुलसीदास का है,
मूर्ति रमन महर्षि की है.'
किंतु इनके ही परों के साथ आई
फूल झरते नीबुओं की गंध को
कैसे उड़ा दूँ ?--
हाथ-कंगन,वक्ष,वेणी,सेज के
शत पुष्प कैसे नीबुओं में बस गए हैं !--
दृष्टि सहसा
वात्स्यायन-कामसूत्र,कुमार-संभव
की पुरानी जिल्द के ऊपर गई है
कीट-चित्रित गीत श्री जयदेव का वह,
वहाँ विद्यापति-पदावली,
वह बिहारी-सतसई है,
और यह 'सतरंगिनी';
ये गीत मेरे ही लिखे क्या !
जिए क्षण को
जिया जा सकता नहीं फिर--
याद में ही--
क्योंकि वह परिपूर्णता में थम गया है.
और मीठा दर्द भी
सुधि में घुलाते
तिक्त और असह्य होता.
           और यह भी कम नहीं वरदान
           ऐसे दिवस
           मेरे लिए कम हैं,
           और युग से देस-दुनिया
           और अपने से शिकायत
           एक भ्रम है;
           क्योंकि जो अवकाश हा क्षण
           सरस करता
           नित्य-नीरस-मर्त्य श्रम है,
           किंतु हर अवकाश पल को
           पूर्ण जीना,
           अमर करना क्या सुगम है ?--