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हँसी आने पे चेहरे की उदासी छूट जाती है / रामप्रकाश 'बेखुद' लखनवी

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हँसी आने पे चेहरे की उदासी छूट जाती है
कि जैसे जख्म भर जाने पे पपड़ी छूट जाती है

वही इक रोज खो जाता है इस दुनिया के मेले में
 कि जिस बच्चे से उसकी माँ की उंगली छूट जाती है

कभी सोचा है उस दिन उसके घर चूल्हा नहीं जलता
किसी मजदूर की जिस दिन दिहाड़ी छूट जाती है

किताबें इतनी महंगी फीस कुछ इतनी ज्यादा है
न जाने कितने बच्चों की पढाई छूट जाती है

किसी का रोते रोते भीग जाता है यहाँ दामन
किसी की राह तकते तकते मेहंदी छूट जाती है

किसी बिरहन से पूछो कैसी होती है शबे फुरकत
कि काजल आँख का माथे की बिंदी छूट जाती है

चले आओ कहीं ऐसा न हो बीमार उठ जाए
ज़रा सी देर हो जाने पे गाडी छूट जाती है