भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हँस दे तो खिले कलियाँ गुलशन में बहार आए / सलीम रज़ा रीवा

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:26, 6 मई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सलीम रज़ा रीवा |अनुवादक= |संग्रह= }}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हँस दे तो खिले कलियाँ गुलशन में बहार आए
वो ज़ुल्फ़ जो लहराएँ मौसम में निखार आए

मिल जाए कोई साथी हर ग़म को सुना डालें
बेचैन मेरा दिल है पल भर को क़रार आए

मदहोश हुआ दिल क्यूँ बेचैन है क्यूँ आँखे
हूँ दूर मैख़ाने से फिर क्यूं ए ख़ुमार आए

खिल जाएंगी ये कलियाँ महबूब के आमद से
जिस राह से वो गुज़रे गुलशन में बहार आए

जिन जिन पे इनायत है जिन जिन से मुहब्बत है
उन चाहने वालो में में मेरा भी शु मार आए

फूलों को सजाया है पलकों को बिछाया है
ऐ बादे सबा कह दे अब जाने बहार आए

बुलबुल में चहक तुमसे फूलों में महक तुमसे
रुख़सार पे कलिओं के तुमसे ही निखार आए