Last modified on 25 नवम्बर 2017, at 01:09

हँस रहा हूँ वक़्त पर / जयप्रकाश त्रिपाठी

कैसे-कैसे गीत गाए जा रहे हैं,
सुन रहा हूँ, हँस रहा हूँ वक़्त पर।

बेवजह वो गुनगुनाए जा रहे हैं,
सुन रहा हूँ, हँस रहा हूँ वक़्त पर।

फटेहाली, ठण्ड, ठिठुरन, मौत,
गुस्सा इस तरफ की बस्तियों में,
उस तरफ डमरू बजाए जा रहे हैं,
सुन रहा हूँ, हँस रहा हूँ वक़्त पर।

ये अजनबी मस्तियों की लहर,
क्यों है मसखरी का यह जुनून,
बेसुरे सरगम सुनाए जा रहे हैं,
सुन रहा हूँ, हँस रहा हूँ वक़्त पर।

कुर्सियों वाली ज़मीनों में दफ़न
दौलत हड़पने की बड़ी जद्दोजहद,
दाँव सारे आजमाए जा रहे हैं,
सुन रहा हूँ, हँस रहा हूँ वक़्त पर।

रास आने लगा है हर शख़्स को
अब तो अमावस का अन्धेरा,
सुना है, दीए बुझाए जा रहे हैं,
सुन रहा हूँ, हँस रहा हूँ वक़्त पर।