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हंस कहाँ मिलिहैं अब तो बर / हंस

हंस कहाँ मिलिहैं अब तो बर भक्ति के भाव वे पूरब वारे ।
तीरथ मे छहरात न शांति सदाँ घहरात हैँ लोभ नगारे ।
मँदिर के दृढ़ जाल तनाय तहाँ बहु ब्याध पुजारी निहारे ।
फाँसत कामिनी कंचन की चिरियाँ धरि मूरति के बर चारे ।


हंस का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।