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हक़ीर ख़ाक के ज़र्रे थे आसमान हुए / आमिर उस्मानी

हक़ीर ख़ाक के ज़र्रे थे आसमान हुए
वो लोग जो दर-ए-जानाँ के पासबान हुए

शुदा-शुदा वही गुलशन के हुक्मरान हुए
जो ख़ार पी के गुलों का लहू जवान हूए

हम ऐसे अहल-ए-जुनूँ पर हँसे न क्यूँ दुनिया
कि सर कटा के समझते हैं कामरान हुए

ये कम नहीं कि बुझाई है प्यास काँटों की
बला से राह-ए-वफ़ा में लहूलुहान हुए

गुलों ने आबला-पाई की कोई दाद न दी
चमन में ख़ार ही छालों के मेज़बान हुए

किया जो भूल के दिल ने ख़याल-ए-तर्क-ए-वफ़ा
हम अपने आप से क्या क्या न बद-गुमान हुए