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हकीक़तों से उलझता रहा फ़साना मेरा / शाहिद माहुली

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हकीक़तों से उलझता रहा फ़साना मेरा
गुज़र गया है मुझे रौंद के ज़माना मेरा

समन्दरों में कभी तिश्नगी के सहरा में
कहाँ-कहाँ न फिरा लेके आब व दाना मेरा

तमाम शहर से लड़ता रहा मेरी ख़ातिर
मगर उसी ने कभी हाल-ए-दिल सुना न मेरा

जो कुछ दिया भी तो महरूमियों का ज़हर दिया
वो सांप बन के छुपाये रहा खज़ाना मेरा

वो और लोग थे जो मांग ले गए सब कुछ
यहाँ तो शर्म थी दस्त ए तलब उठा न मेरा

मुझे तबाह किया इल्तिफ़ात ने उसके
उसे भी आ न सका रास दोस्ताना मेरा

किसे कबूल करें और किसको ठुकराएँ
इन्हीं सवालों में उलझा है ताना-बाना मेरा